असत् का वर्णन
जिसका किसी भी देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति, घटना आदिमें अभाव है, उसका कहीं भी भाव नहीं है अर्थात् उसका सदा ही अभाव है और वह असत् है—‘नासतो विद्यते भाव:’ (गीता २। १६)।
जो किसी देशमें है और किसी देशमें नहीं है, वह किसी भी देशमें नहीं है। जो किसी कालमें है और किसी कालमें नहीं है, वह किसी भी कालमें नहीं है। जो किसी क्रियामें है और किसी क्रियामें नहीं है, वह किसी भी क्रियामें नहीं है। जो किसी वस्तुमें है और किसी वस्तुमें नहीं है, वह किसी भी वस्तुमें नहीं है। जो किसी व्यक्तिमें है और किसी व्यक्तिमें नहीं है, वह किसी भी व्यक्तिमें नहीं है। जो किसी अवस्थामें है और किसी अवस्थामें नहीं है, वह किसी भी अवस्थामें नहीं है। जो किसी परिस्थितिमें है और किसी परिस्थितिमें नहीं है, वह किसी भी परिस्थितिमें नहीं है। जो किसी घटनामें है और किसी घटनामें नहीं है, वह किसी भी घटनामें नहीं है अर्थात् उसका सभी घटनाओंमें अभाव है।
जो किसी शरीरमें है और किसी शरीरमें नहीं है, वह किसी भी शरीरमें नहीं है। जो किसी वर्णमें है और किसी वर्णमें नहीं है, वह किसी भी वर्णमें नहीं है। जो किसी जातिमें है और किसी जातिमें नहीं है, वह किसी भी जातिमें नहीं है। जो किसी आश्रममें है और किसी आश्रममें नहीं है, वह किसी भी आश्रममें नहीं है। जो किसी समुदायमें है और किसी समुदायमें नहीं है, वह किसी भी समुदायमें नहीं है; यदि है तो वह आगन्तुक है।
जो कर्तृत्व किसी व्यक्तिमें है और किसी व्यक्तिमें नहीं है, वह किसीमें भी नहीं है अर्थात् वास्तवमें कर्तृत्व है ही नहीं, केवल माना हुआ है। काम, क्रोध और लोभवृत्ति कभी होती हैं और कभी नहीं होतीं तो वस्तुत: उनका नहीं होना ही सिद्ध होता है। इसी प्रकार मोह, मद और मत्सरवृत्ति कभी होती हैं और कभी नहीं होतीं तो वस्तुत: उनका नहीं होना ही सिद्ध होता है अर्थात् उनका सदा ही अभाव है। यदि ये वृत्तियाँ वास्तवमें होतीं तो कभी घटती अथवा मिटती नहीं।
वास्तवमें काम-क्रोधादि विकारोंकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है। विकार और सत्ता परस्पर विरोधी हैं। जो विकार है, उसकी सत्ता कैसे? और जिसकी सत्ता है, उसमें विकार कैसे? परन्तु अज्ञानवश अपनेमें काम-क्रोधादि विकारोंकी सत्ता माननेसे वे अपनेमें दीखने लग जाते हैं। उनको अपनेमें मानकर उनको मिटानेकी चेष्टा करते हैं तो उनकी सत्ता और दृढ़ होती है*।
* यहाँ एक शंका होती है कि यदि काम-क्रोधादि विकारोंकी सत्ता ही नहीं है तो फिर उनको अपनेमें मान लेनेसे साधकका पतन कैसे हो जाता है? इसका समाधान यह है कि जैसे कोई भयंकर स्वप्न आता है तो नींद खुलनेके बाद भी हृदयमें धड़कन, शरीरमें कँपकँपी आदि होते हैं अर्थात् स्वप्नकी घटनाका प्रभाव जाग्रत् में पड़ता है, ऐसे ही सत्ता न होनेपर भी अपनेमें मान लेनेके कारण काम-क्रोधादि विकार साधकका पतन कर देते हैं। पतन होनेका अर्थ है—पहले जैसी स्थिति थी, वैसी स्थिति न रहना; साधकपनेका न रहना। जब साधकपना नहीं रहेगा तो फिर साध्यकी प्राप्ति कैसे होगी? जैसे पतनकी बात है, ऐसे ही उत्थानकी भी बात है। अद्वैत तत्त्वमें गुरु-शिष्यका भेद नहीं है, पर गुरु-शिष्यके संवादसे शिष्यको तत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है।
