सत्संग और भगवद्भक्तोंके लक्षण, उनकी महिमा, प्रभाव और उदाहरण
‘सत् ’ जो भगवान् हैं, उनके प्रति प्रेेम और उनका मिलन ही वास्तविक एवं मुख्य सत्संग है। भगवत्प्राप्त भक्तों या जीवन्मुक्त ज्ञानी महात्माओंका संग दूसरी श्रेणीका सत्संग है। भगवत्प्रेमी उच्चकोटिके साधकोंका संग तीसरी श्रेणीका सत्संग है। चौथी श्रेणीमें सत्-शास्त्रोंका अनुशीलन भी सत्संग है।
सत्स्वरूप भगवान्में प्रेम होना और उनका मिलना तो सब साधनोंका फल है तथा जो भगवान्को प्राप्त हो चुके हैं और जिनका भगवान्में अनन्य प्रेम है, ऐसे भगवत्प्राप्त भक्तोंका मिलन या संग भगवान्की कृपासे ही मिलता है। वह पुरुष भगवान्की कृपाका अधिकारी होता है, जो अपनेपर भगवान्की अतिशय कृपा मानता है। वह फिर उस कृपाको तत्त्वसे जानकर परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है (गीता ५। २९)। जिसका भगवान्में और उनके भक्तोंमें श्रद्धा, विश्वास और प्रेम होता है एवं जिसके अन्त:करणमें पूर्वके श्रद्धा-भक्तिविषयक संस्कार संचित हैं, वह भी भगवान्की कृपाका अधिकारी होता है।
श्रीरामचरितमानसके सुन्दरकाण्डमें भक्त विभीषणने हनुमान्जीसे कहा है—
अब मोहि भा भरोस हनुमंता।
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥
(सुन्दर० ६। २)
‘हे हनुमान्! अब मुझे विश्वास हो गया कि श्रीरामजीकी मुझपर कृपा है; क्योंकि हरिकी कृपाके बिना संत नहीं मिलते।’
श्रीशिवजी भी पार्वतीजीसे कहते हैं—
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन।
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान॥
(रा० च० मा०, उत्तर० १२५ ख)
‘हे गिरिजे! संत-समागमके समान दूसरा कोई लाभ नहीं है। पर वह श्रीहरिकी कृपाके बिना सम्भव नहीं है, ऐसी बात वेद और पुराण कहते हैं।’
पूर्वके उत्तम संस्कारोंके प्रभावसे भी भक्तोंका मिलन होता है। श्रीरामचरितमानसके उत्तरकाण्डमें स्वयं भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने प्रजाको उपदेश देते हुए कहा है—
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी।
बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी॥
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता।
सतसंगति संसृति कर अंता॥
(४४। ३)
‘भक्ति स्वतन्त्र साधन है और सब सुखोंकी खान है। परंतु सत्संगके बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते और पुण्यसमूहके बिना संत नहीं मिलते। सत्संगति ही जन्म-मरणके चक्रका अन्त करती है।’
अब ऐसे भगवत्प्राप्त पुरुषोंके लक्षण बतलाये जाते हैं, जिनको गीतामें स्वयं भगवान्ने अपना प्रिय भक्त कहा है—
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।
निर्ममो निरहंकार: समदु:खसुख: क्षमी॥
संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय:।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥
(१२। १३-१४)
‘जो पुरुष जीवमात्रके प्रति द्वेषभावसे रहित, सबका स्वार्थरहित प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा ममतासे रहित, अहंकारसे शून्य, सुख-दु:खोंकी प्राप्तिमें सम और क्षमावान् है अर्थात् अपराध करनेवालेको भी अभय कर देता है तथा जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, जिसने मन-इन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें कर लिया है, जिसका मुझमें दृढ़ निश्चय है तथा जिसके मन एवं बुद्धि मुझमें अर्पित हैं, वह मेरा भक्त मुझको प्रिय है।’
