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॥ श्रीहरि:॥

अच्छे आचरणोंकी महत्ता

प्रवचन—दिनांक २३/४/४०, वैशाख कृष्ण २, संवत् १९९६, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम
किसी भी आदमीकी, किसी भी मत-मतान्तरकी निन्दा नहीं करनी चाहिये, यह एक बड़ी ऊँची बात है। यह भी नहीं कहना चाहिये कि सब कुछ अच्छा ही है। इस विषयमें जितना भी कम बोले उतना ही अच्छा है। जितना भी अधिक बोला जायगा उतना ही अधिक फँसाव होगा। अपने-आपको जो अवगुण मालूम पड़ते हैं उनका अधिक सुधार होता है। मुझे आपने घरमें प्रणाम करते देखा तो आपने भी प्रणाम शुरू किया, किन्तु यदि मैं तुम्हें कहूँ कि प्रणाम करना चाहिये और मैं प्रणाम नहीं करता तो आप मनमें सोचेंगे कि प्रणाम करना है तो बहुत अच्छा किन्तु असर नहीं पड़ेगा।

ब्राह्मी पत्तीके लिये कहा गया कि यह बुद्धिवर्द्धक है, आपको सेवन करना चाहिये। आप क्यों नहीं करते? मैं तो आलस्यसे ही नहीं करता तो हमें आलस्यसे कहाँ फुरसत है। केवल कहना इसी तरहका है। दूसरा, स्वयं काममें लाना और कहना, तीसरा, स्वयं काममें लाना और कहना कुछ नहीं। बद्रिकाश्रम आदिमें बहुत-से ऋषि लोग तपस्या करते थे, किन्तु वे उपदेश, प्रवचन कुछ भी नहीं करते थे। कोई आकर उन्हें पूछे और वे उपदेश दें तो दूसरी बात है।

आचरणमें लानेवाला तो कोई भी नहीं दीखता। जिस तरह भगवा वेषवालोंमेंसे एक असली साधुको पहचानना कठिन है। इसी तरह इन प्रवचनकर्ताओंमें भी असलियत कहाँतक है, कुछ भी मालूम नहीं होता। इस असलियतके मालूम न होनेके कारण हम लोगोंपर असर नहीं पड़ता। जिस तरह ‘थोथा चना बाजे घना’ है इसी तरह वे बोलते तो बहुत हैं, किन्तु असलियतका पता लगाना बहुत ही कठिन है। वे लोग स्वयं ही जब उन बातोंको काममें नहीं लाते तो और दूसरे सुननेवाले कैसे उन्हें कार्यमें लायेंगे। इसीलिये हमारे ऋषि-मुनि किसीको उपदेश देनेके लिये नहीं जाते थे, अपितु एकान्तमें बैठकर अपने साधनकी सिद्धिमें तत्पर रहते थे।

हरेक पर्वपर साधु-महात्माओंको अन्न, वस्त्र, ब्राह्मणोंको रुपयोंका दान दिया जाय तो बहुत ही अच्छा है। नकद रुपये ब्राह्मणोंको ही देना चाहिये, वे ही पात्र हैं। साधुओंको आवश्यकतानुसार वस्त्र, अन्न, पुस्तक, यात्राके लिये टिकट आदि ही देना चाहिये। पवित्र आहार-विहारवालोंको दान देना बहुत ही अच्छा है। मांस-मदिरापान करनेवाले कुपात्रको दान नहीं देना चाहिये। अपनेको अपना कर्तव्य समझकर उसे सात्त्विकभावसे देना चाहिये। उसमें किसी तरहकी कामना नहीं रखनी चाहिये। सोमवती अमावस्या, व्यतीपात, एकादशी, पूर्णिमा—इस कालमें दान देना बड़ा ही अच्छा है। पात्र—ब्राह्मण हो, विद्वान् हो, आचरण उत्तम हो, ऐसे ब्राह्मण सब चीजोंको ग्रहण करनेके पात्र हैं। दान, यज्ञ आदि जितने भी यहाँ किये जाते हैं, कई गुना हो जाते हैं। इसलिये खूब दें, खूब भजन-ध्यान करें।

सेवा—साधु-ब्राह्मणोंकी, अनाथोंकी, गरीबोंकी और बीमारोंकी सेवा करनी चाहिये।

संयम—वस्त्र पहननेमें, भोजनमें सब इन्द्रियोंका और मनका संयम करना चाहिये।

सत्संग—सत्शास्त्रोंका पठन, साधु पुरुषोंका संग करना सत्संग है।

साधन—भजन-ध्यान आदि खूब जोरसे मन लगाकर करना चाहिये।

इस प्रकार ये चार बातें बड़ी ही उपयोगी हैं फिर इस तरहकी पवित्र भूमि है। जो आदमी कालके अनुसार कार्य करे, वह कालको जीत सकता है। बुद्धिसे परमात्माका सर्वत्र निश्चय, वाणीद्वारा नाम-जप, कानके द्वारा भगवान् की कथा सुनना, मनसे भगवान् का स्मरण करना चाहिये। हम इतनी दूरसे चलकर आते हैं, इसलिये खूब प्रेमसे और उत्साहसे सुनना चाहिये। जो बात सुने, उसका मनन करता जाय। नाम-जपमें जिह्वाको लगा दे और कानोंसे सुने, मन सुननेकी तरफ ही रहे। मन तो एक ही काम करता है। वह एक समयमें दो काम नहीं करता। परमात्माका मनसे मनन करना चाहिये। किसीकी निन्दा, स्तुति नहीं करनी चाहिये। यदि आदत पड़ गयी हो तो अपनी निन्दा जितनी कर सके करे और स्तुति ईश्वरकी चाहे जितनी करे वह कम ही है। इसी तरह अपनी आदतकी पूर्ति करनी चाहिये। सदा, सर्वदा भगवान् के नामका जप और कीर्तन तथा नियमोंका पालन करते रहनेसे बड़ा लाभ है।

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