निन्यानबेका चक्कर
एक सेठकी हवेली थी। बगलमें एक गरीबका छोटा-सा घर था। दोनों घरोंकी स्त्रियाँ जब आपसमें मिलती थीं, तब एक-दूसरेसे पूछती थीं कि आज तुमने क्या रसोई बनायी? सेठकी स्त्री कहती कि आज पापड़की सब्जी बनायी है अथवा दाल बनायी है। गरीब घरकी स्त्री कहती कि आज हमने हलवा-पूरी बनायी है अथवा खीर बनायी है! सेठकी स्त्रीने अपने पतिसे कहा कि हमलोग तो साधारण भोजन करते हैं, पर गरीब आदमी इतना माल खाते हैं! आखिर बात क्या है? सेठने कहा कि अभी वे निन्यानबेके चक्करमें नहीं पड़े हैं, इसीलिये माल खाते हैं। जब निन्यानबेका चक्कर लग जायगा, तब ऐसा माल नहीं खायेंगे। स्त्रीने पूछा कि यह निन्यानबेका चक्कर क्या होता है? सेठने कहा कि मैं बताऊँगा, देखती जाओ!
दूसरे दिन सेठने अपनी स्त्रीसे कहा कि तुम निन्यानबे रुपये लाओ। वह निन्यानबे रुपये लेकर आयी। सेठने उन रुपयोंको एक कपड़ेकी पोटलीमें बाँध दिया और अपनी स्त्रीसे कहा कि रातमें मौका देखकर यह पोटली उस गरीबके घर फेंक देना। रात होनेपर स्त्रीने वैसा ही कर दिया। सुबह होनेपर गरीब आदमीको आँगनमें एक पोटली पड़ी हुई दीखी। उसने भीतर ले जाकर पोटलीको खोला तो उसमें रुपये मिले। उसने बीस-बीस रुपये पाँच जगह रखे तो देखा कि पाँच बीसीमें एक रुपया कम है! पति-पत्नी दोनोंने विचार किया कि दो-तीन दिन घरका खर्चा कम करके एक रुपया बचा लें तो पाँच बीसी (सौ रुपये) पूरी हो जायगी। ऐसा विचार करके उन्होंने पैसे बचाने शुरू किये तो दो-तीन दिनमें एक रुपया बचा लिया। पाँच बीसी पूरी हो गयी! अब उन्होंने सोचा कि हमने दो-तीन दिनमें एक रुपया पैदा कर लिया, यदि पहलेसे इस तरफ ध्यान देते तो आजतक कितने रुपये जमा हो जाते! इतने दिन व्यर्थ ही गँवाये! अब आगेसे ध्यान रखेंगे।
कुछ दिन बीतनेपर सेठने अपनी स्त्रीसे कहा कि आज तुम उस गरीबकी स्त्रीसे पूछना कि क्या बनाया है? जब गरीब घरकी स्त्री मिली तो सेठानीने पूछ लिया कि आज क्या बनाया है? उसने कहा—‘चटनी पीस ली है, उसके साथ रोटी खा लेंगे।’ सेठानीको निन्यानबेका चक्कर समझमें आ गया!
ग्यान बढ़ै गुनवान की संगति,
ध्यान बढ़ै तपसी सँग कीन्हे।
मोह बढ़ै परिवार की संगति,
लोभ बढ़ै धनमें चित दीन्हे॥
क्रोध बढ़ै नर मूढ़ की संगति,
काम बढ़ै तिय को सँग कीन्हे।
बुद्धि बिबेक बिचार बढ़ै,
‘कबि दीन’ सुसज्जन संगति कीन्हे॥