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वर्णनातीतका वर्णन

[साधकको चाहिये कि वह एकान्तमें बैठकर शुद्ध वृत्तिसे इस लेखको पढ़े। केवल शब्दोंपर दृष्टि न रखकर अर्थ एवं तत्त्वकी तरफ दृष्टि रखते हुए पढ़े, पढ़कर विचार करे और विचार करके बाहर-भीतरसे चुप हो जाय तो तत्त्वमें स्वत:सिद्ध स्थिरता जाग्रत् हो जायगी अर्थात् सहजावस्थाका अनुभव हो जायगा और मनुष्यजीवन सफल हो जायगा।*]

* यहाँ प्रश्न होता है कि जो वर्णनातीत है, उसका वर्णन कैसे? और जिसका वर्णन होता है, वह वर्णनातीत कैसे? इसका उत्तर है कि यद्यपि तत्त्व वर्णनातीत है, तथापि उसका लक्ष्य करानेके लिये यहाँ उसका वर्णन किया गया है। गीतामें भी भगवान‍्ने ‘अचिन्त्यरूपं अनुस्मरेत्’ (८। ९) पदोंसे अचिन्त्यका चिन्तन करनेकी बात कही है तो जो अचिन्त्य है, उसका चिन्तन कैसे? और जिसका चिन्तन होता है, वह अचिन्त्य कैसे? इसका तात्पर्य है कि यद्यपि परमात्मा अचिन्त्य है, तथापि चिन्तन करनेवाला उसको लक्ष्य बना सकता है। इसी तरह गीतामें गुणातीतके लक्षण बताये गये हैं (१४। २१-२५) तो जो गुणातीत है, उसके लक्षण कैसे? और जिसके लक्षण हैं, वह गुणातीत कैसे? क्योंकि लक्षण तो गुणोंसे ही होते हैं। इसका तात्पर्य है कि लोग पहले जिस शरीर और अन्त:करणमें गुणातीतकी स्थिति मानते थे, उसी शरीर और अन्त:करणके लक्षणोंका वे उसमें आरोप करते हैं कि यह गुणातीत मनुष्य है। अत: वे लक्षण गुणातीत मनुष्यको पहचाननेके संकेतमात्र हैं। ऐसे ही समतामें स्थित मनुष्यकी स्थिति पहचाननेके लिये बताया कि जिसका मन समतामें स्थित है, वह समरूप ब्रह्ममें ही स्थित है (५। १९)।

सत्-तत्त्व एक ही है। उस तत्त्वका वर्णन नहीं होता; क्योंकि वह मन (बुद्धि) और वाणीका विषय नहीं है—‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’ (तैत्तिरीय० २। ९), ‘मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी॥’ (मानस १। ३४१। ४)। जहाँ वर्णन है, वहाँ तत्त्व नहीं है और जहाँ तत्त्व है, वहाँ वर्णन नहीं है। उस तत्त्वकी तरफ लक्ष्य नहीं है, इसलिये केवल उसका लक्ष्य करानेके लिये ही उसका वर्णन किया जाता है। परन्तु जब उसका लक्ष्य न करके कोरा सीख लेते हैं, तब वर्णन-ही-वर्णन होता है, तत्त्व नहीं मिलता। उसका लक्ष्य रखकर वर्णन करनेसे वर्णन तो नहीं रहता, पर तत्त्व रह जाता है। तात्पर्य है कि उसका वर्णन करते-करते जब वाणी रुक जाती है, उसका चिन्तन करते-करते जब मन रुक जाता है, तब स्वत: वह तत्त्व रह जाता है और प्राप्त हो जाता है। वास्तवमें वह पहलेसे ही प्राप्त था, केवल अप्राप्तिका वहम मिट जाता है।

