कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्
जो मोहरहित होता है, वही बालकका भला कर सकता है। मोहवाला भला नहीं कर सकता। वैद्य और डॉक्टर दुनियाका इलाज करते हैं, पर अपनी स्त्री या बालक बीमार हो जाय तो दूसरे वैद्यको बुलाते हैं। आप विचार करें कि ऐसा क्यों होता है? खुद अच्छे डॉक्टर होनेपर भी मोह होनेके कारण अपनी स्त्री या बालकका इलाज नहीं कर सकते। उनका इलाज वही कर सकेगा, जिसमें मोह नहीं है। अत: मोहरहित, पक्षपातरहित, संतोंके द्वारा जितनी अच्छी शिक्षा मिलती है, उतनी औरोंके द्वारा नहीं मिलती। परंतु बड़े दु:खकी बात है कि आजकलके गुरु कहते हैं कि तुम मेरे चेले बन जाओ तो तुमको बढ़िया बात बतायेंगे! चेला बननेपर मोह हो जायगा, ममता हो जायगी। मोह होनेसे दोनोंका पतन होगा—
गुरु लोभी शिष्य लालची, दोनों खेले दाँव।
दोनों डूबा ‘परसराम’, बैठ पथरकी नाँव॥
चेला सोचता है कि गुरुजीको एक रुपया भेंट कर देंगे तो हमारा पुण्य हो जायगा, बाबाजी हमारे सब पाप ले लेंगे। उधर बाबाजी सोचते हैं कि एक रुपया मुफ्तमें मिलता है, चेलेको एक कण्ठी दे दो। एक रुपयामें पाँच-सात कण्ठी आती है, अपना तो फायदा ही है। अब वह कण्ठी बाँध लेनेसे क्या कल्याण हो जायगा? लोग कहते हैं कि गुरु बनानेसे कल्याण होता है। गुरु नहीं है तो गुरु बना लो, भाई नहीं है तो धर्मभाई बना लो, बहन नहीं है तो धर्मबहन बना लो। किसी तरह पतन हो जाय—यह उद्योग हो रहा है। गुरु बनानेसे क्या होता है? वे कहते हैं कि हमारे गुरुजी बड़े हैं और वे कहते हैं कि हमारे गुरुजी बड़े हैं, अब गोधा (साँड़) लड़ाओ। बीकानेरमें अपने-अपने मोहल्लेमें एक गोधा तैयार करते हैं, फिर दोनोंको लड़ाते हैं और तमाशा देखते हैं कि दोनोंमें तेज कौन है? अब कल्याण कैसे हो जायगा? विचार ही नहीं करते। कहते हैं कि गुरुके बिना कल्याण नहीं होता, तो जिन्होंने गुरु बना लिया, उनका कल्याण हो गया क्या? वे निहाल हो गये क्या? उनका नहीं हुआ तो हमारा कैसे हो जायगा? कुछ तो अक्ल होनी चाहिये, कुछ तो विचार करना चाहिये। यह नहीं सोचते कि जो गुरु बने हुए हैं, उनकी दुर्दशा क्या है! गुरु बनानेके एजेंट होते हैं। वे दूसरोंको कहते हैं कि तुम हमारे गुरुजीको अपना गुरु बनाओ। कैसी उलटी रीति है। क्या पतिव्रता स्त्री दूसरी स्त्रियोंसे कहती है कि ‘मैं पतिको ईश्वर मानती हूँ, तुम भी मेरे पतिको ईश्वर मानो, उनकी सेवा करो?’ तुम भी मेरे गुरुजीके चेले बन जाओ, हमारी टोलीमें आ जाओ, तो क्या दूसरोंके कल्याणका ठेका ले रखा है?