भगवत्प्राप्त भक्तों या जीवन्मुक्त गुणातीत पुरुषोंका सभी प्राणियों एवं पदार्थोंके प्रति समान भाव होता है (गीता १४। २४-२५)। उनका किसीसे भी व्यक्तिगत स्वार्थका सम्बन्ध नहीं होता (गीता ३। १८)। उनका देह या मकान आदिमें ममता, आसक्ति और अभिमानका सर्वथा अभाव होता है (गीता १२।१९)। उनका यावन्मात्र प्राणियोंपर दया और प्रेम रहता है (गीता १२।१३) एवं उनका सबमें समभाव भी रहता है। उन परमात्माको प्राप्त हुए पुरुषोंके समभावका वर्णन करते हुए भगवान्ने कहा है—
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:॥
(गीता ५। १८)
‘वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मणमें तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डालमें भी समान दृष्टि रखते हैं।’
यहाँ भगवान्ने ज्ञानीको समदर्शी कहकर यह भाव व्यक्त किया है कि उनका सबके साथ शास्त्रविहित न्याययुक्त व्यवहारका भेद रहते हुए भी सबमें समभाव रहता है। सबके साथ समान व्यवहार तो कोई कर ही नहीं सकता; क्योंकि विवाह या श्राद्धादि कर्म ब्राह्मणसे ही करवाये जाते हैं, चाण्डाल आदिसे नहीं; दूध गायका ही पीया जाता है, कुतियाका नहीं; सवारी हाथीकी ही की जाती है, गायकी नहीं; पत्ते और घास आदि हाथी और गायको ही खिलाये जाते हैं, कुत्ते या मनुष्योंको नहीं। अत: सबके हितकी ओर दृष्टि रखते हुए ही आदर-सत्कारपूर्वक सबके साथ यथायोग्य व्यवहार करना ही समव्यवहार है, न कि एक ही पदार्थसे सबकी समानरूपसे सेवा करना। किंतु सबमें व्यवहारका यथायोग्य भेद रहनेपर भी प्रेम और आत्मीयता अपने शरीरकी भाँति सबसे समान होनी चाहिये। जैसे अपने शरीरमें प्रेम और आत्मभाव (अपनापन) समान होते हुए भी व्यवहार अपने ही अंगोंके साथ अलग-अलग होता है—जैसे मस्तकके साथ ब्राह्मणके समान, हाथोंके साथ क्षत्रियके समान, जंघाके साथ वैश्यके समान, पैरोंके साथ शूद्रके समान एवं गुदा-उपस्थादिके साथ अछूतके समान व्यवहार किया जाता है; उसी प्रकार सबके साथ अपने आत्माके समान समभाव रखते हुए ही यथायोग्य व्यवहार करना चाहिये। भगवान् कहते हैं—
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत:॥
(गीता ६। ३२)
‘हे अर्जुन! जो योगी अपनी भाँति सम्पूर्ण भूतोंमें समदृष्टि रखता है और सुख अथवा दु:खको भी सबमें सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है।’
श्रीरामचरितमानसमें भरतके प्रति संतोंके लक्षण बतलाते हुए भगवान् श्रीरामचन्द्रजी कहते हैं—
बिषय अलंपट सील गुनाकर।
पर दुख दुख सुख सुख देखे पर॥
सम अभूतरिपु बिमद बिरागी।
लोभामरष हरष भय त्यागी॥
कोमलचित दीनन्ह पर दाया।
मन बच क्रम मम भगति अमाया॥
सबहि मानप्रद आपु अमानी।
भरत प्रान सम मम ते प्रानी॥
बिगत काम मम नाम परायन।
सांति बिरति बिनती मुदितायन॥
सीतलता सरलता मयत्री।
द्विज पद प्रीति धर्म जनयत्री॥
ए सब लच्छन बसहिं जासु उर।
जानेहु तात संत संतत फुर॥
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं।
परुष बचन कबहूँ नहिं बोलहिं॥
(उत्तर० ३७। १—४)
निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज।
ते सज्जन मम प्रानप्रिय गुन मंदिर सुखपुंज॥
(उत्तर० ३८)
