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साधनके विघ्न

वास्तविक शुभेच्छा उत्पन्न होनेके बाद तो प्राय: वह कभी मन्द नहीं पड़ती, परंतु आरम्भमें साधकके मार्गमें अनेक विघ्न आया करते हैं। अत: उन विघ्नोंसे बचनेके लिये निरन्तर सचेष्ट रहना चाहिये। कुछ प्रधान विघ्न ये हैं—

स्वास्थ्यका अभाव

सबसे पहला विघ्न है स्वास्थ्यका बिगड़ जाना। अतएव साधकको स्वास्थ्यरक्षाके लिये संयम और नियमित खान-पान करना चाहिये। स्वास्थ्य जबतक ठीक रहता है तभीतक मनुष्य साधन कर सकता है। रोगपीड़ित शरीरसे साधन बनना प्राय: असम्भव है। अवश्य ही स्वास्थ्य बनाये रखनेका लक्ष्य भोगविलास नहीं, ईश्वर-प्राप्ति ही होना चाहिये। परंतु यह भी याद रखना चाहिये कि ईश्वर-प्राप्ति साधन बिना नहीं हो सकती और साधन करनेके लिये स्वस्थ शरीरकी आवश्यकता है। इसलिये सोने, काम करने, खाने-पीने आदिके ऐसे नियम रखने चाहिये जिनसे शरीर स्वस्थ रहना सम्भव हो। प्रकृति-सेवन, नियमित व्यायाम और आसनोंसे स्वास्थ्यको बड़ा लाभ पहुँचता है।

खान-पानमें असंयम

दूसरा विघ्न आहारकी अशुद्धि और असंयम है। बहुधा खान-पानके असंयमसे ही स्वास्थ्य बिगड़ता है। इतना ही नहीं, इससे मानसिक रोग भी उत्पन्न हो जाते हैं। इसीलिये हमारे शास्त्रकारोंने आहार-शुद्धिपर बड़ा जोर दिया है। अन्नके अनुसार ही मन बनता है। मनुष्य जिस प्रकारका भोजन करता है उसके भाव, विचार, बुद्धि और स्फुरणाएँ प्राय: वैसी ही होती हैं, जो लोग मांस, मद्य आदि तामसिक पदार्थोंका सेवन करते हैं, उनमें निष्ठुरता, क्रूरता और निर्दयता अधिक देखनेमें आती है। प्राणियोंकी अकारण हिंसामें भी सच्चे हृदयसे उनको दु:ख नहीं होता। तामसी-राजसी आहारसे काम, क्रोध, लोभ, मोह, अभिमान, मत्सर आदि दोष उत्पन्न होकर साधकके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्यको बिगाड़ देते हैं, जिससे वह साधन-पथसे गिर जाता है। अधिक मिर्चवाला, अधिक नमकीन, अधिक खट्टा, अधिक तीखा, अधिक कड़वा, गरमागरम, अत्यन्त रूखा आहार राजसी तथा बासी, सड़ा हुआ, जूठा, अपवित्र, दुर्गन्धयुक्त आदि आहार तामसी माना गया है। बन पड़े जहाँतक साधकको मसालोंका व्यवहार छोड़ देना चाहिये। अधिक घी और मीठेकी भी आवश्यकता नहीं है। दही नहीं खाना चाहिये। मादक द्रव्योंका सेवन बिलकुल नहीं करना चाहिये। जिस आहारमें बहुत अधिक खर्च पड़ता हो, वह आहार भी साधकके लिये उपयुक्त नहीं है, चाहे वह धनी हो या गरीब। धनी यदि आहारमें बहुत ज्यादा खर्च करता है तो उसके लिये तो वह प्रमाद है ही, परन्तु गरीबोंपर भी उसका बुरा प्रभाव पड़ता है। देखा-देखी उनका भी मन ललचाता है। उनके पास पैसे होते नहीं, इन्द्रियाँ जोर देती हैं, अतएव उन्हें बहुमूल्य आहारके लिये अन्यायसे चोरी आदि करके धन कमानेमें प्रवृत्त होना पड़ता है। जो धन अन्यायसे कमाया हुआ है, उस धनके अन्नका मनपर बहुत बुरा असर पड़ता है, इसीलिये आहारशुद्धिमें जातिकी अपेक्षा न्याय और धर्मसे उपार्जित अन्नका महत्त्व अधिक है। चोर, मांसभोजी, दूसरोंकी गाँठ काटनेवाले, छली-कपटी, घूसखोर, व्यभिचारी और अन्यायी ऊँची जातिवाले पुरुषकी अपेक्षा सत्यपरायण, सत् कमाई करनेवाले, इन्द्रियजयी, न्यायी, सरल शूद्रका अन्न शुद्ध और पवित्र है; क्योंकि उससे बुद्धिकी वृत्तियाँ नहीं बिगड़तीं। यथासम्भव आहार अल्प करना अच्छा है।

