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ध्यानका महत्त्व

प्रवचन—दिनांक २८/४/४०, प्रात:काल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम

संसारका अभाव करके मनको एकदम भगवान‍्में लगा देवे। सत्यको धारण करनेवाली बुद्धि अचल होती है। संस्कारोंका निरोध होनेपर समाधि होती है। बुद्धिमें तीन बात आनेपर यह बात समझमें आती है। यदि बुद्धि पवित्र हो जाती है तो सब बात समझमें आ जाती है। बुद्धि निष्कामभावसे पवित्र होती है। उससे भी ज्यादा नाम-जपसे होती है। ध्यानसे स्थिर होती है। सत्शास्त्रोंके अध्ययनसे तीक्ष्ण हो जाती है। ये तीन बातें आवश्यक हैं। श्रवण, मनन, निदिध्यासनकी आवश्यकता है, यह सब एक ही बात है। भजन, ध्यान, सत्संग—इन तीनोंसे बुद्धि तीक्ष्ण, स्थिर और पवित्र हो जाती है। साधनोंमें वैराग्य और उपरामता इन दोनोंका होना बहुत आवश्यक है। शास्त्राध्ययन न हो तो गीता तो पढ़ लो। वैराग्य जब-जब हुआ, तब-तब ध्यानमें और किसी भी बातकी कमी नहीं रही। उपरामताकी जाति वैराग्य है। वैराग्य होकर उपरामता होती है। पवित्र देशमें अपना आसन लगाना चाहिये। यह भूमि बड़ी अच्छी है, स्वाभाविक वैराग्य है, यहाँ स्वाभाविक उपरामता है। आसनके लिये रेणुकाका आसन स्थिर और सुखपूर्वक होना चाहिये। आरामसे हो नहीं तो हमारा ध्यान आसनपर जायगा, विघ्न बहुत आते हैं। चंचलता और आलस्यको निकाल डालो, फिर ध्यान होगा। आलस्य निद्राके अन्तर्गत आता है। भजन, ध्यान, सत्संगसे सभी विघ्न नष्ट हो जाते हैं। विवेकपूर्वक जो मनन है, वह आलस्यको खा जाता है। नाम-जप विक्षेपको खा जाता है। जैसे साबुनसे कपड़ा साफ हो जाता है, वैसे नाम-जपसे मन साफ हो जाता है। फिर उपरामता और वैराग्य हो जाते हैं, फिर विघ्न तो ठहर ही नहीं सकते। नाम-जप मनसे, जीभसे, होंठसे हो सकता है। जिह्वासे, श्वाससे, आँख, नाक, बन्द करके अनहद शब्दसे जो शब्द होता है, उसमें नामका सम्बन्ध जोड़ दे, फिर सुषुम्नासे सम्बन्ध जोड़ दे तो वह भी श्रेष्ठ है। जो मनके संकल्पसे हो, वह मानसिक नाम-जप है। यह क्रमसे एक-एकसे श्रेष्ठ है। स्वतन्त्र मनसे जप करना बहुत कठिन है।

जैसे आप भोजन करते हैं, पर मन कुछ और काम करता है और उन संकल्पोंकी जगह रामकी आकृतिको देखें, यदि यह न हो तो ‘रा’ और ‘म’ को वर्णरूपसे देखें, श्वासके साथ एक बार भी कर सकते हैं, बार-बार भी कर सकते हैं। अलग-अलग विधि है, जैसे जो कर सके वही ठीक है। जब साकारका ध्यान हो तब अनुलोम-प्रतिलोम हो जाता है। जब निर्गुणका विलय हो तो सूक्ष्मरूपसे कारणमें विलीन होकर संसार समाप्त हो जाता है। फिर परमात्मा ही रह जाता है। संसारका अभाव होकर प्रकाश दिखायी देता है, फिर ज्ञानमें, चिन्मयमें, फिर ज्ञानसे चेतनमें विलीन हो जाते हैं। फिर साकारमें, चिन्मयमें होते हैं, फिर प्रकाशमें तथा प्रकाशसे तेजोमय होकर आँखोंका विषय हो जाते हैं। फिर साक्षात् स्वरूपसे भगवान् दर्शन देते हैं।

ब्रह्म क्या वस्तु है, ब्रह्मको समझनेके लिये आनन्दको विशेष्य बनाकर समझना चाहिये। ब्रह्मके सोलह विशेषण हैं। आनन्द-ही-आनन्द, जितने नाम बताये वे सब निर्गुणके विशेषण हैं।

पूर्ण आनन्द, अपार आनन्द, शान्त आनन्द, घन आनन्द, अचल आनन्द, ध्रुव आनन्द, नित्य आनन्द, बोधस्वरूप आनन्द, ज्ञानस्वरूप आनन्द, परमानन्द, महान् आनन्द, अत्यन्त आनन्द, चिन्मय आनन्द, अनन्त आनन्द, सम आनन्द, केवल आनन्द।

इसका भाव समझना चाहिये। आनन्दके सिवाय कुछ नहीं है। इस बातका निश्चय करके बुद्धि ध्यान करते-करते ध्येयाकार हो जाती है। उसके बाद कुछ नहीं रहता, इस प्रकार भगवान् का ध्यान करे। फिर संसारमें शरीर पड़ा रहे, उसको कुछ भी नहीं सूझता। वह तो उस अमरपदको प्राप्त हो जाता है, जिसकी श्रुति-स्मृति आदि महिमा गाते हैं।

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