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आध्यात्मिक प्रश्नोत्तर

सभीको कपड़ा उतारकर भोजन करना चाहिये। तीन बार गंगाजीमें स्नान करना चाहिये, शास्त्रोंके विचारसे कपड़ा पहने भोजन करना निषिद्ध है। वस्त्र नित्य धोना चाहिये। रेशमी, ऊनी कपड़े दूसरे परमाणुओंको फेंक देते हैं, इसलिये उन्हें कई दिनके लिये पवित्र माना गया है। शास्त्रका नियम है, धोतीके अतिरिक्त एक उत्तरीय पवित्र वस्त्र भी भोजनके समय रखना चाहिये।

प्रश्न—मृगचर्मको उत्तम क्यों माना है?

उत्तर—रोओंके सहित जो मृगचर्म होता है वह दूसरे परमाणुओंको ग्रहण नहीं करता है, इसलिये वह पवित्र होता है। ऋषियोंने जिसे पवित्र माना है, हम भी उसे पवित्र मानते हैं।

प्रश्न—यदि धर्ममें अधर्म और अधर्ममें धर्म मान लें?

उत्तर—दान लेनेवाला कुपात्र हो तो देनेवाला और लेनेवाला दोनों पापके भागी होते हैं। यहाँ दाता पुण्य करते हुए भी पापका भागी होता है। यदि कोई राजा हिंसक जीवोंको मारता है तो वह धर्म होता है। भगवान् अर्जुनसे कहते हैं—जैसा युद्ध तुझे मिला है, वैसा हर एकको नहीं मिलता है। युद्ध करना दुर्योधनके लिये पाप और अर्जुनके लिये पुण्य है। दुर्योधनके लिये पाप इसलिये कि वह दूसरेका हक हड़पकर युद्ध करना चाहता था। यदि वह युधिष्ठिरको राज्य देकर युद्ध करता तो वह उचित हो सकता था।

एक सत्यनिष्ठ धर्मात्मा थे। जंगलमें एक कुटियामें रहते थे। एक दिन कुछ बनिये डाकुओंसे भयभीत होकर कुटियाके पीछे वनमें छिप गये। डाकुओंके पूछनेपर उन धर्मात्माने बनियोंका पता बता दिया। इसलिये वे मुनि नरकको गये। सत्य बोलना दूसरोंका गला काटनेमें हेतु बना इसलिये अधर्म हुआ।

एक घोर वनमें एक पशु था, उसने ब्रह्मासे वर माँगा कि मैं वनके सभी जीवोंको खा जाऊँ। ब्रह्माने ऐसा वर देकर उसे अन्धा कर दिया। एक व्याघ्रने उस अन्धे पशुको मार डाला। यहाँ उस हिंसकको मारनेसे धर्म हुआ।

प्रश्न—याज्ञवल्क्य ऋषिने जीवन्मुक्तिका आनन्द लेते हुए भी गृहस्थाश्रम क्यों त्यागा?

उत्तर—आश्रमसे आश्रमको जाना चाहिये, यह न्याय है। दूसरोंके शिक्षार्थ उन्होंने गृहस्थाश्रमको छोड़कर संन्यास लिया, यह ठीक ही किया। जीवन्मुक्त होकर उनका सारे संसारको जीवन्मुक्त बनाना लक्ष्य था। राजा जनकके लिये कोई कर्तव्य नहीं था। वे सभी काम करते थे। याज्ञवल्क्य महात्मा थे, वे आदर्शके लिये एक आश्रमसे दूसरे आश्रमको गये। राजा जनक दूसरे आश्रममें नहीं गये। वे भी संन्यास लेनेके लिये तैयार हुए थे। तैयारीके समय उनकी स्त्रीने कहा कि यदि आपको कुछ प्राप्त करना है, तब तो संन्यास ले लें और यदि दूसरोंके लाभार्थ संन्यास लेते हैं तो आप मेरे लाभके लिये गृहस्थमें ही रहिये।

यदि याज्ञवल्क्य कुछ अनुचित करते तब तो ऐसी शंका ठीक थी, परन्तु उन्होंने आदर्शके लिये ऐसा किया था, इसलिये ऐसा ठीक था। जनकका गृहस्थाश्रममें रहना और याज्ञवल्क्यका संन्यास लेना उचित था।

प्रश्न—संन्यास लेनेमें अधिक आनन्द था?