‘संत विषयोंमें लंपट (लिप्त) नहीं होते, वे शील और सद्गुणोंकी खान होते हैं। उन्हें पराया दु:ख देखकर दु:ख और सुख देखकर सुख होता है। वे सबमें सर्वत्र सब समय समदृष्टि रखते हैं। उनमें मनमें उनका कोई शत्रु नहीं होता। वे घमण्डसे शून्य और वैराग्यवान् होते हैं तथा लोभ, क्रोध, हर्ष और भयके त्यागी होते हैं। उनका चित्त बड़ा कोमल होता है। वे दीनोंपर दया करते हैं तथा मन, वचन और कर्मसे मेरी निष्कपट (विशुद्ध) भक्ति करते हैं। सबको सम्मान देते हैं; पर स्वयं मानरहित होते हैं। हे भरत! वे प्राणी (संतजन) मुझे प्राणोंके समान प्यारे होते हैं। उनमें कोई कामना नहीं होती। वे मेरे नामके परायण (आश्रित) होते हैं तथा शान्ति, वैराग्य, विनय और प्रसन्नताके घर होते हैं। उनमें शीतलता, सरलता, सबके प्रति मित्रभाव और ब्राह्मणोंके चरणोंमें प्रीति होती है, जो सम्पूर्ण धर्मोंकी जननी है। हे तात! ये सब लक्षण जिसके हृदयमें बसते हों, उसको सदा सच्चा संत जानना। जिनका मन और इन्द्रियाँ वशमें होती हैं, जो नियम (सदाचार) और नीति (मर्यादा)-से कभी विचलित नहीं होते और मुखसे कभी कठोर वचन नहीं बोलते, जिन्हें निन्दा और स्तुति दोनों समान हैं और मेरे चरणकमलोंमें जिनकी ममता है, वे गुणोंके धाम और सुखकी राशि संतजन मुझे प्राणोंके समान प्रिय हैं।’
इन लक्षणोंमें बहुत-से तो आन्तरिक होनेके कारण स्वसंवेद्य हैं, अत: उनको वे भक्त स्वयं ही जानते हैं और बहुत-से आचरण ऐसे भी हैं, जिन्हें देखकर दूसरे लोग भी उनकी स्थितिका कुछ अनुमान लगा सकते हैं। किंतु वास्तवमें तो ईश्वर और महात्माओंकी जिनपर कृपा होती है, वे ही उनको जान सकते हैं। जिनके संग, दर्शन, भाषण और वार्तालापसे अपनेमें भगवत्प्राप्त पुरुषोंके लक्षणोंका प्रादुर्भाव हो, हमारे लिये तो वे ही भगवत्प्राप्त संत हैं—यों समझकर उन सत्पुरुषोंसे लाभ उठाना चाहिये। जो सत्पुरुषोंका श्रद्धा-भक्तिपूर्वक संग करके उनकी आज्ञाका पालन करता है, वही उनसे विशेष लाभ उठा सकता है। गीतामें भगवान्ने कहा है—
अन्ये त्वेवमजानन्त: श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणा:॥
(१३। २५)
‘दूसरे (मन्दबुद्धि लोग जो ध्यानयोग, ज्ञानयोग, कर्मयोगकी बात नहीं जानते) इस प्रकार न जानते हुए दूसरोंसे—तत्त्वको जाननेवाले पुरुषोंसे सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागरको निस्संदेह पार कर लेते हैं।’
ऐसे संतोंके संगकी महिमा और प्रभावका वर्णन करते हुए गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी कहते हैं—
जलचर थलचर नभचर नाना।
जे जड़ चेतन जीव जहाना।
मति कीरति गति भूति भलाई।
जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ।
लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥
बिनु सतसंग बिबेक न होई।
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसंगत मुद मंगल मूला।
सोइ फल सिधि सब साधन फूला॥
सठ सुधरहिं सतसंगति पाई।
पारस परस कुधात सुहाई॥
(रा० च० मा०, बाल० २। २—५)
‘जलमें रहनेवाले, जमीनपर चलनेवाले और आकाशमें विचरनेवाले नाना प्रकारके जड-चेतन जो भी जीव इस जगत् में हैं, उनमेंसे जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी उपायसे बुद्धि (ज्ञान), कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई (अच्छापन) पायी है, वह सब सत्संगका ही प्रभाव समझना चाहिये। वेदोंमें और लोक में भी उनकी प्राप्तिका दूसरा कोई साधन नहीं है। सत्संगके बिना विवेक (सत्-असत् की पहचान) नहीं होता और श्रीरामचन्द्रजीकी कृपाके बिना वह सत्संग सहजमें मिलता नहीं। सत्संगति आनन्द और कल्याणकी जड़ है। सत्संगकी सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है, अन्य सब साधन तो फूल हैं। दुष्ट भी सत्संग पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारसके स्पर्शसे लोहा सुहावना हो जाता है—सुन्दर सुवर्ण बन जाता है।’