संदेह

तीसरा विघ्न है साधनमें संदेह। मनुष्य एक बार किसीके कहनेसे साधनमें लगता है, पर साधन आरम्भ करते ही उसे सिद्धि नहीं मिल जाती, इससे वह अपने साधनमें संदेह करने लगता है। यह संदेह बहुत अच्छे श्रद्धालु पुरुषोंको भी प्राय: हो जाया करता है। उसकी बुद्धिमें समय-समयपर यह भावना होती है कि ‘न मालूम ईश्वर हैं या नहीं, हैं तो मुझे मिलेंगे या नहीं, मैं जो साधन करता हूँ सो ठीक है या नहीं। ठीक होता तो अबतक मुझे लाभ अवश्य होता, हो-न-हो साधनमें कोई गड़बड़ है।’ इस तरहके विचारोंसे उसका साधन शिथिल पड़ जाता है। साधनकी शिथिलतासे लाभ और भी कम होता है, जिससे उसका संदेह भी और बढ़ने लगता है। यों होते-होते अन्तमें वह साधनसे च्युत हो जाता है। साधकको सबसे पहले तो भगवान् के अस्तित्वमें दृढ़ विश्वास करना होगा, फिर अपने साधनपर श्रद्धा और विश्वास रखकर उसे करते ही रहना पड़ेगा। जैसे कई तरहकी बीमारियोंमें फँसे हुए मनुष्यको औषधसेवनसे किसी एक बीमारीके नष्ट हो जानेपर भी लाभ नहीं मालूम होता, इसी प्रकार मलसे पूर्ण अन्त:करणमें तनिक-से मलका नष्ट होना दीखता नहीं; परंतु यह निश्चय रखना चाहिये कि सच्चे साधनसे कोई लाभ अवश्य होता है, साधनमें मनुष्य जितना आगे बढ़ेगा, उतना ही उसे लाभ अधिक प्रतीत होगा। फिर उसे इस बातका पता लग जायगा कि भगवत्-सम्बन्धी बातें केवल कल्पना नहीं, परन्तु ध्रुव सत्य हैं।

सद्गुरुका अभाव

ऐसे यथार्थ साधनमें प्रवृत्त होने और रहनेके लिये सद्गुरुकी आवश्यकता है। सद्गुरुका अभाव ही सच्चे साधनसे साधकको अपरिचित रखता है और इसीसे वह श्रद्धारहित होकर साधन छोड़ देता है। यह विषय बहुत ही विचारणीय है, क्योंकि वर्तमान कालमें सच्चे त्यागी, अनुभवी सद्गुरुओंकी बहुत कमी हो गयी है। यों तो आजकल गुरुओंकी संख्या बहुत बढ़ गयी है, जिधर देखिये, उधर ही गुरु और उपदेशकोंकी भरमार है। परन्तु इन गुरुओंके समुदायमें अधिकांश दम्भी, दुराचारी, परधन और परस्त्री-कामी, नाम चाहनेवाले, पूजा करानेवाले, बिना ही साधनके अपनेको अनन्य भक्त, परम ज्ञानी—यहाँतक कि ईश्वरतक बतलानेवाले कपटी पाये जाते हैं। इसीसे सच्चे उपदेशकोंका भी आज कोई मूल्य नहीं रहा। ऐसी स्थितिमें सद्गुरुका चुनाव करना बड़ा कठिन है। तथापि मामूली कसौटी यही समझनी चाहिये कि जो पुरुष किसी भी हेतुसे धन नहीं चाहता और किसी भी कारणसे स्त्री या स्त्री-संगियोंका संग करना नहीं चाहता, जिसका व्यवहार सरल और सीधा है और जिसके उपदेशोंके अनुसार कार्य करनेसे वास्तविक लाभ होता नजर आता है, ऐसे नि:स्वार्थी पुरुषके बतलाये हुए मार्गसे चलनेमें कोई बाधा नहीं है। धन-स्त्री, मन्त्र-यन्त्र, भूत-प्रेत और चमत्कार आदिकी बातें करने, चाहने, समझाने और प्रचार करनेवाले पुरुषोंसे दूर रहना अच्छा है। परन्तु किसी अच्छे पुरुषको पाकर उसके बतलाये हुए साधनको छोड़ना भी नहीं चाहिये। जहाँतक उसमें कोई भारी दोष न दीखे, वहाँतक उसपर संदेह न करके साधनमें लगे रहना चाहिये। नित नये गुरु बदलनेसे साधनमें बड़ी गड़बड़ी मच जाती है। क्योंकि अच्छे पुरुष भी भिन्न-भिन्न मार्गोंसे साधन करनेवाले हैं, लक्ष्य एक होनेपर भी मार्ग अनेक होते हैं। आज एकके कहनेसे प्राणायाम शुरू किया, कल दूसरेकी बात सुनकर हठयोग साधने लगे, परसों तीसरेके उपदेशसे नाम-जप आरम्भ किया और चौथे दिन चौथेके व्याख्यानके प्रभावसे वेदान्तका विचार करने लगे। इस तरह जगह-जगह भटकने और बात-बातमें साधन बदलते रहनेसे कोई-सा साधन भी सिद्ध नहीं होता। इसीलिये साधनमें सद्गुरुके आज्ञानुसार एक निष्ठा और नियमानुवर्तिताकी बड़ी आवश्यकता है।

