विलक्षण अतिथि-सत्कार
विष्णुकांचीमें दामोदर नामक एक गरीब ब्राह्मण रहते थे। जब उनका विवाह हुआ, तब उन्होंने अपनी स्त्रीसे कह दिया कि देखो, अब मैं गृहस्थ बन गया हूँ। गृहस्थका खास काम है—अतिथि-सत्कार करना। मैं घरमें होऊँ या न होऊँ, कोई अतिथि आये तो भूखा मत जाने देना। ब्रह्मचारीका गुरु-आज्ञाका पालन करना, गृहस्थका अतिथि-सत्कार करना, वानप्रस्थका तप करना और संन्यासीका भगवच्चिन्तन-भजन करना खास धर्म है। उनकी स्त्रीने कहा कि अच्छी बात है। वे ब्राह्मण कांची नगरीमें फिरते और भिक्षामें जो कुछ मिल जाता, लाकर स्त्रीको दे देते। घरकी स्थिति बहुत साधारण थी। खानेके लिये अन्न भी नहीं था।
भगवान् बड़े लीला पुरुषोत्तम हैं। उनकी लीला बड़ी विचित्र है। एक दिन भगवान् बूढ़े संन्यासी बनकर आये और बाहर चबूतरेपर बैठकर बोले कि घरमें कोई दामोदर है? ब्राह्मणने सुना तो बाहर आकर प्रणाम किया। संन्यासी बोले कि आज मनमें आ गयी कि तुम्हारे यहाँ भोजन करूँ। ब्राह्मण बोला कि बड़ी अच्छी बात है, आनन्दकी बात है! वह बूढ़े संन्यासीको भीतर ले गया और उनको बैठाया। दैवयोगसे उस दिन ब्राह्मणको गाँवसे भिक्षा मिली ही नहीं थी! उसने सोचा कि अब क्या करें? खुद तो भूखे भी रह जायँ, पर महाराजको भूखा कैसे रखें? घरमें कोई सम्पत्ति थी नहीं। केवल फटे-पुराने कपड़े और बर्तन, गोपीचन्दन, टूटी हुई चटाई—यह घरकी सामग्री थी! ब्राह्मणने अपनी स्त्रीसे कहा कि आज तो बड़ा गजब हो जायगा, अतिथि भूखा रह जायगा! स्त्री बोली कि आप घबराते क्यों हो, मैं बैठी हूँ न! ब्राह्मण बोला कि क्या तेरे पास कोई गहना है? वह बोली—‘गहना कहाँ है? कपड़े भी फटे-पुराने हैं!’ ब्राह्मण बोला—‘तो फिर अतिथि-सत्कार कैसे करेंगे?’ स्त्री बोली—‘आप नाईके घरसे कतरनी (कैंची) ले आओ।’ ब्राह्मण कतरनी ले आया। स्त्रीने अपने सिरके केश भीतर-भीतरसे कतर लिये और बाहरके केश बाँध लिये। कटे हुए केशोंकी रस्सी बनायी और ब्राह्मणको देकर बोली कि इसको बेच आओ। ब्राह्मण उसको लेकर बाजार गया और बेचनेपर जो थोड़े-से पैसे मिले, उनसे थोड़े चावल और दाल ले आया। स्त्रीने दाल-चावल बना दिये। संन्यासीको कहा कि महाराज! रसोई तैयार है, भोजन करो। महाराज बैठ गये। ब्राह्मण केलेका पत्ता ले आया और उसपर भोजन परोस दिया। महाराज पाने लग गये। उन्होंने पत्तलमें एक दाना भी नहीं छोड़ा। ब्राह्मणने कहा—महाराज, और लो। वे बोले—‘हाँ, और ले आ।’ ब्राह्मणने बचा हुआ सारा भोजन परोस दिया। महाराजने सब पा लिया और बोले कि बस, अब तृप्ति हो गयी। फिर बोले कि भाई, बूढ़ा शरीर है, कहाँ जायँगे? अभी तो हम यहाँ ही रहेंगे। ब्राह्मणने कहा कि हाँ महाराज, आप यहीं विराजें। महाराज दिनभर वहीं रहे। सायं हुई तो बोले कि बस, दाल-चावल बना लेना, ज्यादा वस्तुकी जरूरत नहीं। ब्राह्मण बोला कि ठीक है महाराज! ब्राह्मणकी स्त्रीने सिरके बाकी केश भी काट दिये और उनको बेचकर महाराजके लिये दाल-चावल बना दिये। महाराजने पूरे दाल-चावल खा लिये, उसमेंसे कुछ भी नहीं छोड़ा। फिर महाराज बोले कि रातको हम कहाँ जायँगे? हमारा कोई मकान तो है नहीं। बूढ़ा शरीर है। आज हम यहाँ ही रहेंगे। ब्राह्मण बोला कि हाँ महाराज! आप यहीं विराजें।
चटाईका एक टुकड़ा था, उसको ब्राह्मणने नीचे बिछा दिया। महाराज उसपर लेट गये। ब्राह्मण उनके चरण दबाने लगा। थोड़ी देरमें महाराजको नींद आ गयी। उनके चरणोंके एक तरफ ब्राह्मण सो गया और एक तरफ उसकी स्त्री सो गयी। जब वे दोनों सो गये, तब बाबाजी जाग बैठे! उन्होंने आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे केश ठीक हो जायँ, बढ़िया कपड़े हो जायँ, गहने हो जायँ, धन-धान्यसे भण्डार भर जाय, आदि-आदि। फिर वे अन्तर्धान हो गये। स्त्रीकी नींद खुली तो देखा कि हाथोंमें गहने हैं, सुन्दर वस्त्र हैं और सिरपर केश भी हैं! उसको बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह क्या कौतुक है! उसने पतिको जगाया। ब्राह्मणने उठकर देखा कि बाबाजी नहीं हैं तो बाहर भागा कि बाबाजी कहाँ गये? बूढ़ा शरीर है, कैसे गये होंगे! स्त्रीने कहा कि आप देखो तो सही! अपनी तरफ देखो, घरकी तरफ देखो! ब्राह्मणने देखा तो अब वे लगे रोने कि महाराज! हमने आपको पहचाना नहीं! हमारेसे आपकी सेवामें कितनी त्रुटि हो गयी! हम अनजान थे महाराज! हमें क्षमा करो! भगवान् प्रकट हो गये और दोनोंसे बोले कि तुम्हारे भोजनसे मैं बहुत तृप्त हुआ! अब तुम खूब अतिथि-सत्कार करो, फिर अन्तमें तुम दोनों मेरे धाममें आ जाओगे।