एक कहानी याद आ गयी। एक संत थे, वे भिक्षाके लिये गये तो उन्होंने देखा कि एक जगह कई वेश्याएँ इकट्ठी हो रही हैं। बाबाजीने पूछा कि क्या बात है? तो बताया कि एक वेश्याने सभी वेश्याओंको भोज दिया है। हलवा, चना, चावल—ये चीजें बनायी हैं। जो चावल बनाये थे, उसका माँड़ एक जगहसे बह रहा था। बाबाजी उससे हाथ धोने लगे। वेश्या ऊपर बैठी थी। उसने देखा तो बोली कि ‘बाबाजी! यह क्या कर रहे हो? बाबाजी बोले कि ‘करना क्या है, हाथ धोता हूँ।’ वेश्या बोली—‘महाराज! अन्नके पानीसे हाथ धोओगे तो हाथ चिपकेंगे, पानीसे हाथ धोओ।’ बाबाजी बोले—‘यह पानी नहीं है तो क्या है, बता? तेरेको दीखता नहीं है?’ वेश्याने कहा कि ‘बाबाजी! यह पानी शुद्ध नहीं है। शुद्ध पानीसे हाथ धुलते हैं।’ वेश्या पासमें आ गयी थी। बाबाजी बोले—‘तो फिर तू वेश्याओंको भोजन करा रही है, वे क्या ज्यादा शुद्ध हैं? क्या वेश्या-भोज करनेसे कल्याण हो जायगा?’ वेश्या बोली—‘महाराज! मैंने सुना कि दान-पुण्य करनेसे, भोजन करानेसे बड़ा पुण्य होता है, तो मैं साधुओंके पास गयी और उनसे पूछा कि महाराज! कल्याण कैसे होगा?’ तो उन्होंने कहा कि ‘साधु-संतोंकी सेवा करो, तब कल्याण होगा।’ फिर मैं ब्राह्मणोंके पास गयी और उनसे पूछा कि ‘कल्याण कैसे होगा?’ तो उन्होंने कहा कि ‘जो जन्मसे ब्राह्मण हैं, उनकी सेवा करो, तब कल्याण होगा।’ अब मैं वैष्णवोंके पास गयी तो उन्होंने कहा कि ‘वैष्णवोंकी सेवा करो।’ शैवोंके पास गयी तो वे बोले कि ‘शैवोंकी सेवा करो।’ इस प्रकार जहाँ-जहाँ गयी, वहाँ-वहाँ सबने अपनी ही महिमा गायी, तो यह देखकर हमें युक्ति मिल गयी, विद्या मिल गयी कि हम वेश्याओंको ही भोजन करायें तो इसीसे कल्याण हो जायगा। ऐसे ही बतानेवाले और ऐसे ही शिक्षा लेनेवाले। हल्ला मचा दिया कि गुरु बनाओ, तब कल्याण होगा। विचार करो कि जिन्होंने गुरु बनाया, उनमें क्या फर्क पड़ा? जैसे पहले थे, वैसे अब भी हैं। बनावटी गुरुसे काम नहीं चलेगा। आप गुरु बनायेंगे तो बनाया हुआ गुरु क्या कल्याण करेगा?
वास्तवमें गुरु बनाया नहीं जाता। गुरु तो हो जाता है। जिससे हमें किसी विषयका ज्ञान हुआ तो उस विषयमें वह हमारा गुरु हो गया, चाहे हम उसे गुरु मानें या न मानें, जानें या न जानें। एक संतसे किसीने पूछा कि ‘आपका गुरु कौन है?’ तो उन्होंने कहा कि ‘जो मेरेसे ज्यादा जानता है’ और ‘चेला कौन है?’ ‘जो मेरेसे कम जानता है।’ कितनी बढ़िया बात बतायी। जो मेरेसे ज्यादा जानता है, वह मेरा गुरु है, चाहे मैं मानूँ या न मानूँ। जो मेरेसे कम जानता है, वह मेरा चेला है, चाहे वह चेला बने या न बने। मैं आपसे एक प्रश्न करता हूँ—पहले बेटा पैदा होता है कि बाप?
श्रोता—बाप!