इसी विषयमें श्रीमहादेवजीने गरुड़जीसे कहा है—
बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ६१)
‘सत्संगके बिना श्रीहरिकी कथा सुननेको नहीं मिलती, हरिकथा-श्रवणके बिना मोह नहीं भागता—मोहका नाश नहीं होता और मोहके गये बिना श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें दृढ़ (अचल) प्रेम नहीं होता।’
श्रीकाकभुशुण्डिजीने भी गरुड़जीसे कहा है—
सब कर फल हरि भगति सुहाई।
सो बिनु संत न काहूँ पाई॥
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा।
राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा॥
(रा० च० मा, उत्तर० ११९। ९-१०)
‘सुन्दर हरिभक्ति ही समस्त साधनोंका फल है। परंतु उसे संत-(की कृपा-) के बिना किसीने नहीं पाया। यों विचारकर जो भी संतोंका संग करता है, हे गरुड़जी! उसके लिये श्रीरामजीकी भक्ति सुलभ हो जाती है।’
फिर जिनको भगवान्ने संसारका कल्याण करनेके लिये ही संसारमें भेजा है, उन परम अधिकारी पुरुषोंकी तो बात ही क्या है! उनके तो दर्शन, भाषण, स्पर्श, चिन्तन और वार्तालापसे भी विशेष लाभ हो सकता है। जैसे किसी कामी पुरुषके अंदर कामिनीके दर्शन, भाषण, स्पर्श या चिन्तनसे कामकी जागृति हो जाती है, वैसे ही भगवत्प्रेमी पुरुषोंके दर्शन, भाषण, स्पर्श या चिन्तनसे भगवत्प्रेमकी जागृति अवश्य होनी चाहिये। प्रसिद्ध है कि पारसके संगसे लोहा सोना बन जाता है; किंतु महात्माके संगकी तो उससे भी बढ़कर महिमा बतलायी गयी है; किसी कविने कहा है—
पारस में अरु संत में, बहुत अंतरौ जान।
वह लोहा कंचन करै, वह करै आपु समान॥
‘पारसमें और संतमें बहुत अन्तर समझना चाहिये। पारस लोहेको सोना अवश्य बना देता है; किंतु संत तो अपने सम्पर्कमें आनेवालेको अपने समान ही बना लेते हैं।’
पारसके साथ सम्बन्ध होनेपर लोहा अवश्य ही सोना बन जाता है। यदि न बने तो यही समझना चाहिये कि या तो वह पारस पारस नहीं है या वह लोहा लोहा नहीं है। इसी प्रकार महापुरुषोंके संगसे साधक अवश्य ही महापुरुष बन जाता है। यदि नहीं बनता तो यही समझना चाहिये कि या तो वह महापुरुष महापुरुष नहीं है अथवा साधकमें श्रद्धा-विश्वास और प्रेमकी कमी है।
उन भगवद्भक्त अधिकारी पुरुषोंकी तो जहाँ भी दृष्टि पड़ती है, वे जिनका मनसे स्मरण कर लेते हैं या जिनका स्पर्श कर लेते हैं, उन व्यक्तियों और पदार्थोंमें भगवत्प्रेमके परमाणु प्रवेश कर जाते हैं। किसी जिज्ञासुके मरनेके पूर्व यदि वे वहाँ पहुँच जाते हैं तो कथा-कीर्तन सुनाकर उसका कल्याण कर देते हैं। श्रीनारदपुराणमें तो यहाँतक कहा गया है—
महापातकयुक्ता वा युक्ता वा चोपपातकै:।
परं पदं प्रयान्त्येव महद्भिरवलोकिता:॥
कलेवरं वा तद्भस्म तद्धूमं वापि सत्तम।
यदि पश्यति पुण्यात्मा स प्रयाति परां गतिम्॥
(ना०, पूर्व० ७। ७४-७५)
‘जो अधिकारी महापुरुषोंके द्वारा देख लिये जाते हैं, वे महापातक या उपपातकोंसे युक्त होनेपर भी अवश्य परम पदको प्राप्त हो जाते हैं। ऐसे पवित्रात्मा महापुरुष यदि किसीके मृत शरीरको, उसकी चिताके धूएँको अथवा उसके भस्मको भी देख लें तो वह मृतक पुरुष भी परम गतिको पा लेता है।’
इसीलिये महापुरुषोंके संगकी महिमा शास्त्रोंमें विशेषरूपसे वर्णित है। श्रीमद्भागवतमें कहा गया है—
तुलयाम लवेनापि न स्वर्गं नापुनर्भवम्।
भगवत्सङ्गिसङ्गस्य मर्त्यानां किमुताशिष:॥
(१। १८। १३)
‘भगवत्संगी (भगवत्प्रेमी) पुरुषोंके लव (क्षण) मात्रके भी संगके साथ हम स्वर्गकी तो क्या, मोक्षकी भी तुलना नहीं कर सकते; फिर संसारके तुच्छ भोगोंकी तो बात ही क्या है?’
