करण-निरपेक्ष तत्त्व
जिससे क्रियाकी सिद्धि होती है, जो क्रियाको उत्पन्न करनेवाला है, उसको ‘कारक’ कहते हैं। कारक छ: प्रकारके होते हैं—कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण। इन छहों कारकोंकी आवश्यकता सांसारिक क्रियाओंकी सिद्धिमें ही है। परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें कारकोंकी आवश्यकता नहीं है अर्थात् वहाँ कारक नहीं चलते। कारण कि परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति क्रियासे नहीं होती। तात्पर्य है कि सब कारक प्रकृतिमें हैं और प्रकृतिके कार्य हैं। प्रकृतिसे अतीत तत्त्वमें कोई कारक नहीं है। कारकोंमें प्रकृतिजन्य पदार्थ और क्रियाका आश्रय लेना पड़ता है, जिससे अभ्यासकी सिद्धि होती है। अभ्याससे एक नयी अवस्थाका निर्माण होता है, तत्त्वका अनुभव नहीं होता; क्योंकि तत्त्वमें अवस्था नहीं है। तत्त्वका अनुभव तो विवेकके द्वारा होता है। यह विवेक प्राणिमात्रको स्वत: प्राप्त है। परन्तु मनुष्यके सिवाय अन्य प्राणियोंमें जो विवेक है, उससे उनका शरीर-निर्वाह तो हो जाता है, पर तत्त्वज्ञान नहीं होता। कारण कि विवेकका उपयोग वे केवल शरीर-निर्वाहमें ही करते हैं। उससे आगे (शरीरसे अतीत तत्त्वमें) उनकी जिज्ञासा नहीं होती*।
* अन्य प्राणियोंमें यह विवेक स्थावरकी अपेक्षा जंगममें अधिक रहता है। जंगममें भी जलचरकी अपेक्षा थलचर प्राणियोंमें और थलचरकी अपेक्षा नभचर प्राणियोंमें अधिक विवेक रहता है। परन्तु उनमें यह विवेक शरीर-निर्वाहतक ही सीमित रहता है, जिससे वे खाद्य-अखाद्य, सरदी-गरमी, परिश्रम-आराम, संयोग-वियोग आदिकी भिन्नताको जान लेते हैं। परन्तु सत्-असत्, कर्तव्य-अकर्तव्यका विवेक उनमें जाग्रत् नहीं होता। कारण कि उनमें विवेकके योग्य बुद्धि नहीं है और अधिकार भी नहीं है। यह विवेक मनुष्यमें ही जाग्रत् होता है। कारण कि मनुष्यके सिवाय अन्य योनियाँ भोगप्रधान हैं। मनुष्य अपने विवेकको महत्त्व देकर शरीरसे अतीत तत्त्वकी प्राप्ति कर सकता है, जन्म-मरणके बन्धनसे छूट सकता है। अत: मनुष्यपर अपना उद्धार करनेकी विशेष जिम्मेवारी है; क्योंकि जिसके पास इनकम (आय) है, उसीपर इनकम टैक्स लगता है।
मनुष्य अपने विवेकका सदुपयोग करके, विवेकका आदर करके देवताओंसे भी ऊँचा उठ सकता है, भगवान्को भी अपने वशमें कर सकता है। परन्तु भोगेच्छाके कारण अपने विवेकका दुरुपयोग करके, विवेकका अनादर करके पशुओंसे भी नीचा गिर सकता है और चौरासी लाख योनियों तथा नरकोंमें जा सकता है*!
