॥ ॐ श्रीपरमात्मने नम:॥
सच्चा गुरु कौन?
ग्रन्थस्य कृष्णस्य कृपा सतां च
सर्वत्र सर्वेषु च विद्यमाना।
यावन्न ताञ्छ्रद्दधते मनुष्य-
स्तावन्न साक्षात्कुरुते स्वबोधम्॥
अर्जुन हरदम भगवान्के साथ ही रहते थे; भगवान्के साथ ही खाते-पीते, उठते-बैठते, सोते-जागते थे; परंतु भगवान्ने उनको गीताका उपदेश तभी दिया, जब उनके भीतर अपने श्रेयकी, कल्याणकी, उद्धारकी इच्छा जाग्रत् हो गयी—‘यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे’ (२।७)। ऐसी इच्छा जाग्रत् होनेके बाद वे अपनेको भगवान्का शिष्य मानते हैं और भगवान्के शरण होकर शिक्षा देनेके लिये प्रार्थना करते हैं—‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’ (२।७)। इस प्रकार कल्याणकी इच्छा जाग्रत् होनेके बाद अर्जुनने अपनेको भगवान्का शिष्य मानकर शिक्षा देनेके लिये भगवान्से प्रार्थना की है, न कि गुरु-शिष्य-परम्पराकी रीतिसे भगवान्को गुरु माना है। भगवान्ने भी शास्त्रपद्धतिके अनुसार अर्जुनको शिष्य बनानेके बाद, गुरु-मन्त्र देनेके बाद, सिरपर हाथ रखनेके बाद उपदेश दिया हो—ऐसी बात नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि पारमार्थिक उन्नतिमें गुरु-शिष्यका सम्बन्ध जोड़ना आवश्यक नहीं है, प्रत्युत अपनी तीव्र जिज्ञासा, अपने कल्याणकी तीव्र लालसाका होना ही अत्यन्त आवश्यक है। अपने उद्धारकी जोरदार लगन होनेसे साधकको भगवत्कृपासे, संत-महात्माओंके वचनोंसे, शास्त्रोंसे, ग्रन्थोंसे, किसी घटना-परिस्थितिसे, किसी वायुमण्डलसे अपने-आप पारमार्थिक उन्नतिकी बातें, साधन-सामग्री मिल जाती है और वह उसे ग्रहण कर लेता है।
गीता बाह्य विधियोंको, बाह्य परिवर्तनको उतना आदर नहीं देती, जितना आदर भीतरके भावोंको, विवेकको, बोधको, जिज्ञासाको, त्यागको देती है। यदि गीता बाह्य विधियोंको, परिवर्तनको, गुरु-शिष्यके सम्बन्धको ही आदर देती तो वह सब सम्प्रदायोंके लिये उपयोगी तथा आदरणीय नहीं होती अर्थात् गीता जिस सम्प्रदायकी विधियोंका वर्णन करती, वह उसी सम्प्रदायकी मानी जाती। फिर गीता प्रत्येक सम्प्रदायके लिये उपयोगी नहीं होती और उसके पठन-पाठन, मनन-चिन्तन आदिमें सब सम्प्रदायवालोंकी रुचि भी नहीं होती। परंतु गीताका उपदेश सार्वभौम है। वह किसी विशेष सम्प्रदाय या व्यक्तिके लिये नहीं है, प्रत्युत मानवमात्रके लिये है।
गीताने ज्ञानके प्रकरणमें ‘प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया’ (४।३४) और ‘आचार्योपासनम्’ (१३।७) पदोंसे आचार्यकी सेवा, उपासनाकी बात कही है। उसका तात्पर्य यही है कि ज्ञानमार्गी साधकमें ‘मैं ब्रह्म हूँ’ ऐसा अभिमान रहनेकी ज्यादा सम्भावना रहती है। अत: साधकको चेतानेके लिये तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त आचार्य या गुरुकी अधिक आवश्यकता रहती है। परंतु वह आवश्यकता भी तभी रहती है, जब साधकमें तीव्र जिज्ञासाकी कमी हो अथवा उसकी ऐसी भावना हो कि गुरुजी उपदेश देंगे, तभी ज्ञान होगा। तीव्र जिज्ञासा होनेपर साधक तत्त्वका अनुभव किये बिना किसी भी अवस्थामें संतोष नहीं कर सकता, किसी भी सम्प्रदायमें अटक नहीं सकता और किसी भी विशेषताको लेकर अपनेमें अभिमान नहीं ला सकता। ऐसे साधककी जिज्ञासा-पूर्ति भगवत्कृपासे हो जाती है।
गुरु-शिष्यके सम्बन्धसे ही ज्ञान होता है—ऐसी बात देखनेमें नहीं आती। कारण कि जिन लोगोंने गुरु बना लिया है, गुरु-शिष्यका सम्बन्ध स्वीकार कर लिया है; उन सबको ज्ञान हो गया हो—ऐसा देखनेमें नहीं आता। परंतु तीव्र जिज्ञासा होनेपर ज्ञान हो जाता है—ऐसा देखनेमें, सुननेमें आता है। तीव्र जिज्ञासुके लिये गुरु-शिष्यका सम्बन्ध स्वीकार करना आवश्यक नहीं है। तात्पर्य है कि जबतक स्वयंकी तीव्र जिज्ञासा नहीं होती, तबतक गुरु-शिष्यका सम्बन्ध स्वीकार करनेपर भी ज्ञान नहीं होता और तीव्र जिज्ञासा होनेपर साधक गुरु-शिष्यके सम्बन्धके बिना ही किसीसे भी ज्ञान ले लेता है। तीव्र जिज्ञासावाले साधकको भगवान् स्वप्नमें भी शुकदेव आदि (जो पहले हो गये हैं) सन्तोंसे मन्त्र दिला देते हैं।