श्रीरामचरितमानसमें भी लंकिनी राक्षसीका हनुमान्जीके प्रति इसी तरहका वचन मिलता है—
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥
(सुन्दर० ४)
‘हे तात! स्वर्ग और मोक्षके सुखोंको यदि तराजूके एक पलड़ेमें रखा जाय तो वे सब मिलकर भी (दूसरे पलड़ेपर रखे हुए) उस सुखके बराबर नहीं हो सकते, जो लवमात्रके सत्संगसे प्राप्त होता है।’
ऐसे महापुरुषोंकी कृपाको भक्तिकी प्राप्तिका प्रधान साधन बतलाते हुए श्रीनारदजी कहते हैं—
मुख्यतस्तु महत्कृपयैव भगवत्कृपालेशाद् वा।
(ना० भ० सू० ३८)
‘भगवान्की भक्ति मुख्यतया महापुरुषोंकी कृपासे ही अथवा भगवान्की कृपाके लेशमात्रसे प्राप्त होती है।’
नारदजी फिर कहते हैं—
महत्सङ्गस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च।
(ना० भ० सू० ३९)
‘उन महापुरुषोंका संग दुर्लभ एवं अगम्य होते हुए भी मिल जानेपर अमोघ होता है।’
लभ्यतेऽपि तत्कृपयैव।
(ना० भ० सू० ४०)
‘और वह भगवान्की कृपासे ही मिलता है।’
श्रीमद्भागवतमें भी कहा है—
दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभंगुर:।
तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठप्रियदर्शनम्॥
(११। २। २९)
‘प्राणियोंके लिये मनुष्य-शरीरका प्राप्त होना कठिन है। यदि यह प्राप्त हो भी गया, तो है यह क्षणभंगुर। और ऐसे अनिश्चित मनुष्य-जीवनमें भगवान्के प्रिय भक्तजनोंका दर्शन तो और भी दुर्लभ है।’
ऐसे महापुरुषोंका मिलन हो जाय तो हमलोगोंको चाहिये कि हम उनको साष्टांग नमस्कार करें, उनसे श्रद्धा-भक्तिपूर्वक प्रश्न करके भगवान्के तत्त्वको जानें, उनकी आज्ञाका पालन करें और उनकी सेवा करें। उनकी आज्ञाका पालन करना ही उनकी वास्तविक सेवा है तथा इससे भी बढ़कर है—उन महापुरुषोंके संकेत, सिद्धान्त और मनके अनुकूल चलना, अपने मन-इन्द्रियोंकी डोरको उनके हाथमें सौंप देना और उनके हाथकी कठपुतली बन जाना। इस प्रकारकी चेष्टा करनेवाले परम श्रद्धालु मनुष्यके अंदर उन सत्पुरुषोंके संगके प्रभावसे सद्गुण-सदाचारका प्रादुर्भाव तथा दुर्गुण-दुराचारका नाश ही नहीं, अपितु भगवान्की भक्ति, उनके तत्त्वका ज्ञान और भगवत्प्राप्ति आदि सहजमें ही हो जाते हैं।
शास्त्रोंमें सत्संगके प्रभावके अनेक उदाहरण मिलते हैं। हमलोगोंको उनपर ध्यान देना चाहिये। भगवान्के प्रेम और मिलनरूप सत्संगके श्रेष्ठ उदाहरण हैं—सुतीक्ष्ण और शबरी। इनकी कथा श्रीतुलसीकृत रामचरितमानसके अरण्यकाण्डमें देखनेको मिलती है तथा भगवत्प्राप्त भक्तोंके संगसे भगवान्के तत्त्वका ज्ञान और उनकी प्राप्ति होनेके तो बहुत उदाहरण हैं। श्रीनारदजीके संग और उपदेशसे ध्रुवको भगवान्के दर्शन हो गये और उनके अभीष्टकी भी सिद्धि हो गयी (श्रीमद्भागवत स्कन्ध ४, अध्याय ८-९)। श्रीकाकभुशुण्डिजीके सत्संगसे गरुड़जीका मोहनाश ही नहीं, उन्हें भगवान्का अनन्य प्रेम भी प्राप्त हो गया (श्रीरामचरितमानस, उत्तरकाण्ड) तथा श्रीगौरांग महाप्रभुके संग और उपदेशसे श्रीवास, रघुनाथ भट्ट और हरिदास आदिका उद्धार हो गया।
इसी प्रकार जीवन्मुक्त तत्त्वज्ञानी महात्मा पुरुषोंके संगसे भी परमात्माका ज्ञान और उनकी प्राप्ति होनेके बहुत उदाहरण मिलते हैं। महात्मा हारिद्रुमत गौतमकी आज्ञाका पालन करनेसे जबालापुत्र सत्यकामको तथा सत्यकामके संग और सेवासे उपकोसलको ब्रह्मका ज्ञान हो गया (छान्दोग्य-उप० अ० ४, खं० ४ से १७)। राजा अश्वपतिका संग करनेपर उनके उपदेशसे महात्मा उद्दालकको साथ लेकर उनके पास आये हुए प्राचीनशाल, सत्ययज्ञ, इन्द्रद्युम्न, जन और बुडिल नामक पाँच ऋषियोंको ज्ञान प्राप्त हो गया (छान्दोग्य-उप० अ० ५, खं० ११)। अरुणपुत्र उद्दालकके सत्संगसे श्वेतकेतुको ब्रह्मका ज्ञान