इसी तरह मनको सत्ता दी है, तभी स्फुरणाएँ और संकल्प हैं। स्फुरणा और संकल्प परिवर्तनशील हैं। सत्तामें परिवर्तन नहीं होता और जिसमें परिवर्तन होता है, उसकी सत्ता नहीं होती।
जिसका सदा ही अभाव है, उसकी सत्ता भूलसे मानी हुई, दी हुई है। मानी हुई सत्ताकी सत्ता नहीं होती, कल्पना की हुई सत्ताकी सत्ता नहीं होती, दी हुई सत्ताकी सत्ता नहीं होती। इसी तरह संसारकी सुनी हुई, कही हुई और चिन्तन की हुई सत्ताकी सत्ता नहीं होती; क्योंकि वास्तवमें संसारकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। परन्तु स्वयं सत्-स्वरूप है; अत: यह जिसकी सत्ता मान लेता है,उसकी सत्ता दीखने लग जाती है; जैसे—अग्निमें लकड़ी, कोयला, कंकड़, पत्थर, ठीकरी आदि जो भी रखें, वही चमकने लग जाता है।
असत् का भान तो हो सकता है, पर उसकी सत्ता नहीं हो सकती। कारण कि जिसका कभी भी और कहीं भी अभाव है, उसका सदा-सर्वत्र अभाव-ही-अभाव है। परन्तु सत्-तत्त्व परमात्माका किसी भी देशमें अभाव नहीं है, किसी भी कालमें अभाव नहीं है, किसी भी क्रियामें अभाव नहीं है, किसी भी वस्तुमें अभाव नहीं है, किसी भी व्यक्तिमें अभाव नहीं है, किसी भी अवस्थामें अभाव नहीं है, किसी भी परिस्थितिमें अभाव नहीं है, किसी भी घटनामें अभाव नहीं है। जिसका कभी भी और कहीं भी अभाव नहीं है, उसका सदा-सर्वत्र भाव-ही-भाव है—‘नाभावो विद्यते सत:’ (गीता २। १६)। देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति आदि तो पहले नहीं थे, पीछे नहीं रहेंगे और वर्तमानमें भी प्रतिक्षण अभावमें जा रहे हैं। परंतु परमात्मा पहले भी था, पीछे भी रहेगा और वर्तमानमें भी ज्यों-का-त्यों विद्यमान है। परमात्मामें कभी फर्क था नहीं, कभी फर्क होगा नहीं, कभी फर्क है नहीं और कभी फर्क हो सकता नहीं। वह नित्य-निरन्तर ज्यों-का-त्यों रहता है। वह किसीकी दृष्टिमें है और किसीकी दृष्टिमें नहीं है तो इससे उसका अभाव सिद्ध नहीं होता, प्रत्युत यह तो दृष्टिदोष है, दृष्टिका अभाव है, जिससे वह होता हुआ भी नहीं की तरह दीखता है।
संसारकी सहज-स्वाभाविक तथा नित्य-निरन्तर निवृत्ति है और परमात्माकी सहज-स्वाभाविक तथा नित्य-निरन्तर प्राप्ति है। संसारकी प्रतीति है, प्राप्ति नहीं। प्रतीतिकी प्राप्ति नहीं होती और प्राप्तकी प्रतीति नहीं होती। प्रतीतिकी सर्वथा निवृत्ति है। इस निवृत्तिका कभी नाश नहीं होता अर्थात् संसारके अभावका कभी अभाव नहीं होता, प्रत्युत नित्य ही अभाव रहता है।
जिनका संसारमें राग है, उन्हींको यह कहना पड़ता है कि ‘संसार नहीं है, परमात्मा है’। जिनका संसारमें राग नहीं है, उनको केवल ‘परमात्मा है’ इतना ही कहना पड़ता है। जैसे, रस्सीमें साँप दीखे तो सभय व्यक्तिसे कहते हैं कि ‘साँप नहीं है, रस्सी है’; परन्तु निर्भय व्यक्तिसे केवल ‘रस्सी है’ यही कहना पड़ता है। तात्पर्य है कि संसारमें राग होनेपर, संसारकी सत्ता माननेपर ही संसारकी निवृत्ति करनी पड़ती है, नहीं तो जिसकी सहज-स्वाभाविक, नित्य-निरन्तर निवृत्ति है, उसकी निवृत्ति कहना बनता ही नहीं!