स्वामीजी—नहीं, पहले बेटा पैदा होता है, पीछे बाप पैदा होता है। बेटा पैदा हुए बिना उसका ‘बाप’ नाम होता ही नहीं। जिससे बेटा पैदा हो जाय, वह बाप हो गया और जिससे आपको ज्ञान हो जाय, वह गुरु हो गया, भले ही आप उसको गुरु मत बनाओ। जिससे आपको गुर मिल गया, सिद्धान्त मिल गया और जिसकी शिक्षासे आपकी उन्नति हो गयी, वह आपका गुरु हो गया, चाहे उसको पता हो या न हो। वह बनावटी गुरु नहीं है, असली गुरु है। बनावटी गुरुसे कभी कल्याण नहीं होता। कालनेमिने हनुमान्जीसे कहा कि ‘मैं गुरु हूँ, स्नान करके आओ, मैं तुम्हें दीक्षा दूँगा।’ हनुमान्जी स्नान करनेके लिये गये। वहाँ मकरीने कहा कि ‘महाराज! इसको सन्त मत मानना, यह तो राक्षस है।’ हनुमान्जीने आकर कहा कि ‘पहले गुरु-दक्षिणा (भेंट) ले लो, पीछे मेरेको मन्त्र देना’ और उसको पूँछमें लपेटकर ऐसा पछाड़ा कि वह प्राणमुक्त हो गया! कपटी, बनावटी गुरुकी ऐसी पूजा होती है। जैसा देव, वैसी पूजा।
थोड़ा विचार करें, जिसके मनमें चेला बनानेकी इच्छा है, वह गुरु कैसे हुआ! वह तो चेलादास है। जिसको चेलेकी गरज है, वह चेलेका गुलाम हुआ। जिसको रुपयोंकी गरज है, वह रुपयोंका गुलाम हुआ। अगर रुपये देनेसे कोई गुरु बनता है, तो वह हुआ रुपयोंका दास और वे रुपये हमारे पास हैं, तो हम हुए उसके दादागुरु! अब वह हमारा कल्याण कैसे करेगा? परंतु लोग सोचते ही नहीं और कह देते हैं कि अरे! रुपये इनके भेंट कर दो और इनके चेले बन जाओ, ये हमारा कल्याण कर देंगे। माताओंसे कहते हैं कि ‘तुम ऐसे-ऐसे कर दो, नहीं तो चिड़िया बनाकर उड़ा देंगे तुम्हारेको!’ जय महाराज! चिड़िया बनाकर उड़ा दोगे, तभी हम आपको मानेंगे, नहीं तो आपको कुछ न देंगे। हमारा तो फायदा ही है, चलना-फिरना नहीं पड़ेगा, उड़कर चले जायँगे! वे आशीर्वाद देते हैं—‘तेरे दूध-पूतकी खैर—तेरा दूध (जाति) भी ठीक रहे, तेरा पूत भी जीता रहे, तो महाराज! आशीर्वाद आप अपने पास ही रखो। वे कहते हैं कि इतनी भेंट लाओ, इतना रुपया लाओ तो तुम्हारा कल्याण कर देंगे, ऐसी विद्या बता देंगे, जिससे लोहेका सोना बन जाय। बाबाजी! ऐसी विद्या यदि तुम्हारे पास है तो हमारेसे रुपया क्यों माँगते हो? रुपयेकी चाहना क्यों रखते हो? वे कहते हैं कि हमारे पास रुपये कम हैं, इसलिये माँगते हैं। महाराज! अगर हमारे पास रुपये ज्यादा हैं तो हम तुम्हारेसे बड़े हुए, फिर तुम्हारे गुलाम हम क्यों बनेंगे? जो रुपयोंसे खरीदे जायँ, वे गुरु नहीं होते।
वास्तवमें गुरुको चेलेकी गरज नहीं होती, चेलेको ही गुरुकी गरज होती है। भाइयोंको वहम पड़ा हुआ है कि गुरु बनानेसे कल्याण हो जायगा। बनावटी गुरु कल्याण नहीं करता। मेरेसे कोई पूछता है तो मैं कहता हूँ कि भगवान् श्रीकृष्णको गुरु मान लो—‘कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्।’ भगवान् जगत्के गुरु हैं और जगत् में आप हो ही। उनका मन्त्र है—‘भगवद्गीता।’ भगवद्गीताका मनन करो, कल्याण हो जायगा। संदेह हो तो करके देख लो कि कल्याण होता है या नहीं होता। भगवान्के रहते हुए आप गुरुके लिये क्यों भटकते हो?