नियमानुवर्तिताका अभाव

नियत समयपर सोना, उठना, भोजन करना मनके एकाग्र होनेमें बड़े सहायक होते हैं। नियमानुवर्तिताका अभाव साधनमें एक भारी विघ्न है। कोई नियम न रहनेसे दिनचर्यामें बड़ी गड़बड़ी रहती है। जीवन भी इसी तरह गड़बड़ीमें बीतता है। दिन-रातके चौबीस घंटोंमें कम-से-कम तीन घंटेका नियत समय ईश्वर-चिन्तन और ध्यानके लिये अलग रखना चाहिये। किसी अड़चनवश एक साथ लगातार इतना समय न मिलता हो तो प्रात:काल और सायंकाल दोनों समय मिलाकर समय निकालना चाहिये, परंतु यह स्मरण रखना चाहिये कि समय, स्थान, आसन और प्रणालीमें बार-बार परिवर्तन न किया जाय।

प्रसिद्धि

साधनमें एक बड़ा भारी विघ्न ‘साधककी प्रसिद्धि’ है। जब लोग जान जाते हैं कि अमुक मनुष्य साधन करता है, तब उसके प्रति स्वाभाविक ही कुछ लोगोंकी श्रद्धा हो जाती है। जिनकी श्रद्धा होती है, वे समय-समयपर मन, वाणी, शरीरसे उसका आदर करने लगते हैं। जिन्हें आदर, मान आदि प्रिय नहीं होते, ऐसे मनुष्य संसारमें सदासे ही बहुत थोड़े हैं। साधक भी मनुष्य है, उसे भी आदर, मान, प्रतिष्ठा आदि प्रिय प्रतीत होते हैं। अतएव ज्यों-ज्यों उसे इनकी प्राप्ति होती है, त्यों-ही-त्यों उसकी लालसा अधिक लोगोंसे अधिक-से-अधिक सम्मान प्राप्त करनेकी होने लगती है। इससे परिणाममें उसका ईश्वर-सम्बन्धी साधन सम्मान-प्रतिष्ठा आदि प्राप्त करनेके साधनरूपमें बदल जाता है। जिस कार्य, जैसी बोलचाल, जैसे आचरण और जिस तरहकी कार्यवाहियोंसे सम्मान मिलता हो; बस, उन्हींको करना उसके जीवनका लक्ष्य बन जाता है। इससे ज्यों-ज्यों उसका परमार्थ-साधन घटता और छूटता है, त्यों-ही-त्यों उसका तेज, नि:स्पृहता, उदासीन-भाव, उसकी सरलता, ईश्वरीय श्रद्धा और परमार्थ-साधना नष्ट होती जाती है। उसके हृदयमें लोगोंको रिझाकर उन्हें प्रसन्न करनेके उद्देश्यसे चापलूसी, कामना, पक्षपात, कपट, अश्रद्धा और परमार्थविमुख कार्योंमें प्रवृत्ति आदि गिरानेवाले भावसमूह उत्पन्न हो जाते हैं, जिनसे वह और भी हतप्रभ होकर अपने प्रशंसकोंसे दब जाता है, वे प्रशंसक भी फिर पहले-जैसे सच्चे सरल श्रद्धालु नहीं रहते, उनके आदर-मान देनेमें भी कपट भर जाता है। शेषमें दोनों ही परमार्थसे सर्वथा गिरकर पाप-पंकमें फँस जाते हैं। शुभ कर्म और सदाचरण करनेवालोंके विरोधी तामसी प्रकृतिके मनुष्य भी संसारमें सदासे रहते ही हैं। उनका