संसारका स्वरूप है—पदार्थ और क्रिया। जब अज्ञताके कारण संसारकी सत्ता मान लेते हैं, तब पदार्थको लेकर संयोग (पाने)की रुचि और क्रियाको लेकर करनेकी रुचि होती है। पदार्थोंके संयोगकी और करनेकी रुचि होनेसे नित्य निवृत्तिमें भी प्रवृत्ति प्रतीत होती है। परन्तु प्रवृत्ति प्रतीत होनेपर भी निवृत्ति ज्यों-की-त्यों रहती है। अत: पदार्थोंके संयोगकी और करनेकी रुचिके परिणाममें अभावके सिवाय कुछ नहीं मिलता, और अभावको कोई भी नहीं चाहता।
जीवका जड़-अंशकी प्रधानतासे संसारकी तरफ भी आकर्षण होता है और चेतन-अंशकी प्रधानतासे परमात्माकी तरफ भी आकर्षण होता है। दोनोेंमें आकर्षण होते हुए भी संसारके आकर्षणसे परिणाममें अभाव ही मिलता है अर्थात् कुछ भी नहीं मिलता और परमात्माके आकर्षणसे परिणाममें प्रेम मिलता है, परमात्मा मिलता है, जिसके मिलनेसे कुछ भी मिलना बाकी नहीं रहता है। प्रेम तथा बोध—दोनों एक ही हैं। बोधके बिना प्रेम ‘आसक्ति’ है; क्योंकि संसारके अभावका बोध न होनेपर संसारमें आसक्ति होती है, प्रेम नहीं होता और प्रेमके बिना बोध ‘शून्य’ है; क्योंकि संसारका अभाव करते-करते अभाव (शून्य) ही शेष रह जाता है।
असत् से अलग हुए बिना असत् का ज्ञान नहीं होता; क्योंकि वास्तवमें हम असत् से सर्वथा अलग हैं। सत् से अभिन्न हुए बिना सत् का ज्ञान नहीं होता; क्योंकि वास्तवमें (स्वरूपसे) हम सत् से सर्वथा अभिन्न हैं। असत् से अलग होनेका अर्थ है—असत् में राग न होना और सत् से अभिन्न होनेका अर्थ है—सत् में प्रियता होना।
सदा-सर्वदा निवृत्त रहनेपर भी असत् का राग, आकर्षण, महत्त्वबुद्धि, सुखबुद्धि रहते हुए असत् का ज्ञान अर्थात् निवृत्ति नहीं होती और सदा-सर्वदा प्राप्त रहनेपर भी सत् में प्रियता हुए बिना सत् का ज्ञान अर्थात् प्राप्ति नहीं होती, प्रत्युत केवल चर्चा अर्थात् सीखनामात्र होता है। सीखनेमात्रसे अपनी जानकारीका अभिमान तो हो सकता है, पर अनुभव नहीं हो सकता।
असत् में राग न होनेसे असत् का ज्ञान हो जाता है। असत् का ज्ञान होते ही अर्थात् असत् को असत्-(अभाव) रूपसे जानते ही असत् की निवृत्ति तथा सत् की प्राप्ति हो जाती है और सम्पूर्ण दु:खोंका नाश हो जाता है। सत् में प्रियता होनेसे सत् का ज्ञान हो जाता है। सत् का ज्ञान होते ही अर्थात् सत् को सत्-(भाव) रूपसे जानते ही सत् की प्राप्ति हो जाती है और आनन्द मिल जाता है।
असत् की निवृत्ति और सत् की प्राप्ति—ये दोनों एक ही हैं। ऐसे ही सम्पूर्ण दु:खोंका नाश और आनन्दकी प्राप्ति भी एक ही हैं, केवल कहनेमें भेद है। कारण कि वास्तवमें असत् कभी था नहीं, है नहीं और रहेगा नहीं, पर सत् (परमात्मा) सदा ही था, है और रहेगा। सत् को मानें या न मानें, जानें या न जानें, स्वीकार करें या न करें, अनुभव करें या न करें, सत् की सत्ता सदा विद्यमान रहती है।