* मनुष्य होकर भी अपने विवेकका आदर न करनेसे जैसा पतन होता है, वैसा पतन पशुका भी नहीं होता! झूठ, कपट, बेईमानी, धोखेबाजी, अन्याय, हिंसा आदि पाप मनुष्य ही करता है, पशु नहीं करते। पशु नये पाप नहीं करते, प्रत्युत पूर्वजन्ममें किये गये पापोंका ही फल भोगकर उन्नतिकी ओर जाते हैं, पर मनुष्य सुख-लोलुपताके कारण नये-नये पाप करके पतनकी ओर जाता है। अपने विवेकको वह नये-नये पापोंकी खोज करनेमें ही लगा देता है। भोगासक्तिके कारण उसका विवेक इन्द्रियोंके भोगोंतक ही सीमित रहता है, उससे ऊँचा नहीं उठता—‘कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिता:’ (गीता १६।११)। इस प्रकार पशु तो अपने कर्मोंका फल भोगकर मनुष्ययोनिकी तरफ आते हैं, पर मनुष्य नये-नये पाप करके पशुयोनिसे भी नीचे (नरकोंमें) चले जाते हैं और जा रहे हैं! इसलिये ऐसे मनुष्यके संगको नरकवाससे भी बुरा कहा गया है—
बरु भल बास नरक कर ताता।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥
(मानस ५। ४६। ४)
कारण कि नरकोंमें तो पाप नष्ट होकर शुद्धि आती है, पर दुष्टोंके संगसे अशुद्धि आती है, पाप बनते हैं।
इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह अपने विवेकका आदर करे, विवेक-विरोधी कोई कार्य न करे।
प्राणिमात्रमें अपरा (जड़) और परा (चेतन) दोनों प्रकृतियाँ हैं। ‘अहम्’ अपरा प्रकृति है* और ‘जीव’ परा प्रकृति है।
* गीतामें भगवान्ने अपरा प्रकृतिके आठ भेद बताये हैं—पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार (७। ४-५)। इन सबमें बन्धनका मुख्य कारण ‘अहंकार’ ही है। पृथ्वी, जल, तेज आदिमें परस्पर बहुत तारतम्य होनेपर भी वे सब एक जातिके (अपरा) ही हैं। अत: जिस जातिकी पृथ्वी है, उसी जातिका अहंकार है अर्थात् अहंकार भी मिट्टीके ढेलेकी तरह जड़ है! इस रहस्यकी ओर विशेष लक्ष्य करानेके लिये ही भगवान्ने अहंकारको ‘क्षेत्र’ बताते हुए ‘एतत्’ पदका प्रयोग किया है—‘एतद्यो वेत्ति’ (१३। १)। इस प्रकार ‘अहम्’ को इदंतासे कहनेका तात्पर्य है कि यह अपने स्वरूपसे अलग है और जाननेमें आनेवाला है। कारण कि इदम् कभी स्वयं (स्वरूप) नहीं होता और स्वयं कभी इदम् नहीं होता। जीव भूलसे इस ‘अहम्’ के साथ एकता कर लेता है अर्थात् अहम्को अपना स्वरूप मान लेता है, जिससे उसका आकर्षण जड़ताकी ओर हो जाता है और वह जड़ताके वशमें हो जाता है।
अहम् और जीव अर्थात् जड़ और चेतनके सम्बन्धका ही नाम चिज्जड़ग्रन्थि है—
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई।
जदपि मृषा छूटत कठिनई॥
(मानस ७।११७।२)
जड़-चेतनकी यह ग्रन्थि मिथ्या है, सत्य नहीं है, क्योंकि जड़ और चेतन एक-दूसरेसे सर्वथा विरुद्ध हैं। चेतन प्रकाशक है, जड़ प्रकाश्य है। चेतन अपरिवर्तनशील है, जड़ परिवर्तनशील है। चेतन कभी मिटता नहीं, जड़ कभी टिकता नहीं। दोनोंका स्वभाव अलग-अलग है। परन्तु अलग-अलग स्वभाव होते हुए भी दोनोंका एक-दूसरेसे वैर-विरोध नहीं है। इतना ही नहीं, चेतन जड़का प्रकाशक है, सहायक है। असत् की सिद्धि भी सत्-रूप चेतनसे ही होती है। चेतन ही असत् को सत्ता देता है। हाँ, तत्त्वकी जिज्ञासाका असत् (जड़) से