हो गया (छान्दोग्य-उप० अ० ६, खं० ८ से १६)। श्रीसनत्कुमारजीके संग और उपदेशसे नारदजीका अज्ञानान्धकार दूर हो गया तथा उनको ज्ञानकी प्राप्ति हो गयी (छान्दोग्य-उप० अ० ७)। याज्ञवल्क्य मुनिके उपदेशसे मैत्रेयीको ब्रह्मज्ञानकी प्राप्ति हो गयी (बृहदारण्यक० अ० ४, ब्रा० ५)। श्रीधर्मराजके संग और उपदेशसे नचिकेता आत्मतत्त्वको जानकर ब्रह्मभावको प्राप्त हो गये (कठोपनिषद्, अ०१-२)। महात्मा जडभरतके संग और उपदेशसे राजा रहूगणको परमात्माका ज्ञान हो गया (भागवत स्कन्ध ५, अ० १० से १३)। इस प्रकार सत्संगसे भगवान्में प्रेम, उनके तत्त्वका ज्ञान और उनकी प्राप्ति होनेके उदाहरण श्रुतियों तथा इतिहास-पुराणोंमें भरे पड़े हैं। हमलोगोंको चाहिये कि शास्त्रोंका अनुशीलन करके सत्संगका प्रभाव समझें और संगके अनुसार सत्पुरुषोंके संगका लाभ उठायें; क्योंकि मनुष्य जैसा संग करता है, वैसा ही बन जाता है। लोकोक्ति प्रसिद्ध है—जैसा करै संग, वैसा चढ़ै रंग। और देखनेमें भी आता है कि मनुष्य योगीके संगसे योगी, भोगीके संगसे भोगी और रोगीके संगसे रोगी हो जाता है। इस बातको समझकर हमें संसारासक्त मनुष्योंका संग न करके महात्मा पुरुषोंका ही संग करना चाहिये; क्योंकि सत्पुरुषोंका संग मुक्तिदायक है और संसारासक्त मनुष्योंका संग बन्धनकारक है।
श्रीतुलसीदासजीने कहा है—
संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ।
कहहिं संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ३३)
‘संतका संग मोक्ष-(भव-बन्धनसे छूटने-)का और कामीका संग जन्म-मृत्युके बन्धनमें पड़नेका मार्ग है। संत, ज्ञानी और पण्डित तथा वेद-पुराण आदि सभी सद्ग्रन्थ ऐसी बात कहते हैं।’
किंतु यदि महात्मा पुरुषोंका संग प्राप्त न हो तो उनके अभावमें विरक्त दैवी-सम्पदायुक्त उच्च कोटिके साधकोंका संग करना चाहिये। श्रद्धा-भक्तिपूर्वक साधन करते हुए उनका संग करनेसे भी बहुत लाभ होता है; क्योंकि वीतराग पुरुषोंके स्मरणसे वैराग्यके भाव जाग्रत् होते हैं और मनकी एकाग्रता हो जाती है। श्रीपातंजलयोगदर्शनमें बतलाया गया है—
वीतरागविषयं वा चित्तम्।
(१। ३७)
‘जिन पुरुषोंकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गयी है, ऐसे विरक्त पुरुषोंको ध्येय बनाकर अभ्यास करनेवाला व्यक्ति स्थिरचित्त हो जाता है।’
जो उच्चकोटिके वीतराग साधु-महात्मा होते हैं, उनके लिये त्रिलोकीका ऐश्वर्य भी धूलके समान होता है। वे मान-बड़ाई-प्रतिष्ठाको कलंक समझते हैं। इसलिये वे न अपने पैर पुजवाते हैं, न अपने पैरोंकी धूल किसीको देेते हैं और न पैरोंका जल ही। न वे अपना फोटो पुजवाते हैं और न मान-पत्र ही लेते हैं। वे अपनी कीर्ति कभी नहीं चाहते, बल्कि जहाँ कीर्ति होती है, वहाँ ठहरते ही नहीं; फिर अपनी आरती उतरवाने और लोगोंको उच्छिष्ट खिलानेकी तो बात ही क्या है। यदि ऐसे विरक्त महापुरुषोंका संग न प्राप्त हो तो मनुष्यको चाहिये कि दुष्ट पुरुषोंका संग तो कभी न करे। दुष्ट पुरुषोंके लक्षणोंका वर्णन करते हुए श्रीतुलसीदासजीने लिखा है—
सुनहु असंतन्ह केर सुभाऊ।
भूलेहुँ संगति करिअ न काऊ॥
तिन्ह कर संग सदा दुखदाई।
जिमि कपिलहि घालइ हरहाई॥
खलन्ह हृदयँ अति ताप बिसेषी।
जरहिं सदा पर संपति देखी॥
जहँ कहुँ निंदा सुनहिं पराई।
हरषहिं मनहुँ परी निधि पाई॥
काम क्रोध मद लोभ परायन।
निर्दय कपटी कुटिल मलायन॥
बयरु अकारन सब काहू सों।
जो कर हित अनहित ताहू सों॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ३८। १—३)
पर द्रोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।
ते नर पाँवर पापमय देह धरें मनुजाद॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ३९)