उत्तर—ऐसी बात नहीं है। शिवजी गरुड़को उपदेश दे सकते थे, परन्तु उन्होंने पक्षीजातिके काकभुशुण्डिजीके यहाँ उन्हें भेजा। संन्यासियोंके लिये उन्होंने संन्यास लिया।

राजा अश्वपतिके पास छ: ऋषि जिनके दस-दस हजार शिष्य थे, गये। राजाने आदर-सत्कार किया, उन्हें बहुत रुपया दिया गया। इसपर उन्होंने इनकार किया। राजाने कहा—यदि आप मेरे धनको निषिद्ध समझते हैं तो यह ऐसा नहीं है, मेरा धन न्यायोचित है। मेरे राज्यमें चोरी, व्यभिचार, मदिरापान आदि न होनेसे यह पापका पैसा नहीं है, यह पवित्र धन है, आप स्वीकार कीजिये। ऋषियोंने कहा—हम इस छोटे धनके लिये नहीं आये हैं। हम ब्रह्मविद्या, ब्रह्मतत्त्वको जाननेके लिये आये हैं। राजाने कहा—मैं क्षत्रिय हूँ, मैं दानरूपमें आप ब्राह्मणोंको दे सकता हूँ। राजाने उन्हें उच्चासनपर बैठाकर ब्रह्मविद्याका उपदेश दिया, स्वयं नीचे बैठे। इस प्रकार ब्रह्मविद्याका उपदेश दिया।

मेरा अधिकार उपदेश देनेका नहीं है, क्योंकि मैं वैश्य हूँ और गृहस्थ हूँ। इसलिये आपकी सेवामें प्रार्थनारूपमें यह बातें कही जाती हैं। यदि आप कोई अच्छी बात समझें तो ले लें। विक्षेप साधकको होता है, सिद्धको नहीं, यदि सिद्धको हो तो वह सिद्ध नहीं है। राजा जनकके लिये कोई कर्तव्य नहीं था, परन्तु वे लोकसंग्रहके लिये सब काम करते थे।

प्रश्न—काम, क्रोध प्रारब्धवश होते हैं या लीलासे।

उत्तर—महापुरुषोंकी जानकारीमें ये होते हैं। पुलिसका अधिकारी सिपाहियोंको अपराधियोंको लानेके लिये भेजता है, वह सिपाही अधिकारीके सामने हाथ जोड़ता है और साधारण आदमियोंके यहाँ रोब दिखाता है। उसी प्रकार काम-क्रोधादि ब्रह्मको प्राप्त पुरुषोंके यहाँ चाकरकी तरह रहते हैं और साधारण आदमियोंके यहाँ शासककी तरह।

ज्ञानवान् सारी दुनियाको अपने स्वरूपमें देखता है। शीत-उष्ण, सुख-दु:ख, अनुकूलता-प्रतिकूलता ज्ञानी सभीको समान भावसे देखते हैं। ज्ञानी सुखमें सुखी और दु:खमें दु:खी नहीं होता। निन्दा-स्तुतिमें भी ज्ञानी समान भाववाला रहता है। ऐसी समता जिसमें है, वही ज्ञानी है। सुख-दु:खका फल है हर्ष-शोक। संसारके पदार्थोंका फल हर्ष-शोक है। अगर समझो, मेरा पुत्र मर गया, पर मुझे दु:ख नहीं हुआ तो फिर दु:खका ज्ञान ही होनेसे क्या आपत्ति है। समताका मतलब है कि न दु:खका असर न सुखका असर, किसी प्रकारका विकार नहीं होता।

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन् स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते॥
(गीता ६।२२)

परमात्माकी प्राप्तिरूप जिस लाभको प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मप्राप्तिरूप जिस अवस्थामें स्थित योगी बड़े भारी दु:खसे भी चलायमान नहीं होता।

दु:ख-सुख प्रतीत हो तो कोई बात नहीं, पर उसका विकार नहीं आना चाहिये। असर न आवे तो ज्ञानी ही है। हर्ष-शोक न हो तो फिर कोई आपत्ति नहीं, चाहे जितने दु:खके निमित्त आयें। परमात्मामें स्थिति होनेपर ज्ञानी उनसे रहित हो जाता है और वह हर्ष-शोक नहीं पाता। सम रहना बड़ा मूल्यवान् है, मिट्टी-पत्थर सब समान हो जाय तो फिर कोई आपत्ति नहीं।

प्रश्न—दूसरोंके दु:खको ज्ञानी कैसे दूर करे, जब उसके लिये सब सम है।

उत्तर—भगवान् कहते हैं कि मुझे सब समदर्शी कहते हैं, पर मैं भजनेवालेको भजता हूँ न भजनेवालेको नहीं भजता, यह भगवान् की विषमता नहीं मानी जाती है।