माताएँ डरती हैं कि हम किन-किनका उपदेश मानें! हम हनुमान्जीकी पूजा करें तो कृष्ण नाराज हो जायँगे, कृष्णकी पूजा करें तो रामजी नाराज हो जायँगे, रामजी आदिको मानें तो देवी नाराज हो जायँगी, देवीकी पूजा करें तो हनुमान्जी नाराज हो जायँगे! अब हम क्या करें? ऐसे प्रश्न मेरे पास आते हैं। कितनी भोली-भाली, सीधी-सादी माताएँ हैं! कोई ठग मिल जाय तो इन बेचारियोंको डुबा दे! मैंने कहा कि तुम यह डर बिलकुल निकाल दो। अब पतिव्रता कहे कि मैं पतिकी सेवा करूँगी तो दूसरे पुरुष नाराज हो जायँगे, तो बड़ी मुश्किल हो जायगी। सबकी सेवा कहाँतक होगी! तुम किसी एकके भक्त बन जाओ तो सब राजी हो जायँगे। तुम कृष्ण-भगवान्के भक्त बन जाओ तो देवी, सूर्य, गणेश, शिव आदि सब राजी हो जायँगे। पतिव्रतासे कौन नाराज होता है? तुम पतिकी सेवा करती हो, हमारी सेवा तो करती ही नहीं, हम नाराज हो जायँगे—ऐसा होता है क्या? पतिव्रतासे कोई नाराज नहीं होता। अगर नाराज हो भी जाय तो हमारी तरफसे भले ही सब नाराज हो जायँ! एक बार मेरेको एक भाईने कहा कि महाराज! आप मेरेसे नाराज हो गये क्या? मैंने कहा कि अगर नाराज होनेसे भगवान् मिल जायँ, तो तेरेसे नाराज हो जायँ! भगवान् तो मिलते नहीं नाराज होनेसे, तो फिर हम नाराज क्यों होंगे! नाराज होनेसे मेरेको क्या लाभ होगा? बेचारे भाई डर जाते हैं कि एक देवताकी पूजा करनेसे दूसरे देवता नाराज हो जायँगे। बिलकुल नाराज नहीं होंगे। आप अनन्यभावसे किसी एक देवताकी उपासनामें तत्परतासे लग जाओ तो दूसरे सब देवता राजी हो जायँगे।
श्रोता—आजकल दुनियामें ढूँढ़नेपर भी गुरु नहीं मिलता। मिलता है तो ठग मिलता है। हम गुरु ढूँढ़नेके लिये कई तीर्थोंमें गये, पर कोई मिला ही नहीं। आप कहते हैं कि जगद्गुरु कृष्णको अपना गुरु मान लो। अगर आप यह घोषणा कर दें कि भाई! आपलोग कृष्णको ही गुरु मानो तो यह वहम ही मिट जाय......!
स्वामीजी—वास्तवमें गुरुको ढूँढ़ना नहीं पड़ता। फल पककर तैयार होता है तो तोता खुद उसको ढूँढ़ लेता है। ऐसे ही अच्छे गुरु खुद चेलेको ढूँढ़ते हैं, चेलेको ढूँढ़ना नहीं पड़ता। जैसे ही आप कल्याणके लिये तैयार हुए, गुरु फट आ टपकेगा! फल पककर तैयार होता है तो तोता अपने-आप उसके पास आता है, फल तोतेको नहीं बुलाता। ऐसे ही आप तैयार हो जाओ कि अब मुझे अपना कल्याण करना है तो गुरु अपने-आप आयेगा। बालकका पालन माँ ही कर सकती है, पर माँको बालककी ज्यादा गरज होती है, बालकको माँकी गरज नहीं होती। इतनी देर हो गयी, बालकने दूध नहीं पिया, क्या बात है?—यह चिन्ता माँको रहती है। ऐसे ही जब मनुष्य असली शिष्य बन जाता है, उसमें अपने उद्धारकी लालसा लग जाती है, तब गुरु अपने-आप उसे ढूँढ़ लेता है।
जो असली गुरु होते हैं, वे दूसरेको चेला नहीं बनाते, प्रत्युत गुरु ही बनाते हैं।*
* पारसमें अरु संतमें बहुत अंतरौ जान।
वह लोहा कंचन करै वह करै आपु समान॥