द्वेष तो पहलेसे रहता ही है, ऐसे समयमें साधक और उसकी मण्डलीको सब प्रकार हीन पुरुषार्थ देखकर उन्हें विशेष मौका मिल जाता है। वे उन्हें छल-बल-कौशलसे और भी गिरानेकी चेष्टा करते हैं, जिससे परस्पर वैर ठन जाता है। दोनों ओरकी शक्तियाँ एक-दूसरेके छिद्रान्वेषण और उनपर मिथ्या दोषारोपण कर उन्हें नीचा दिखाने और गिरानेमें ही खर्च होने लगती हैं, जिससे जीवन कष्ट और अशान्तिमय बन जाता है। साधकका सत्त्वमुखी हृदय इस समय तमसाच्छादित होकर क्रोध, मोह और दम्भसे भर जाता है। इन सब दोषोंपर विचारकर जहाँतक बने साधक प्रसिद्ध होनेकी चेष्टा कदापि न करे। अपने साधनको यथासम्भव खूब छिपावे, उपदेशक या आचार्यका पद कभी भूलकर भी ग्रहण न करे, जगत् के लोग उसमें अपनेसे कोई विशेषता न समझें, इसीमें उसका भला है। मतलब यह कि भजन-साधनको यथासम्भव साधक न तो प्रकट करे, न दिखावे ही। वह लोगोंसे अपनेको श्रेष्ठ भी न समझे; क्योंकि इससे भी अपनेमें अभिमान और दूसरोंके प्रति घृणा उत्पन्न होनेको स्थान रहता है। जो साधक अपने साधनकी स्थितिसे अपनेको ऊँचा समझता या लोगोंमें प्रकट करता है, वह तो गिरता ही है; परंतु वह जितना है, उतना भी प्रकट करनेमें उपर्युक्त प्रकारसे गिरनेका ही भय रहता है। साधककी भलाई इसीमें है कि वह जितना है, दुनिया उसको सदा उससे कम ही जाने। बाहरसे नीचे रहकर अन्दरसे ऊँचा उठते जाना ही साधकके लिये कल्याणप्रद है।

कुतर्क

साधनमें एक विघ्न है तर्कबुद्धिका विशेष बढ़ जाना। जहाँ बात-बातमें तर्क होता है, वहाँ साधनमें श्रद्धा स्थिर नहीं रहती। श्रद्धाका अभाव स्वाभाविक ही साधनको शिथिल कर देता है। यद्यपि इस दम्भ, कपट-पाखण्ड और बाहरी चमक-दमकके युगमें भण्ड, नररूपधारी व्याघ्र-गुरुओं, भक्तों और साधु कहलानेवालोंके झुंडोंसे बचनेके लिये तर्कबुद्धिकी बड़ी आवश्यकता है; परंतु जब तर्क बढ़कर मनुष्यके हृदयको अत्यन्त संदेहशील बना देता है, तब उसके लिये किसी भी साधनमें मन लगाकर प्रवृत्त रहना अत्यन्त कठिन हो जाता है। इसीलिये भगवान् ने कहा है—‘संशयात्मा विनश्यति’ सत्यकी खोजके लिये तर्क करना उचित है; पर हठ और अभिमानसे कुतर्कका आश्रय लेना सर्वथा अनुचित है। जो साधक शास्त्र और सद्गुरुके वचनोंमें विश्वास नहीं करता, वह सत्यका अन्वेषण कर उसकी प्राप्ति कभी नहीं कर सकता। इसलिये कुतर्कसे सदा बचना चाहिये।