प्रकृतिजन्य कोई भी क्रिया, पदार्थ, वृत्ति, चिन्तन उस तत्त्वतक नहीं पहुँचता। प्रकृतिसे अतीत तत्त्वतक प्रकृतिजन्य पदार्थ कैसे पहुँच सकता है? अत: तत्त्वका वर्णन नहीं होता, प्रत्युत प्राप्ति होती है। उसकी प्राप्ति भी अप्राप्तिकी अपेक्षासे कही जाती है अर्थात् उसको अप्राप्त माना है, इसलिये उसकी प्राप्ति कही जाती है। वास्तवमें वह तत्त्व स्वत: सबको नित्य-निरन्तर प्राप्त है। अप्राप्तिकी तो मान्यतामात्र है। असत् को सत् माननेसे, अप्राप्तको प्राप्त माननेसे ही वह तत्त्व अप्राप्तकी तरह दीखने लग गया। असत् को जितनी सत्ता देंगे अर्थात् महत्त्व देंगे, उतनी ही उसकी सत्ता दीखेगी और वह तत्त्व अप्राप्त दीखेगा। अप्राप्त दीखनेपर भी वह नित्यप्राप्त है अर्थात् न दीखनेपर भी तत्त्वमें कभी किंचिन्मात्र भी फर्क नहीं पड़ता। यह सिद्धान्त है कि प्राप्ति उसीकी होती है, जो सदासे प्राप्त है और निवृत्ति उसीकी होती है, जिसकी सदासे निवृत्ति है। तात्पर्य है कि मिलेगा वही, जो मिला हुआ है और बिछुड़ेगा वही, जो बिछुड़ा हुआ है। नया कुछ भी मिलनेवाला और बिछुड़नेवाला नहीं है। नया मिलेगा तो वह ठहरेगा नहीं, बिछुड़ ही जायगा।

जितने भी भेद हैं, सब-के-सब प्रकृति (असत् )में ही हैं। तत्त्वमें किंचिन्मात्र भी कोई भेद नहीं है। जब प्राकृत पदार्थोंकी सत्ता मानते हुए, उनको महत्त्व देते हुए उस तत्त्वका वर्णन करते हैं, तब वह तत्त्व केवल बुद्धिका विषय हो जाता है और उसमें भेद दीखने लग जाता है१। सभी भेद सापेक्ष होते हैं। अपेक्षा छोड़ें तो कोई भेद नहीं रहता, एक निरपेक्ष तत्त्व रह जाता है। जैसे, दिनकी अपेक्षा रात है और रातकी अपेक्षा दिन है, पर सूर्यमें न दिन है, न रात है अर्थात् वहाँ नित्यप्रकाश है। समुद्रकी अपेक्षा तरंग है और तरंगकी अपेक्षा समुद्र है, पर जल-तत्त्वमें न समुद्र है, न तरंग है।२ ऐसे ही गुणोंकी अपेक्षासे उस तत्त्वको सगुण-निर्गुण और आकारकी अपेक्षासे उस तत्त्वको साकार-निराकार कहते हैं। वास्तवमें तत्त्व न सगुण है, न निर्गुण है; न साकार है, न निराकार है।

१-शास्त्रोंमें तत्त्वका जो वर्णन आता है, वह हमारी दृष्टिसे है। हमने असत् की सत्ता मान रखी है, इसलिये शास्त्र हमारी दृष्टिके अनुसार, हमारी भाषामें असत् की निवृत्ति और सत्-तत्त्वका वर्णन करते हैं। यही कारण है कि दृष्टिभेदसे दर्शन अनेक हैं। अनेक दर्शन होते हुए भी तत्त्व एक है। जबतक द्रष्टा, ज्ञाता, दार्शनिक और दर्शन हैं, तबतक तत्त्वके वर्णनमें भेद है। जबतक भेद है, तबतक तत्त्व नहीं है; क्योंकि तत्त्वमें भेद नहीं है। दूसरे शब्दोंमें जबतक अहम् (जड़-चेतनकी ग्रन्थि) है, तबतक भेद है। अह‍म‍्के मिटनेपर कोई भेद नहीं रहता, केवल एक तत्त्व (‘है’) रह जाता है।
२-ईश्वर और जीवके विषयमें दो तरहका वर्णन है—पहला, ईश्वर समुद्र है और मैं उसकी तरंग हूँ अर्थात् तरंग समुद्रकी है; और दूसरा, मेरा स्वरूप समुद्र है और ईश्वर उसकी तरंग है अर्थात् समुद्र तरंगका है। इन दोनोंमें तरंग समुद्रकी है— यह कहना तो ठीक दीखता है, पर समुद्र तरंगका है—यह कहना ठीक नहीं दीखता; क्योंकि समुद्र अपेक्षाकृत नित्य है और तरंग अनित्य (क्षणभंगुर) है। अत: तरंग समुद्रकी होती है, समुद्र तरंगका नहीं होता। अगर अपनेको समुद्र और ईश्वरको तरंग मानें तो इस मान्यतासे अनर्थ होगा; क्योंकि ऐसा माननेसे अभिमान पैदा हो जायगा तथा अहम् (चिज्जड़ग्रन्थि अर्थात् बन्धन) तो नित्य रहेगा और ईश्वर अनित्य हो जायगा ! कारण कि जीवमें अनादिकालसे अहम् (व्यक्तित्व)का अभ्यास पड़ा हुआ है। अत: जहाँ स्वरूपको अहम् कहेंगे, वहाँ वही अहम् आयेगा, जो अनादिकालसे है। उस अह‍म‍्के मिटनेसे ही तत्त्वकी प्राप्ति होती है।
उपर्युक्त दोनों बातोंके सिवाय तीसरी एक विलक्षण बात है कि जल-तत्त्वमें न समुद्र है, न तरंग है अर्थात् वहाँ समुद्र और तरंगका भेद नहीं है। समुद्र और तरंग तो सापेक्ष हैं, पर जल-तत्त्व निरपेक्ष है।