वैर है; क्योंकि जिज्ञासासे जड़के साथ सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। इसलिये एक दृष्टिसे तत्त्वकी अपेक्षा तत्त्वकी जिज्ञासा श्रेष्ठ है। भोगेच्छा तो संसार (पदार्थ और क्रिया)से सम्बन्ध जोड़ती है, पर जिज्ञासा संसारसे सम्बन्ध तोड़ती है। भोगेच्छामें जड़ता (अहंकार) की मुख्यता रहती है और जिज्ञासामें चेतनकी मुख्यता रहती है। तात्पर्य है कि मनुष्य जड़-अंशकी प्रधानतासे संसारकी, भोगोंकी इच्छा करता है और चेतन-अंशकी प्रधानतासे अपने उद्धारकी, मुक्तिकी, परमात्मतत्त्वकी इच्छा (जिज्ञासा) करता है।
मनुष्य जबतक जड़-अंश (अहंता) की प्रधानतासे संसारके भोगोंमें लिप्त रहेगा, तबतक उसको कभी परमशान्ति, परम आनन्द नहीं मिलेगा। ब्रह्माका पद मिल जाय तो भी उसको परमशान्ति नहीं मिलेगी। परिवर्तनशील वस्तुसे अपरिवर्तनशीलको शान्ति कैसे मिल सकती है? असत् से सत् की पूर्ति कैसे हो सकती है? परन्तु जब मनुष्य चेतनकी प्रधानताको लेकर (जड़ताका त्याग करते हुए) चलेगा, तब जड़-अंश (अहम्) मिट जायगा और शुद्ध चेतन रह जायगा। जड़-अंश मिटनेसे आसक्तिका सर्वथा अभाव हो जायगा। आसक्तिका सर्वथा अभाव होनेपर पूर्णता हो जायगी* अर्थात् वह कृतकृत्य, ज्ञातज्ञातव्य और प्राप्तप्राप्तव्य हो जायगा।
* जबतक आसक्तिका सर्वथा अभाव नहीं होता, तबतक ऊँची-से-ऊँची बातें कर सकते हैं, बढ़िया विवेचन कर सकते हैं, व्याख्यान दे सकते हैं, पुस्तकें लिख सकते हैं; परन्तु परमशान्तिकी प्राप्ति नहीं कर सकते।
वास्तवमें पूर्णता तो स्वत:सिद्ध है। जड़के सम्बन्धसे ही पूर्णताका अनुभव नहीं होता। जड़के सम्बन्धका अत्यन्ताभाव होनेपर, जड़से सर्वथा असंग होनेपर स्वत: पूर्णताका अनुभव हो जाता है, जो पहलेसे ही है। परन्तु केवल परमात्मतत्त्वकी, स्वरूपके बोधकी जिज्ञासा होनेसे; भगवान्के प्रेमकी, दर्शनकी अभिलाषा होनेसे ही यह होगा। तात्पर्य है कि जिज्ञासा होनेसे विवेक विशेषतासे जाग्रत् होगा, जिससे जड़तासे असंगता हो जायगी। असंगता होते ही जड़की निवृत्ति अर्थात् अहंकारका अभाव हो जायगा। अहंकारका अभाव होनेसे ममताका भी स्वत: अभाव हो जायगा* और अपने असंग स्वरूपका अनुभव हो जायगा। इसमें कोई कारक काम नहीं करेगा।
* जब चेतन जड़तासे सम्बन्ध जोड़ता है, तब उसमें ‘मैं-पन’ उत्पन्न होता है। शरीरमें मैं-पन और मेरा-पन (अहंता और ममता) दोनों होते हैं तथा अन्य पदार्थोंमें मेरा-पन होता है। परन्तु पदार्थोंको लेकर अपनेमें अभिमान करनेसे मैं-पन भी साथमें मिल जाता है और दृढ़ हो जाता है; जैसे—मैं धनवान् हूँ आदि। [ अपनेमें विद्या, बुद्धि, योग्यता आदिका आरोप करनेसे तो ‘अभिमान’ होता है और धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद आदिको लेकर अपनेमें बड़प्पनका आरोप करनेसे ‘दर्प’ (घमण्ड) होता है।] जड़-अंश हटनेसे मैं-पन और मेरा-पन नहीं रहते, स्वरूप रह जाता है। स्वरूपमें मैं-पन और मेरा-पन दोनों ही नहीं हैं।