स्त्यान

साधनमें एक विघ्न है स्त्यान यानी चेष्टा छोड़ देना। कुछ दिन साधन करनेपर मनकी ऐसी दशा हुआ करती है। साधारणत: साधक अनेक प्रकारकी असाधारण आशाओंको लेकर साधनमें लगता है, उसकी वे आशाएँ जब थोड़े-से साधनसे पूरी नहीं होतीं, तब वह साधनसे उदासीन होकर चेष्टारहित बन जाता है, मन निकम्मा रहता नहीं। जब वह सत् -चेष्टासे हट जाता है, तब कुचेष्टा करने लगता है। परिणाममें उसका पतन हो जाता है, इससे कभी उत्साहहीन होकर चेष्टा नहीं छोड़नी चाहिये।

अल्पमें संतोष

एक विघ्न है साधनमें संतोष करना यानी अल्प लाभको ही पूर्ण लाभ समझकर साधन छोड़ बैठना। साधनमें लगा हुआ मनुष्य ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता है, त्यों-ही-त्यों उसे विलक्षण आनन्द मिलता है। संसारमें रमे हुए मनुष्य उस आनन्दकी कल्पना भी नहीं कर सकते। साधकने अबसे पहले जिस आनन्दका कभी स्वप्न भी नहीं देखा वैसा आनन्द, सांसारिक पदार्थोंसे प्राप्त होनेवाले आनन्दसे दूसरी ही तरहका अपूर्व आनन्द पाकर वह अपनेको कृतकृत्य समझ लेता है। वह इस बातको भूल जाता है कि वह जिस आनन्दधामका पथिक बना है, उस परमानन्दका तो यह एक कणमात्र है। वह जिस स्वर्गीय राजप्रासादमें जा रहा है, यह उससे बहुत ही बाहरकी एक छोटी-सी कोठरीका कोनामात्र है। इसीलिये वह इस संसारसे विलक्षण आनन्दधामके अपूर्ण आनन्दको पाकर उसीमें रम जाता है और आगे बढ़नेकी आवश्यकता नहीं समझता। साधकको परमार्थके मार्गमें अनेक विलक्षण लक्षण दीख पड़ते हैं; कोई शान्तिका महान् शान्त समुद्र देखता है, कोई अपूर्व आनन्दमें मनको डूबा हुआ देखता है, किसीको जगत् अखण्ड आनन्दसे परिपूर्ण होता दीख पड़ता है, किसीको परम ज्योतिके दर्शन होते हैं, कभी-कभी अनेक आश्चर्यमय स्वर्गीय स्वर सुनायी देते हैं, कभी अद्भुत, आनन्दमय दृश्य Visions दिखलायी पड़ते हैं। अवश्य ही ये सब शुभ लक्षण हैं, परंतु इन्हें पूर्ण मानकर संतोष नहीं कर लेना चाहिये। थोड़ी-सी उन्नति करके भावी उन्नतिके लिये प्रयत्न न करना बहुत बड़ा विघ्न है। रास्तेकी धर्मशालाको ही अपना घर समझकर बैठ रहनेसे घर कभी नहीं मिलता।

कामना

साधनमें एक विघ्न है विषयोंकी कामना। वैराग्यके अभावसे ही यह हुआ करती है। जिस साधकका चित्त विषयकामनाओंसे सर्वथा मुक्त नहीं हो जाता, उसके साधन-मार्गमें बड़े-बड़े विघ्न पड़ जाते हैं; क्योंकि कामना ही क्रमश: क्रोध, मोह, स्मृतिनाश और बुद्धिनाशके रूपमें परिणत होकर साधकका नाश कर डालती है। इन्द्रिय-विषयोंकी ओर दौड़नेवाले चित्तका निरन्तर भगवदभिमुखी रहना असम्भव है; अतएव कामनाओंको चित्तसे सदा दूर रखना चाहिये।