वह एक ही तत्त्व प्रकाश्यकी अपेक्षासे ‘प्रकाशक’ आश्रितकी अपेक्षासे ‘आश्रय’ और आधेयकी अपेक्षासे ‘आधार’ कहा जाता है। प्रकाश्य, आश्रित और आधेय तो व्याप्य, विनाशी एवं अनेक हैं, पर प्रकाशक, आश्रय और आधार व्यापक, अविनाशी एवं एक है। प्रकाश्य, आश्रित और आधेय तो नहीं रहेंगे, पर प्रकाशक, आश्रय और आधार रह जायगा; किन्तु प्रकाशक, आश्रय और आधार—ये नाम नहीं रहेंगे, प्रत्युत एक तत्त्व रहेगा। तात्पर्य है कि तत्त्व न प्रकाश्य है, न प्रकाशक है; न आश्रित है, न आश्रय है; न आधेय है, न आधार है।

वह एक ही तत्त्व शरीरके सम्बन्धसे शरीरी, क्षेत्रके सम्बन्धसे क्षेत्री तथा क्षेत्रज्ञ, क्षरके सम्बन्धसे अक्षर, दृश्यके सम्बन्धसे द्रष्टा और साक्ष्यके सम्बन्धसे साक्षी कहलाता है। तात्पर्य है कि तत्त्व न शरीर है, न शरीरी है; न क्षेत्र है, न क्षेत्री तथा क्षेत्रज्ञ है; न क्षर है, न अक्षर है; न दृश्य है, न द्रष्टा है; न साक्ष्य है, न साक्षी है।

वह तत्त्व अनेककी अपेक्षासे एक है। जड़की अपेक्षासे वह चेतन है। असत् की अपेक्षासे वह सत् है। अभावकी अपेक्षासे वह भावरूप है। अनित्यकी अपेक्षासे वह नित्य है। उत्पन्न वस्तुकी अपेक्षासे वह अनुत्पन्न है। नाशवान‍्की अपेक्षासे वह अविनाशी है। असत्-जड़-दु:खरूप संसारकी अपेक्षासे वह सत्-चित्-आनन्दरूप है। प्राकृत पदार्थोंकी अपेक्षासे वह प्राप्त अथवा अप्राप्त है। कठिनताकी अपेक्षासे उसको सुगम कहते हैं, नहीं तो जो नित्यप्राप्त है, उसमें क्या कठिनता और क्या सुगमता? तात्पर्य है कि तत्त्व न अनेक है, न एक है; न जड़ है, न चेतन है; न असत् है न सत् है; न अभावरूप है, न भावरूप है; न अनित्य है, न नित्य है; न उत्पन्न है, न अनुत्पन्न है; न नाशवान् है, न अविनाशी है; न असत् -जड़-दु:खरूप है, न सत्-चित्-आनन्दरूप है; न प्राप्त है, न अप्राप्त है; न कठिन है, न सुगम है अर्थात् शब्दोंके द्वारा उस तत्त्वका वर्णन नहीं होता।

वह तत्त्व परत:सिद्धकी अपेक्षासे स्वत:सिद्ध है। अस्वाभाविककी अपेक्षासे वह स्वाभाविक है। अस्वाभाविकतामें स्वाभाविकका आरोप कर लिया तो ‘बन्धन’ हो गया, स्वाभाविकमें अस्वाभाविकताका आरोप कर लिया तो ‘संसार’ हो गया और अस्वाभाविकताको अस्वीकार करके स्वाभाविकका अनुभव किया तो ‘तत्त्व’ हो गया और अतत्त्वसे मुक्ति हो गयी अर्थात् है ज्यों हो गया! तत्त्व न परत:सिद्ध है, न स्वत:सिद्ध है; न स्वाभाविक है, न अस्वाभाविक है। परत:सिद्ध-स्वत:सिद्ध, स्वाभाविक-अस्वाभाविक तो सापेक्ष हैं, पर तत्त्व निरपेक्ष है।