सब कारकोंमें ‘कर्ता’ मुख्य है। कर्तामें चेतनकी झलक आती है, अन्य कारकोंमें नहीं। वास्तवमें ‘कर्ता’ नाम चेतनका नहीं है। यह माना हुआ कर्ता है— ‘अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते’ (गीता ३। २७)। इसलिये गीतामें जहाँ भगवान्ने कर्ममात्रकी सिद्धिमें पाँच हेतु (अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्टा और दैव) बताये हैं, वहाँ शुद्ध आत्मा (अपने स्वरूप)को कर्ता माननेवालेकी निन्दा की है कि उसकी बुद्धि शुद्ध नहीं है, वह दुर्मति है*।
* तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलं तु य:।
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मति:॥
(१८। १६)
कारण कि स्वरूपमें कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनों ही नहीं हैं—‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३। ३१)। जब स्वरूप कर्ता नहीं है तो फिर कर्ता कौन होता है? इसको भगवान्ने गीतामें कई प्रकारसे बताया है; जैसे—सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिके द्वारा ही होती हैं अर्थात् प्रकृति कर्ता है (१३।२९); सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणोंके द्वारा होती हैं; गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं अर्थात् गुण कर्ता हैं (३।२७-२८; १४।२३); गुणोंके सिवाय अन्य कोई कर्ता है ही नहीं (१४। १९); इन्द्रियाँ ही इन्द्रियोंके विषयोंमें बरत रही हैं अर्थात् इन्द्रियाँ कर्ता हैं (५। ९)। तात्पर्य है कि कर्तृत्व प्रकृतिमें ही है, स्वरूपमें नहीं। इसीलिये अपने चेतन स्वरूपमें स्थित तत्त्वज्ञ महापुरुष ‘मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’ ऐसा अनुभव करता है—‘नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्’ (गीता ५।८) तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो:। गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते (गीता ३।२८)। भगवान् भी कहते हैं कि जब मनुष्य गुणोंके सिवाय अन्य किसीको कर्ता नहीं देखता अर्थात् वह क्रियामात्रमें ऐसा अनुभव करता है कि गुणोंके सिवाय दूसरा कोई कर्ता नहीं है और अपनेको गुणोंसे बिलकुल असम्बद्ध अनुभव करता है (जो वास्तवमें है)१, तब वह मेरे स्वरूपको प्राप्त हो जाता है२।
१-स्वरूप (आत्मा) गुणोंसे सर्वथा रहित है—‘निर्गुणत्वात्’ (गीता १३। ३१)। गुण प्रकाश्य हैं, आत्मा प्रकाशक है। गुण परिवर्तनशील हैं, आत्मा अपरिवर्तनशील है। गुण अनित्य हैं, आत्मा नित्य है।
२-नान्यं गुणेभ्य: कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति॥
(गीता १४। १९)
गीतामें भगवान्ने कर्तापनमें प्रकृतिको और भोक्तापनमें पुरुषको हेतु बताया है*।
* कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते।
पुरुष:सुखदु:खानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते॥
(गीता १३।२०)
