॥श्रीहरि:॥
जीवनका परम ध्येय
हरिरेव परं ब्रह्म हरिरेव परा गति:।
हरिरेव परा मुक्तिर्हरिर्गेय: सनातन:॥
—भगवान् व्यास
विविध विघ्न-बाधासंकुल इस जगत् में जो मनुष्य भगवत्प्राप्तिके लिये साधन करता है, वह वास्तवमें बड़ा ही भाग्यशाली है। संसारमें अधिकांश लोग तो यथार्थत: ईश्वरके अस्तित्वको ही नहीं मानते। जो मानते हैं उनमें अधिकांशकी बुद्धि तमोगुणके अन्धकारमय आवरणसे आच्छादित रहनेके कारण वे भगवत्प्राप्तिकी शुभेच्छा नहीं करते। जो सौभाग्यवश श्रवणादिके प्रभावसे भगवत्प्राप्तिके महत्त्वका कुछ ज्ञान रखते हैं, उनकी विक्षिप्त बुद्धि भी प्राय: विविध कामनाओंसे हरण की हुई रहनेके कारण वे भगवान् का कुछ भजन-स्मरण करके भी उसके बदलेमें तुच्छ भोगोंकी ही इच्छा करते हैं। इनसे आगे बढ़े हुए कुछ लोग बुद्धिकी सात्त्विक वृत्तियोंके अनुसार साधनका आरम्भ तो करते हैं; परंतु अध्यवसाय और उत्साहकी न्यूनता, लक्ष्यकी अस्थिरता और विघ्नोंकी पहचानके अभाव तथा विघ्ननाशके उपाय न जाननेके कारण चरम लक्ष्यतक पहुँचनेके पहले ही साधन छोड़कर पथभ्रष्ट हो जाते हैं। इसीसे भगवान् ने कहा है—
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:॥
(गीता ७।३)
‘हजारों मनुष्योंमें कोई बिरला ही मेरे लिये (भगवत्प्राप्तिके लिये) यत्न करता है और उन प्रयत्न करनेवालोंमें भी कोई बिरला भगवत्-परायण पुरुष ही मुझे तत्त्वसे जान सकता है।’
इतना होनेपर भी जीव स्वभावत: चाहता है परमात्माको ही; क्योंकि सुखकी चाह सबको है और सभी पूर्ण, दु:खरहित तथा नित्य सुख चाहते हैं। कोई भी ऐसे सुखका अभिलाषी नहीं है, जो अल्प, दु:खमिश्रित और नाश होनेवाला हो। इसमें कोई संदेह नहीं कि बहुत बार मनुष्य किसी अल्प सुख-विशेषको ही पूर्ण सुख मानकर कुछ समयके लिये उसमें तृप्त होना चाहता है, पर कुछ ही कालके बाद उसको जब उस सुखमें किसी अभावकी प्रतीति होती है तब वह उसमें संतुष्ट न रहकर अभावकी पूर्तिके लिये आगे बढ़ता है। इससे यह सिद्ध होता है कि उसे अभावमय सुख सदाके लिये संतुष्ट नहीं कर सकता। वह पूर्ण सुख चाहता है। पूर्ण, नित्य अभावरहित सुख उस सत् त्रिकालव्यापी और त्रिकालातीत परमात्माका स्वरूप है। इस न्यायसे विविध जीव-नदियोंका प्रवाह भिन्न-भिन्न पथोंसे अनेकमुखी होकर उस एक ही नित्य सुख-सागर परमात्माकी ओर सतत बह रहा है। जीवकी यह अनादिकालीन सुखस्पृहा—उसकी परमात्म-मिलनाकांक्षाको प्रकट करती है, जहाँतक उसे अपने चरम लक्ष्यकी प्राप्ति नहीं हो जायगी, वहाँतक इस प्रवाहकी गतिका कभी विराम नहीं होगा।
परंतु अज्ञान-तिमिराच्छन्न होनेके कारण सुखके यथार्थ स्वरूपको जीव पहचान नहीं सकता। इसीसे उसके मार्गमें अनेक प्रकारके विघ्न उपस्थित होते हैं। वह कभी मार्ग भूल जाता है, कभी रुक जाता है, कभी उलटे चलनेकी चेष्टा करता है, कभी हताश होकर बैठ जाता है और कभी किसी पान्थशालाको ही घर मानकर, अल्प सुखको ही परमसुख समझकर उसीमें रम जाता है। इसीलिये ऐसे जीव पामर या विषयी कहलाते हैं। इसके विपरीत जो अपने ध्येयको समझकर उसीकी प्राप्तिके लिये बड़ी तत्परताके साथ यथाशक्ति नित्य-निरन्तर प्रयत्न करते हैं, वे (मुमुक्षु) साधक कहलाते हैं। इस प्रकार साधन-पथारूढ़ होनेके लिये सबसे पहले ध्येय निश्चित करने, लक्ष्य ठीक करनेकी आवश्यकता है।
परम ध्येय क्या है?