मातु पिता गुर बिप्र न मानहिं।
आपु गए अरु घालहिं आनहिं॥
करहिं मोह बस द्रोह परावा।
संत संग हरि कथा न भावा॥
अवगुन सिंधु मंदमति कामी।
बेद बिदूषक परधन स्वामी॥
बिप्र द्रोह पर द्रोह बिसेषा।
दंभ कपट जियँ धरें सुबेषा॥
ऐसे अधम मनुज खल कृतजुग त्रेताँ नाहिं।
द्वापर कछुक बृंद बहु होइहहिं कलिजुग माहिं॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ३९। ३-४; ४०)
‘अब असंतों-(दुष्टों) का स्वभाव सुनो। कभी भूलकर भी उनकी संगति नहीं करनी चाहिये। उनका संग उसी प्रकार सदा दु:ख देनेवाला होता है, जैसे हरहाई (बुरे स्वभावकी) गाय कपिला (अच्छे स्वभाववाली सीधी और दुधार) गायको अपने संगसे नष्ट कर डालती है। दुष्टोंके हृदयमें बहुत अधिक संताप होता है। वे परायी सम्पत्ति (सुख) देखकर सदा जलते रहते हैं, वे जहाँ-कहीं दूसरेकी निन्दा सुन लेते हैं, वहाँ ऐसे हर्षित होते हैं, मानो रास्तेमें पड़ा खजाना उन्हें मिल गया हो। वे काम, क्रोध, मद और लोभके परायण तथा निर्दयी, कपटी, कुटिल और पापोंके घर होते हैं। वे बिना ही कारण सब किसीसे वैर किया करते हैं। जो उनके साथ भलाई करता है, उसका भी अपकार करते हैं। वे दूसरोंसे द्रोह करते हैं और परायी स्त्री, पराये धन तथा परायी निन्दामें आसक्त रहते हैं। वे पामर और पापमय मनुष्य नर-शरीर धारण किये हुए राक्षस ही हैं। वे माता, पिता, गुरु और ब्राह्मण—किसीको नहीं मानते। स्वयं तो नष्ट हुए ही रहते हैं, अपने संगसे दूसरोंको भी नष्ट करते हैं। वे मोहवश दूसरोंसे द्रोह करते हैं। उन्हें न संतोंका संग अच्छा लगता है, न भगवान्की कथा ही सुहाती है। वे अवगुणोंके समुद्र, मन्दबुद्धि, कामी तथा वेदोंके निन्दक होते हैं और बलपूर्वक पराये धनके स्वामी बन जाते हैं। वे ब्राह्मणोंसे तो द्रोह करते ही हैं, परमात्माके साथ भी विशेषरूपसे द्रोह करते हैं। उनके हृदयमें दम्भ और कपट भरा रहता है, परंतु वे ऊपरसे सुन्दर वेष धारण किये रहते हैं। ऐसे नीच और दुष्ट मनुष्य सत्ययुग और त्रेतामें नहीं होते, द्वापरमें थोड़े होते हैं; किंतु कलियुगमें तो इनके झुंड-के-झुंड होते हैं।’
आगे फिर कलियुगका वर्णन करते हुए पूज्यपाद गोस्वामीजी कहते हैं—
कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ९७ क)
मारग सोइ जा कहुँ जोइ भावा।
पंडित सोइ जो गाल बजावा॥
मिथ्यारंभ दंभ रत जोई।
ता कहुँ संत कहइ सब कोई॥
सोइ सयान जो परधन हारी।
जो कर दंभ सो बड़ आचारी॥
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निराचार जो श्रुति पथ त्यागी।
कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी॥
जाकें नख अरु जटा बिसाला।
सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला॥
असुभ बेष भूषन धरें भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ९७ ख। २—४; ९८क)
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना।
मेलि जनेऊ लेहिं कुदाना॥
गुर सिष बधिर अंध का लेखा।
एक न सुनइ एक नहिं देखा॥
हरइ सिष्य धन सोक न हरई।
सो गुर घोर नरक महुँ परई॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ९८। १, ३, ४)
जे बरनाधम तेलि कुम्हारा।
स्वपच किरात कोल कलवारा॥
नारि मुई गृह संपति नासी।
मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी॥
ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं।
उभय लोक निज हाथ नसावहिं॥
(रा० च० मा०, उत्तर० ९९। ५, ६, ७)