पुरुष (चेतन)को भोक्तापनमें हेतु क्यों बताया? सुख-दु:खका अनुभव अर्थात् भोग चेतनमें ही हो सकता है, जड़में नहीं। सुखी-दु:खी चेतन ही होता है। क्रिया तो जड़में होती है, पर क्रियाका फल (सुखी-दु:खी होना) पुरुषमें होता है। परन्तु वास्तवमें प्रकृतिस्थ अर्थात् अहम्में स्थित पुरुष ही सुख-दु:खका भोक्ता बनता है—‘पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान् गुणन्’ (गीता १३। २१) तात्पर्य है कि अहंकारका सम्बन्ध रहनेसे ही पुरुष सुख-दु:खका भोक्ता बनता है। यदि अहंकारका सम्बन्ध न रहे तो पुरुष सुख-दु:खका भोक्ता नहीं बनता अर्थात् वह सुखी-दु:खी न होकर अपने स्वत:सिद्ध आनन्दस्वरूपमें स्थित रहता है—‘समदु:खसुख: स्वस्थ:’ (गीता १४। २४)। अत: भोक्तापन भी केवल माना हुआ है, वास्तवमें नहीं है। तात्पर्य है कि चेतनमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व पहलेसे ही नहीं हैं, इसीलिये ये मिटते हैं*। यदि चेतनमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व होते तो चेतनके रहते हुए वे कभी मिटते ही नहीं।
* यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥
(गीता १८।१७)
जब स्वरूपमें कर्तृत्व ही नहीं है, ‘कर्ता’-रूपी कारकके साथ लेशमात्र भी सम्बन्ध नहीं है, तब इसका सम्बन्ध अन्य कारकोंके साथ कैसे होगा? अत: पहले साधकको सिद्धान्तसे यह निर्णय करना होगा कि मेरे स्वरूपमें कर्तृत्व-भोक्तृत्व, अहंता-ममता नहीं है। यद्यपि यह निर्णय बुद्धि (करण)में दीखता है, तथापि ‘ये मेरेमें नहीं हैं’—यह अनुभव स्वयंको होता है। स्वयंका यह अनुभव करना करण-निरपेक्ष साधन है। तात्पर्य है कि पहले बुद्धिसे विचार होता है। विचारके बाद बुद्धिका निर्णय होता है कि मेरेमें कारकमात्रका अभाव है। परन्तु इस अभावका अनुभव करनेवाला स्वयं है। स्वयंको होनेवाले इस अनुभवमें कोई करण नहीं है, प्रत्युत करणसे सम्बन्ध-विच्छेद है।
जिस जगह क्रिया होती है, उसको अधिष्ठान (अधिकरण)कहते हैं। परन्तु जहाँ स्वयं अधिष्ठान है, वहाँ क्रिया नहीं है अर्थात् स्वयं किसी भी क्रियाका अधिष्ठान नहीं है। स्वयंमें सबका आरोप होता है, क्योंकि आरोप होनेकी जगह तत्त्व ही है। तत्त्वके सिवाय आरोपित वस्तुकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है। इसलिये स्वयंको सबका अधिष्ठान, आश्रय, आधार, प्रकाशक कहा जाता है।
इस प्रकार स्वयंमें कर्ता, कर्म, करण, अधिकरण आदि कोई भी कारक नहीं है*। अत: स्वरूपका बोध अथवा परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति जड़ताके द्वारा नहीं होती, प्रत्युत जड़ताके सम्बन्ध-विच्छेदसे होती है।
* कारकोंमें कर्ता, कर्म, करण और अधिकरण—ये चारों तो क्रियामें विकृत (परिणत) होते हैं, पर सम्प्रदान और अपादान क्रियामें विकृत नहीं होते, प्रत्युत क्रियामें सहायकमात्र होते हैं, इसलिये इनमें कर्मकर्तृप्रयोग नहीं होता। जैसे, ‘सुपात्रको दान दिया’—यह सम्प्रदान कारक है। दान देनेसे दान लेनेवालेमें कोई विकृति नहीं आती। यदि कोई लेनेवाला न हो तो दान सिद्ध नहीं होता, इसलिये दानमें सहायक होनेसे इसको कारक कहा गया है। ऐसे ही ‘गाँवसे आया’—यह अपादान कारक है। गाँवसे आनेपर गाँवमें कोई विकृति नहीं आती। परन्तु आनेमें सहायक होनेसे इसको कारक कहा गया है।
कर्म चार प्रकारके होते हैं—उत्पाद्य, विकार्य, संस्कार्य और आप्य [ कहीं-कहीं निर्वर्त्य, विकार्य और प्राप्य—ये तीन प्रकार बताये गये हैं]। इनमेंसे ‘आप्य’ कर्ममें भी कोई विकृति नहीं आती; जैसे—‘मैंने धन प्राप्त किया’ तो धनमें कोई विकृति नहीं आयी।