ब्रह्मचर्यका अभाव

साधनमें एक विघ्न है ब्रह्मचर्यका पूरा पालन न करना। शरीरके अन्दर ओज हुए बिना साधनमें पूरी सफलता नहीं मिलती। ओजके लिये ब्रह्मचर्यकी बड़ी आवश्यकता है। साधक ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ या संन्यासी हो तब तो ब्रह्मचर्यका उसे पूरी तरह पालन करना ही चाहिये। कुमारी बहिनें और विधवा माताएँ यदि भगवत्-सम्बन्धी साधन करती हों तो उनके लिये भी यही बात है; परंतु विवाहित स्त्री-पुरुषोंको भी परमार्थसाधनके लिये यथासाध्य शीलव्रत-पालन करना चाहिये। एक पुत्र हो जानेके बाद तो शीलव्रत ले लेनेपर कोई हिचक करनी ही नहीं चाहिये। परंतु परमार्थके साधकोंको पुत्र न होनेकी भी कोई परवा नहीं करनी चाहिये। मनुष्य-शरीर संतानोत्पादनके लिये ही नहीं मिला है, यह तो पशुयोनियोंमें भी होता है। इस शरीरसे तो साधन करके परमधन परमात्माको प्राप्त करना है। अतएव संतानके लिये भी यथासाध्य शीलव्रतका भंग नहीं करना चाहिये। विवाहित स्त्री-पुरुषोंको अवश्य ही शीलव्रत दोनोंकी सम्मतिसे ग्रहण करना चाहिये, अन्यथा और कई तरहकी आपत्तियाँ आनेकी सम्भावना है। जो शीलव्रतका लाभ समझता हो, वही दूसरेको प्रेमसे समझाकर अपने मतके अनुकूल बना ले। तदनन्तर यथासाध्य शीलव्रतका नियम ग्रहण करे। सदा यह स्मरण रखना चाहिये कि जो जितना ही अधिक ब्रह्मचर्यका पालन करेगा, वह उतना ही शीघ्र परमार्थके मार्गमें आगे बढ़ सकेगा।

कुसंगति

एक बहुत बड़ा विघ्न है कुसंगति। कुसंगमें पड़कर बहुत आगे बढ़े हुए साधकोंका भी पतन देखा जाता है। जो लोग प्रत्यक्षरूपसे पापमें रत हैं, उनका संग तो सर्वथा त्याज्य है ही; परंतु जो लोग अपनेको संत, भक्त, योगी या ज्ञानी प्रसिद्ध करते हों, पर जिनमें छल-कपट, भोग-विलास, धन-स्त्रीका अनुराग, परनिन्दा-परचर्चामें प्रेम, गर्व, अभिमान, धूर्तता-पाखण्ड आदि दोष देखनेमें आते हों, उनका संग भी वास्तवमें कुसंग ही है; क्योंकि जिनमें ये सब दोष होते हैं वे कभी सच्चे संत, भक्त, योगी या ज्ञानी नहीं हैं।

कुसंगसे ईश्वर, सच्चे धर्म, सदाचार और साधनमें अनादर उत्पन्न होता है। प्रतिदिन यह सुनते रहनेसे, ‘क्या रखा है सत्संगमें? कहाँ है ईश्वर? धर्मसे क्या होता है?’ इनमें अश्रद्धा हो जाती है! सदा-सर्वदा विषयोंकी बातें होनेसे उनमें अनुराग और परदोष-श्रवणसे उन लोगोंके प्रति घृणा और द्वेष जाग उठता है। स्त्री, धन, पुत्र, मान आदिकी कामना उत्पन्न होकर बढ़ने लगती है, कुतर्क बढ़ जाता है। राजस-तामस भावोंकी पुष्टि होने लगती है। दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, पारुष्य और अज्ञान आदि आसुरी सम्पत्तिके दोषोंका हृदयमें संचार होने लगता है। स्वार्थपरता और पाखण्ड बढ़ जाते हैं। चित्त अशान्त हो जाता है।

ऐसे मनुष्य जगत् में बहुत ही थोड़े होंगे, जिनके मनमें कभी बुरे विचार न उत्पन्न होते हों; क्योंकि बुरे संचित प्राय: सभीके रहते हैं। केवल शुभ संचित ही हों, तब तो मनुष्य-शरीर ही नहीं मिल सकता। मानव-देह संचित पाप-पुण्य दोनोंके कारण ही मिलता है। मनमें विचार संचित होते हैं। परंतु यदि विवेकका बल हो तो बुरे विचारोंके अनुसार कार्य नहीं होता! वे मनमें उत्पन्न होकर वहीं नष्ट हो जाते हैं। पर यदि कुसंगसे उन विचारोंमें कुछ सहायता मिल जाती है तो वे ‘तरंगायिताऽपि मे संगात्समुद्रायन्ति।’ तरंगकी भाँति छोटे-से आकारमें उत्पन्न हुए बुरे विचार शीघ्र ही समुद्र बन जाते हैं और मनुष्य उनमें निमग्न होकर साधनसे सर्वथा गिर जाता है।