उस तत्त्वको ‘है’ कहते हैं। वास्तवमें वह ‘नहीं’ की अपेक्षासे ‘है’ नहीं है, प्रत्युत निरपेक्ष है। अगर हम ‘नहीं’ की सत्ता मानें तो फिर उसको ‘नहीं’ कहना बनता ही नहीं; क्योंकि ‘नहीं’ और सत्तामें परस्पर विरोध है अर्थात् जो ‘नहीं’ है, उसकी सत्ता कैसे और जिसकी सत्ता है, वह ‘नहीं’ कैसे? वास्तवमें ‘नहीं’ की सत्ता ही नहीं है। परन्तु जब भूलसे ‘नहीं’ की सत्ता मान लेते हैं, तब उस भूलको मिटानेके लिये ‘यह नहीं है, तत्त्व है’ ऐसा कहते हैं। जब ‘नहीं’ की सत्ता ही नहीं है, तब तत्त्वको ‘है’ कहना भी बनता नहीं । तात्पर्य है कि ‘नहीं’ की अपेक्षासे ही तत्त्वको ‘है’ कहते हैं। वास्तवमें तत्त्व न ‘नहीं’ है और न ‘है’ है।

गीतामें आया है—

ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वामृतमश्नुते।
अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते॥
(१३।१२)

‘जो ज्ञेय है, उस तत्त्वका मैं अच्छी तरहसे वर्णन करूँगा, जिसको जानकर मनुष्य अमरताका अनुभव कर लेता है। वह तत्त्व अनादि और परब्रह्म है। उसको न सत् कहा जा सकता है और न असत् कहा जा सकता है।’*

* गीतामें परमात्माका तीन प्रकारसे वर्णन आता है—
(१) परमात्मा सत् भी है और असत् भी है—‘सदसच्चाहम्’ (९। १९); (२) परमात्मा सत् भी है, असत् भी है और सत्-असत् से पर भी है—‘सदसत्तत्परं यत्’ (११। ३७); (३) परमात्मा न सत् है और न असत् है—‘न सत्तन्नासदुच्यते’(१३। १२)। इसका तात्पर्य यही है कि वास्तवमें परमात्माका वर्णन नहीं किया जा सकता; क्योंकि वह मन, बुद्धि और शब्दसे अतीत है।

तात्पर्य है कि उस तत्त्वका आदि (आरम्भ) नहीं है जो सदासे है, उसका आदि कैसे? सब अपर हैं, वह पर है। वह न सत् है,न असत् है। आदि-अनादि, पर-अपर और सत्-असत् का भेद प्रकृतिके सम्बन्धसे है। वह तत्त्व तो आदि-अनादि, पर-अपर और सत्-असत् से विलक्षण है। इस प्रकार भगवान‍्ने ज्ञेय-तत्त्वका जो वर्णन किया है, वह वास्तवमें वर्णन नहीं है, प्रत्युत लक्षक (लक्ष्यकी तरफ दृष्टि करानेवाला) है। इसका तात्पर्य ज्ञेय-तत्त्वका लक्ष्य करानेमें है, कोरा वर्णन करनेमें नहीं।

सन्तोंकी वाणीमें भी आया है कि न जाग्रत् है, न स्वप्न है, न सुषुप्ति है, न तुरीय है; न बन्धन है, न मोक्ष है आदि-आदि। कारण कि ये सब तो सापेक्ष हैं, पर तत्त्व निरपेक्ष है। निरपेक्ष भी वास्तवमें सापेक्षकी अपेक्षासे है। तत्त्व भी वास्तवमें अतत्त्वकी अपेक्षासे कहा जाता है; अत: उसको किस नामसे कहें? उसका कोई नाम नहीं है अर्थात् वहाँ शब्दकी गति नहीं है। शब्दसे केवल उसका लक्ष्य होता है*।

* यदि कहनेवाला अनुभवी और सुननेवाला सच्चा जिज्ञासु हो तो शब्दके द्वारा शब्दातीत, इन्द्रियातीत तत्त्वका भी ज्ञान हो जाता है—यह शब्दकी विलक्षण, अचिन्त्य शक्तिका प्रभाव है। परन्तु ऐसा होना तभी सम्भव है, जब केवल शब्दोंपर दृष्टि न रखकर तत्त्वकी तरफ दृष्टि रखी जाय। अगर तत्त्वकी तरफ दृष्टि नहीं रहेगी तो सीखनामात्र होगा अर्थात् कोरा वर्णन होगा, तत्त्व नहीं मिलेगा।