मनुष्यको सबसे पहले इस बातका निश्चय करना चाहिये कि मेरे जीवनका परम ध्येय क्या है? किस लक्ष्यकी ओर जीवनको ले चलना है। जबतक यह स्थिर नहीं कर लिया जाता कि मुझे कहाँ जाना है, तबतक मार्ग या मार्गव्ययकी चर्चा करना जैसे निरर्थक है, वैसे ही जबतक मनुष्य अपने जीवनका ध्येय निश्चित नहीं कर लेता कि मुझे इस जीवनमें क्या लाभ करना है, तबतक कौन-से योगके द्वारा क्या साधन करना चाहिये, यह जाननेकी चेष्टा करना भी व्यर्थ है। इस समय जगत् में अधिक लोग प्राय: निरुद्देश्य ही भटक रहे हैं—प्रकृतिके प्रवाहमें अन्धे हुए बह रहे हैं। उन्हें यह पता नहीं कि हम कौन हैं? जगत् में मानवदेह धारण करके क्यों आये हैं और हमें क्या करना है? किसी भी प्रकारसे धनोपार्जन कर कुटुम्बका भरण-पोषण करना और उसीके लिये जीवन बिता देना साधारणत: यही अधिकांश लोगोंकी जीवनचर्या है।
ऊपर कहा जा चुका है और यह प्रत्येक मनुष्यका अनुभव भी है कि हम सुख चाहते हैं। अब विचार यह करना है कि हम जिन वस्तुओंके संग्रह और संरक्षणमें अपना जीवन बिता रहे हैं, वे क्या वास्तवमें सुखरूप हैं? यह तो सभी जानते हैं कि संसारकी प्रत्येक वस्तु क्षणभंगुर और विनाशशील है। जो विनाशी है वह अनित्य है और जो अनित्य है उसका एक दिन वियोग अवश्यम्भावी है। जिस वस्तुकी प्राप्ति और भोगके समय सुख होता है उसके वियोगमें दु:ख अवश्य होगा। अत: संसारकी प्रत्येक वस्तु वियोगशील होनेके कारण दु:खप्रद है। पुत्रके जन्मके समय बधाइयाँ बाँटी जाती हैं, बड़ा आनन्द होता है, बच्चेको घरमें खेलता देख-देखकर चित्त-कुसुमकी कलियाँ खिल जाती हैं, परंतु एक दिन ऐसा अवश्य आता है, जिस दिन या तो वह हमें छोड़कर चल बसता है या उसे छोड़कर हमें परवश परलोक सिधारना पड़ता है। अपनी मानी हुई प्रिय वस्तु जब छूटती है तब जो दु:ख होता है उसका अनुभव प्राय: हम सभीको है। इसलिये इस पुत्रवियोगमें हमें उतना ही, प्रत्युत उससे भी अधिक दु:ख होता है, जितना सुख उसके जन्म होनेके समय और पीछे उसे आँगनमें खेलते देखकर हुआ था। यही न्याय स्त्री-स्वामी, माता-पिता, गुरु-शिष्य, मान-कीर्ति और शरीर-स्वर्ग आदि सभीमें लागू होता है। सारांश यह कि अनित्य वस्तुमें केवल और पूर्ण सुख कदापि नहीं होता। उसका अन्त तो दु:खमय होता ही है। विचार करनेपर अनित्य वस्तुका सुख भोगकालमें भी दु:खसे सना हुआ ही प्रतीत होता है।
इस लोक और परलोकके सभी भोग-पदार्थ अनित्य हैं। परंतु इस अनित्यके पीछे अधिष्ठानरूपसे जो एक सत्य छिपा हुआ है, जो सदा एक रस और अव्यय है, वही नित्य वस्तु है। उसीके सम्बन्धमें गीता कहती है—
न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
(२।२०)
‘जो किसी कालमें न जन्मता है, न मरता है, न होकर फिर होनेवाला है, वह तो अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है। शरीरके नाशसे उसका नाश नहीं होता।’ ऐसा वह परम पदार्थ केवल परमात्मा है। उस परमात्माके एकत्वमें अपनी कल्पित भिन्न सत्ताको सर्वथा विलीन कर देना—केवल उस एक परमात्माका ही शेष रह जाना भगवत्प्राप्ति है और यही हमारे जीवनका परम ध्येय है। उपर्युक्त नित्यानित्य वस्तु-विचारसे ही यह ध्येय निश्चित किया जाता है। इस ध्येयकी ओर सदा लगे रहनेके लिये सर्वप्रथम साधन है वैराग्य।