कुसंग केवल मनुष्योंका ही नहीं होता। जिस देश, दृश्य, साहित्य, चित्र, विचार, भाव या वचनोंसे मनमें बुरे भावोंकी उत्पत्ति होती हो वे सभी कुसंग हैं। ऐसे स्थानमें नहीं रहना चाहिये जहाँका वातावरण तमोगुणी हो। ऐसे नाटक, खेल, सिनेमा, चित्र या अन्य दृश्य नहीं देखने चाहिये जिनसे मनमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, अभिमान, द्वेष आदि बढ़ते हों। ऐसी पुस्तकें या पत्र आदि कभी नहीं पढ़ने चाहिये जिनसे बुरे भावोंकी मनमें जागृति होती हो। आजकलके अधिकांश समाचार-पत्रोंमें प्राय: परदोषदर्शन, परनिन्दा और विषयलिप्साकी ओर मन लगानेवाले लेख और चित्र रहते हैं; यथासम्भव इनसे बचना चाहिये। ऐसे विचार या भावोंको सुनना और मनन करना उचित नहीं, जिनसे मनमें कुसंस्कार जमते हों। ऐसे वचनोंका सुनना, बोलना भी त्याग देना चाहिये जिनसे घृणा, द्वेष, वैर, काम, क्रोध, लोभादिकी उत्पत्ति और वृद्धि होती हो। कम-से-कम परस्त्रीसंगी, प्रमादी, अकारणद्वेषी, संत-साधु-शास्त्र-विरोधी, ईश्वरका खण्डन करनेवाले, दम्भी, अभिमानी, परनिन्दापरायण, लोभी, अन्यायकारी, परछिद्रान्वेषी पुरुषोंके संगसे तो साधकको यथासाध्य अवश्य ही बचना चाहिये।

परदोषदर्शन

साधनमें एक विघ्न है परदोषदर्शन। साधकको इस बातसे कुछ भी प्रयोजन नहीं रखना चाहिये कि ‘दूसरे क्या करते हैं।’ उसे तो आत्मशुद्धिमें निरन्तर लगे रहना चाहिये। साधकको अपनी साधनाके कार्यसे इतनी फुरसत ही नहीं मिलनी चाहिये, जिससे वह दूसरेका एक भी दोष देख सके। जिन लोगोंमें दूसरोंके दोष देखनेकी आदत पड़ जाती है, वे साधन-पथपर स्थिर रहकर आगे नहीं बढ़ सकते। साधकोंको हरिभक्त श्रीनारायण स्वामीजीका यह उपदेश सदा याद रखना चाहिये—

तेरे भावैं जो करो, भलो बुरो संसार।
नारायण तू बैठिके अपनो भवन बुहार॥

जब दोष दीखते ही नहीं, तब उनकी आलोचना करनेकी तो कोई बात ही नहीं रह जाती। दोष अपने देखने चाहिये और उन्हींको दूर करनेका यथासाध्य पूरा प्रयत्न करना चाहिये।

साम्प्रदायिकता

साधनमें एक बड़ा विघ्न है साम्प्रदायिकता। इससे दूसरोंकी अच्छी बातें भी अपने सम्प्रदायके अनुकूल न होनेसे बुरी मालूम होने लगती हैं। इसका यह मतलब नहीं कि साधक अपनी गुरु-परम्परा छोड़ दे या सद्गुरुके बतलाये हुए साधन-पथपर श्रद्धा-विश्वास रखकर तदनुसार न चले। सद्गुरुके आज्ञानुसार निर्दिष्ट मार्गपर चलना तो साधकका अवश्यकर्तव्य है, परंतु साम्प्रदायिक आग्रहवश दूसरोंकी निन्दा करना या दूसरोंको हीन समझना, दूसरोंके साधनमार्ग या ईश्वरकी कल्पनामें दोष दिखाना, उनका खण्डन करना केवल बाह्य आचारोंको ही मुख्य समझना आदि साधकके लिये कभी उचित नहीं!

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