शिष्य बननेपर गुरुके उपदेशसे ज्ञान हो ही जायगा—यह नियम नहीं है। कारण कि उपदेश मिलनेपर भी अगर स्वयंकी जिज्ञासा, लगन नहीं होगी तो शिष्य उस उपदेशको धारण नहीं कर सकेगा। परंतु तीव्र जिज्ञासा, श्रद्धा-विश्वास होनेपर मनुष्य बिना किसी सम्बन्धके ही उपदेशको धारण कर लेता है—‘श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम्’ (४। ३९)। तात्पर्य है कि ज्ञान स्वयंकी जिज्ञासा, लगनसे ही होता है, गुरु बनानेमात्रसे नहीं।
अगर किसीको असली गुरु मिल भी जाय, तो भी वह स्वयं उनको गुरु, महात्मा मानेगा, स्वयं उनपर श्रद्धा-विश्वास करेगा, तभी उससे लाभ होगा। अगर वह स्वयं श्रद्धा-विश्वास न करे तो साक्षात् भगवान्के मिलनेपर भी उसका कल्याण नहीं होगा। दुर्योधनको भगवान्ने उपदेश दिया और पाण्डवोंसे संधि करनेके लिये बहुत समझाया, फिर भी उसपर कोई असर नहीं पड़ा। उसके माने बिना भगवान् भी कुछ नहीं कर सके। तात्पर्य है कि खुदके मानने, स्वीकार करनेसे ही कल्याण होता है। अत: गीता अपने-आपसे ही अपने-आपका उद्धार करनेकी प्रेरणा करती है—‘उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानम्’ (६। ५)।
ज्ञानमार्गमें तो गीताने आचार्य आदिकी उपासना बतायी है, पर कर्मयोग और भक्तिमार्गमें गुरु आदिकी आवश्यकता नहीं बतायी। कारण कि जब किसी घटना, परिस्थिति आदिसे ऐसी भावना जाग्रत् हो जाती है कि ‘स्वार्थभावसे कर्म करनेपर अभावकी पूर्ति नहीं होती; स्वार्थभाव रखना पशुता है, मानवता नहीं है’, तब मनुष्य स्वार्थभावका, कामनाका त्याग करके सेवा-परायण हो जाता है। सेवा-परायण होनेसे उस कर्मयोगीको अपने-आप तत्त्वज्ञान हो जाता है—‘तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति’ (४।३८)।
कोई एक विलक्षण शक्ति है, जिससे सम्पूर्ण संसारका संचालन हो रहा है। उस शक्तिपर जब मनुष्यका विश्वास हो जाता है, तब वह भगवान्की तरफ चल पड़ता है। भगवान्में लगे हुए ऐसे भक्तके अज्ञान-अन्धकारका नाश भगवान् स्वयं कर देते हैं (१०।११); और भगवान् स्वयं उसका मृत्यु-संसार-सागरसे उद्धार करनेवाले बन जाते हैं (१२।७)।
भगवान्की यह एक विलक्षण उदारता, दयालुता है कि जो उनको नहीं मानता, उनका खण्डन करता है अर्थात् नास्तिक है, उसके भीतर भी यदि तत्त्वको, अपने स्वरूपको जाननेकी तीव्र जिज्ञासा हो जाय तो उसको भी भगवत्कृपासे ज्ञान मिल जाता है।
जिससे प्रकाश मिले, ज्ञान मिले, सही मार्ग दीख जाय, अपना कर्तव्य दीख जाय, अपना ध्येय दीख जाय, वह गुरु-तत्त्व है। वह गुरु-तत्त्व सबके भीतर विराजमान है। वह गुरु-तत्त्व जिस व्यक्ति, शास्त्र आदिसे प्रकट हो जाय, उसीको अपना गुरु मानना चाहिये।
वास्तवमें भगवान् ही सबके गुरु हैं; क्योंकि संसारमें जिस-किसीको ज्ञान, प्रकाश मिलता है, वह भगवान्से ही मिलता है। वह ज्ञान जहाँ-जहाँसे, जिस-जिससे प्रकट होता है अर्थात् जिस व्यक्ति, शास्त्र आदिसे प्रकट होता है, वह गुरु कहलाता है; परन्तु मूलमें भगवान् ही सबके गुरु हैं। भगवान्ने गीतामें कहा है कि ‘मैं ही सब प्रकारसे देवताओं और महर्षियोंका आदि अर्थात् उनका उत्पादक, संरक्षक, शिक्षक हूँ’—‘अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वश:’ (१०। २)। अर्जुनने भी विराट्रूप भगवान्की स्तुति करते हुए कहा है कि ‘भगवन्! आप ही सबके गुरु हैं’—‘गरीयसे’ (११।३७); ‘गुरुर्गरीयान्’ (११।४३)। अत: साधकको गुरुकी खोज करनेकी आवश्यकता नहीं है। उसे तो ‘कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्’ के अनुसार भगवान् श्रीकृष्णको ही गुरु और उनकी वाणी गीताको उनका मन्त्र, उपदेश मानकर उनके आज्ञानुसार साधनमें लग जाना चाहिये। यदि साधकको लौकिक दृष्टिसे गुरुकी आवश्यकता पड़ेगी तो वे जगद्गुरु अपने-आप गुरुसे मिला देंगे; क्योंकि वे भक्तोंका योगक्षेम वहन करनेवाले हैं—‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ (९।२२)।