तत्त्व न प्रत्यक्ष है, न अप्रत्यक्ष है; न परोक्ष है, न अपरोक्ष है; न छोटा है, न बड़ा है; न अन्दर है, न बाहर है; न ऊपर है, न नीचे है; न नजदीक है, न दूर है; न भेद है, न अभेद है, न भेदाभेद है; न भिन्न है, न अभिन्न है, न भिन्नाभिन्न है। कारण कि ये सब तो सापेक्ष हैं, पर तत्त्व निरपेक्ष है। जैसे सूर्यमें न प्रकाश है, न अँधेरा है और न प्रकाश-अँधेरा दोनों हैं। कारण कि जहाँ प्रकाश है, वहाँ अँधेरा नहीं होता और जहाँ अँधेरा है, वहाँ प्रकाश नहीं होता, फिर प्रकाश-अँधेरा दोनों एक साथ कैसे रह सकते हैं? ऐसे ही तत्त्वमें न ज्ञान है, न अज्ञान है और न ज्ञान-अज्ञान दोनों हैं। वहाँ न ज्ञाता है, न ज्ञान है, न ज्ञेय है; न प्रकाशक है, न प्रकाश है, न प्रकाश्य है; न द्रष्टा है, न दर्शन है, न दृश्य है; न ध्याता है, न ध्यान है, न ध्येय है। तात्पर्य है कि तत्त्वमें त्रिपुटीका सर्वथा अभाव है। कारण कि त्रिपुटी सापेक्ष है, पर तत्त्व निरपेक्ष है। वास्तवमें जहाँ स्थित होकर हम बोलते हैं, सुनते हैं, विचार करते हैं, वहीं सापेक्ष और निरपेक्षकी बात आती है; तत्त्व वास्तवमें न सापेक्ष है, न निरपेक्ष है।

वह तत्त्व वास्तवमें अनुभवरूप है। उसको गीताने ‘स्मृति’ कहा है—‘नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा’ (१८। ७३)। स्मृति भी विस्मृतिकी अपेक्षासे है; परन्तु तत्त्वकी स्मृति विस्मृतिकी अपेक्षासे नहीं है, प्रत्युत अनुभवरूप है। कारण कि स्मृतिकी तो विस्मृति हो सकती है, पर अनुभवका अननुभव (विस्मृति) नहीं हो सकता। तत्त्वकी विस्मृति नहीं होती, प्रत्युत विमुखता होती है। तात्पर्य है कि पहले ज्ञान था, फिर उसकी विस्मृति हो गयी—इस तरह तत्त्वकी विस्मृति नहीं होती*।

* ज्ञान होनेपर नयापन कुछ नहीं दीखता अर्थात् पहले अज्ञान था, अब ज्ञान हो गया—ऐसा नहीं दीखता। ज्ञान होनेपर ऐसा अनुभव होता है कि ज्ञान तो सदासे ही था, केवल उधर मेरी दृष्टि नहीं थी। यदि पहले अज्ञान था, अब ज्ञान हो गया—ऐसा मानें तो ज्ञानमें सादिपना आ जायगा, जब कि ज्ञान सादि नहीं है, अनादि है। जो सादि होता है, वह सान्त होता है और जो अनादि होता है, वह अनन्त होता है।

अगर ऐसी विस्मृति मानें तो स्मृति होनेके बाद फिर विस्मृति हो जायगी! इसलिये गीतामें आया है—‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्’ (४। ३५) अर्थात् उसको जान लेनेके बाद फिर मोह नहीं होता। अभावरूप असत् को भावरूप मानकर महत्त्व देनेसे तत्त्वकी तरफसे वृत्ति हट गयी—इसीको विस्मृति कहते हैं। वृत्तिका हटना और वृत्तिका लगना—यह भी साधककी दृष्टिसे है, तत्त्वकी दृष्टिसे नहीं। तत्त्वकी तरफसे वृत्ति हटनेपर अथवा विमुखता होनेपर भी तत्त्व ज्यों-का-त्यों ही है। अभावरूप असत् को अभावरूप ही मान लें तो भावरूप तत्त्व स्वत: ज्यों-का-त्यों रह जायगा।

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