ज्ञानीकी सारी क्रियाका त्याग और ग्रहण न्याययुक्त है। जब समझता है कि न्याययुक्त है तो वह करता है। अपने शरीरकी बीमारीको ठीक करनेकी कोशिश करनेपर भी यदि प्रतीकार न हो तो भी वह न्याय है। दु:ख आता है तो उपचार भी न्याय है। अज्ञानीकी चेष्टा अन्याययुक्त होती है। ज्ञानीका कर्म न्याययुक्त है। जनकादिने भी न्याययुक्त किया।

महात्माकी अपने और दूसरेके शरीरमें समबुद्धि रहती है। पर उनको व्यवहार वैसे ही करना चाहिये जिससे दूसरोंको शिक्षा मिले। दुनियामें मान सभी चाहते हैं, पर ज्ञानीको दुनियाको सिखाना है कि ये सब त्याज्य हैं, भोग सिखानेकी तो कोई आवश्यकता ही नहीं है। जिसकी आवश्यकता नहीं उसका त्याग करना, सिखाना ज्ञानीका कार्य है। ज्ञानीको चाहिये कि यह बताये कि इत्र आदि पेशाबके तुल्य हैं। साधकके लिये जो उपयोगी बात हो वह दुनियाको सिखाये। जिससे दुनियाको ज्ञान हो वही बात सिखाये। वे फँसे तो पड़े ही हैं, उन्हें तो छुटकारेका उपाय ही सिखाना है।

राजाको प्रजाका, भर्ताको स्त्रीका, गुरुको शिष्यका पाप भोगना पड़ता है। वास्तवमें पापका भागी वह होता है जो दूसरेको शिष्य बनाकर सेवा कराता है और शिष्य अपात्र रहता है तो उस गुरुको पाप लगता है। स्त्रीको भर्ताका, प्रजाको राजाका, पुत्रको पिताका, शिष्यको गुरुका पाप नहीं लगता, क्योंकि स्त्री, प्रजा, पुत्रादि दूसरेके आधीन हैं। यदि स्त्री आज्ञा न माने तो ऐसी स्त्रीको छोड़ देना चाहिये। ऐसे प्रजा, शिष्यादि जो आज्ञापालन न करें तो उन्हें त्याग देना चाहिये। स्त्री-पुत्रादि यदि अपने पति, पिताको कुमार्गमें जाते देखें तो उन्हें सुमार्गमें लानेकी चेष्टा करनी चाहिये।

प्रश्न—गीताको वेदसे श्रेष्ठ माननेपर शूद्र और स्त्रीका पढ़नेका, सुननेका अधिकार है या नहीं?

उत्तर—वेद ब्रह्माके श्वास हैं। इतिहास और पुराण बनाये गये हैं। महाभारत इतिहास है। गीता महाभारतके अन्तर्गत है। कोई कहता है कि उनका सुननेका अधिकार है और कोई पढ़ना और सुनना दोनोंका अधिकार मानते हैं।

कुछ वर्ष पहले ऋषिकेशमें करपात्रीजी महाराजमें और मालवीयजीमें सभीको पढ़ने-सुनने और केवल सुननेके अधिकारमें बहुत शास्त्रार्थ हुआ। दोनों आदमियोंने शास्त्रोक्त बहुत प्रमाण दिये। मुझे मध्यस्थ बनकर इसका निर्णय करनेके लिये पूछा गया। मैंने बहुत इनकार किया। मुझे करपात्रीजीने हृदयकी बात कहनेके लिये शपथ दी। मैंने कहा, मालवीयजीका कहना शास्त्रोक्त है और करपात्रीजीका भी कहना शास्त्रोक्त है, इसलिये जो जैसा माने उसके लिये वही ठीक है। कोई शूद्र कहता है कि मेरा पढ़ने, सुननेमें अधिकार है तो उसका कहना ठीक है, मैं कहूँगा कि तुम्हारा अधिकार है और यदि वह कहेगा कि मेरा केवल सुननेका अधिकार है तो मैं कह दूँगा, ठीक है।

मैं तो ऐसा मानता हूँ कि जो गीताका भक्त है, उसका पढ़ने-सुननेका अधिकार है। अर्जुनको निमित्त बनाकर सबके लिये यह गीता बनायी गयी है।

स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।

यहाँ स्त्री और वैश्यको उच्च बतलाकर शूद्रको उससे नीचा बतलाया गया है ‘तथा’ शब्दसे अर्थ अलग हो जाता है।

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