जिसको वे चेला बनाते हैं, वह दुनियाका गुरु हो जाता है। वहाँ ऐसी टकसाल है, जहाँसे गुरु-ही-गुरु निकलते हैं। दूसरेको अपना चेला बनाना तो पशुका काम है। कुत्ता दूसरे कुत्तेको काटता है और जब वह कुत्ता नीचे गिर जाता है तो यह ऊपर हो जाता है और राजी हो जाता है। दूसरेको चेला बनाकर, अपना मातहत बनाकर राजी होना क्या गुरुका लक्षण है? भगवान्के दरबारमें अंधेर नहीं है। अगर आप तैयार हो जाओ तो अच्छे-अच्छे गुरु आपकी गरज करेंगे। बच्चेके बिना माँ वर्षोंतक रह सकती है और रहती आयी है, पर बच्चा माँके बिना नहीं रह सकता। फिर भी बच्चेमें माँकी जितनी गरज होती है, उससे ज्यादा माँमें बच्चेकी गरज होती है। परंतु बच्चा माँके हृदयको समझ ही नहीं सकता। ऐसे ही गुरु चेलेके बिना रह सकता है, पर चेला गुरुके बिना नहीं रह सकता। चेलेके भीतर अपने उद्धारकी जितनी लगन होती है, उससे ज्यादा गुरुमें चेलेके उद्धारकी लगन होती है। परंतु चेला गुरुके हृदयको समझ ही नहीं सकता।
बछड़ेको देखकर गायका हृदय उमड़ता है। बछड़ेका तो एक मुँह होता है, पर गायका दूध चार थनोंसे टपकता है। ऐसे ही आपमें अपना कल्याण करनेकी लगन लगेगी तो गुरुका हृदय उमड़ पड़ेगा। संत-महात्माओंके मनमें जीवका उद्धार करनेकी जितनी लगन होती है, उतनी खुद जीवमें अपना उद्धार करनेकी नहीं होती।
आपको गुरुको ढूँढ़नेकी क्या जरूरत है? आप असली चेला बन जाओ, आपके भीतर अपने उद्धारकी लालसा लग जाय, तो गुरु खोजते हुए आ जायँगे आपके पासमें। कभी-कभी स्वप्नमें भी गुरु मिल जाते हैं और मन्त्र दे देते हैं। चरणदासजी महाराजको शुकदेवजीने स्वप्नमें आकर दीक्षा दी। शुकदेवजी महाराज हजारों वर्ष पहले हुए और चरणदासजी महाराज अभी हुए, पर शुकदेवजी महाराज गुरु हो गये और चरणदासजी महाराज चेला हो गये। गुरुजनोंके हृदयमें तो मात्र दुनियाके उद्धारकी लालसा होती है। अत: आपको उन्हें ढूँढ़नेकी जरूरत नहीं है।
भाई कहते हैं कि तुम घोषणा कर दो, सबको कह दो, तो माताओ! भाइयो! आप सभीसे मेरा कहना है कि अगर गुरु बनाना हो तो कृष्णको गुरु मान लो। वे सम्पूर्ण जगत्के गुरु हैं—‘कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्।’ आप जगत्से बाहर नहीं हो। गुरुजीका मन्त्र है—‘गीता’। गीताजीका पाठ करो, मनन करो। गीताजीको याद करो। उसके अनुसार अपना जीवन बनाओ। उद्धार हो जायगा! जितनी अधिक लगन होगी, उतनी जल्दी उद्धार होगा। जितनी ढिलाई होगी, उतनी देरी लगेगी। उद्धार होगा ही। लाभ ही होगा, नुकसान नहीं होगा। अगर किसी ‘ऐरे गैरे नत्थू खैरे’ को गुरु बनाओगे तो वह क्या निहाल करेगा! इसलिये आप नि:संकोच होकर भगवान्के चरणोंके आश्रित हो जाओ। डरो मत, निधड़क रहो। जो बनावटी गुरु होते हैं, उनके एजेंट ही कहा करते हैं कि ‘तुम इनके चेले बन जाओ।’ रावण भिक्षा लेने गया तो उसने सीताजीसे कहा कि जो कार (लकीर) है, उसके भीतर हम नहीं आते—‘नहीं आते कारके भीतर, निराकार जपते हरिहर हर।’ हम निराकारको जपते हैं, आकारके भीतर नहीं आते, लकीरसे बाहर आकर भिक्षा दो। सीताजी बाहर आयीं तो उनको उठाकर चल दिया! ये हैं गुरुजी महाराज! इनसे सावधान रहना। आजसे ही याद कर लो कि ‘कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्!’