‘कलियुगके पापोंने सारे धर्मोंको ग्रस लिया, सद्ग्रन्थ लुप्त हो गये, दम्भियोंने अपनी बुद्धिसे कल्पना करके बहुत-से पंथ प्रकट कर दिये। कलियुगमें जिसको जो अच्छा लग जाय, वही मार्ग है। जो डींग मारता है, वही पण्डित है। जो मिथ्या आरम्भ करता (आडम्बर रचता) है और जो दम्भमें रत है, उसीको सब कोई संत कहते हैं। जो जिस किसी प्रकारसे दूसरेका धन हरण कर ले, वही बुद्धिमान् है। जो दम्भ करता है, वही बड़ा आचारी है, जो आचारहीन और वेदमार्गका त्यागी है, कलियुगमें वही ज्ञानी और वही वैराग्यवान् है। जिसके बड़े-बड़े नख और लम्बी-लम्बी जटाएँ हैं, वही कलियुगमें प्रसिद्ध तपस्वी है। जो अमंगल वेष और अमंगल भूषण धारण करते हैं और भक्ष्य-अभक्ष्य (खानेयोग्य और न खानेयोग्य)—सब कुछ खा लेते हैं, वे ही योगी हैं, वे ही सिद्ध हैं और वे ही मनुष्य कलियुगमें पूज्य हैं। शूद्र ब्राह्मणोंको ज्ञानोपदेश करते हैं और गलेमें जनेऊ डालकर कुत्सित दान लेते हैं। गुरु और शिष्य क्रमश: अंधे और बहरेके समान होते हैं—एक (शिष्य) गुरुके उपदेशको सुनता नहीं, दूसरा (गुरु) देखता नहीं (ज्ञानदृष्टिसे हीन है)। जो गुरु शिष्यका धन तो हर लेता है, पर शोक नहीं मिटा सकता, वह घोर नरकमें पड़ता है। तेली, कुम्हार, चाण्डाल, भील, कोल और कलवार आदि जो वर्णमें नीचे हैं, वे स्त्रीके मरनेपर अथवा घरकी सम्पत्ति नष्ट हो जानेपर सिर मुड़ाकर संन्यासी हो जाते हैं। वे अपनेको ब्राह्मणोंसे पुजवाते हैं, जिससे अपने ही हाथों इस लोक और परलोक—दोनोंको नष्ट करते हैं।’
सुना और देखा भी जाता है कि आजकल दम्भीलोग भक्त, साधु, ज्ञानी, योगी और महात्मा सजकर अपने नामका जप और अपने स्वरूपका ध्यान करवाते हैं तथा अपने पैरोंका जल पिलाकर एवं अपना जूठन खिलाकर अपना और लोगोंका धर्म भ्रष्ट करते हैं। ऐसे दम्भी मनुष्योंसे सब लोगोंको सदा सावधान रहना चाहिये; क्योंकि ऐसे पुरुषोंके संगसे मनुष्यमें दुर्गुण-दुराचारोंकी वृद्धि होती है और परिणामत: उसका पतन हो जाता है। इसके विपरीत जिस पुरुषके दर्शन, भाषण, वार्तालाप और संगसे हमारे अंदर गीताके १६ वें अध्यायके पहलेसे तीसरे श्लोकतक बतलाये हुए सद्गुण-सदाचाररूप दैवी-सम्पदाके लक्षण प्रकट हों और भगवान्की भक्तिका उदय हो, उसे दैवी-सम्पदायुक्त उच्चकोटिका साधक भगवद्भक्त समझना चाहिये। ऐसे साधक भक्तोंके लक्षण गीताके ९ वें अध्यायके १३ वें, १४ वें श्लोकोंमें इस प्रकार बतलाये गये हैं—
महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता:।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥
‘परंतु हे कुन्तीपुत्र! दैवी प्रकृतिके आश्रित महात्माजन तो मुझको सब भूतोंका सनातन कारण और नाशरहित—अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मनसे युक्त होकर निरन्तर भजते हैं। वे दृढ़निश्चयी भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणोंका कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यानमें युक्त होकर अनन्य प्रेमसे मेरी उपासना करते हैं।’
ऐसे पुरुषोंका श्रद्धा-भक्तिपूर्वक संग करनेसे दैवी-सम्पदाके लक्षणोंका और ईश्वर-भक्तिका प्रादुर्भाव अवश्य ही होना चाहिये। यदि नहीं होता तो समझना चाहिये कि या तो जिस साधक भक्तका हम संग कर रहे हैं, उसमें कोई कमी है अथवा हममें श्रद्धा-भक्तिकी कमी है।
किंतु यदि ऐसे उच्च कोटिके वीतराग साधकोंका भी संग न मिले तो सत्-शास्त्रोंका संग (अध्ययन) करना चाहिये; क्योंकि सत्-शास्त्रोंका संग भी सत्संग ही है। श्रुति-स्मृति, गीता, रामायण, भागवत आदि इतिहास-पुराण तथा इसी प्रकारके ज्ञान, वैराग्य और सदाचारसे युक्त अन्य सत्-शास्त्रोंका श्रद्धा-प्रेमपूर्वक अनुशीलन तथा उनमें कही हुई बातोंको हृदयमें धारण और पालन करनेसे भी मनुष्यका संसारसे वैराग्य और भगवान्से प्रेम होता है तथा आगे चलकर वह सच्चा भक्त बन जाता है एवं भगवान्को यथार्थरूपसे जानकर उनको प्राप्त हो जाता है।