Hindu text bookगीता गंगा
होम > सत्संग की मार्मिक बातें > आनन्दके ध्यानकी विधि

आनन्दके ध्यानकी विधि

प्रवचन—दिनांक २६/४/४०, प्रात:काल ८.१५ बजे, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम

प्रात:काल स्वाभाविक ही भगवान् का ध्यान होना चाहिये। इस समय स्वाभाविक ही वृत्तियाँ सात्त्विक हैं, हवामें शान्ति है। यह हवा ध्यान करनेके लिये उपदेश दे रही है। गंगाजीसे स्वाभाविक शान्ति मिलती है। उनका दर्शन सहायक है। चारों ओर वन और पहाड़ ही दीखता है। यहाँ साधुलोग भजन-ध्यान करते हैं। ऋषि-महात्मा वनोंमें ध्यान-भजन करते थे और करते हैं। छायामें सबसे उत्तम वटवृक्षकी छाया है। गंगाकी रेणुका अति पवित्र है, सभी साज पवित्र हैं। गंगातट, ऊपर वटवृक्ष, इसमें स्वाभाविक ध्यान लगना चाहिये। इसमें दो चीज बाधक हैं, निद्रा और विक्षेप। विक्षेपके नाशके लिये नाम-जप और आलस्यके नाशके लिये विवेक है। सत्संगमें जो बात सुनी जाय, महापुरुषोंके द्वारा गीताके भावोंको सुने हुएका मनन करनेसे निद्रा नहीं आ सकती है। आलस्य-प्रमादकी उसमें गुंजाइश नहीं है। इस वायुसे बड़ा वैराग्य होता है और शान्ति मिलती है। शान्तिका भाव करनेसे शान्ति मिलती है। मुझे तो प्रत्यक्ष शान्ति मिलती है।

प्रथम ऐसा आसन लगाना चाहिये, जो सुगम हो। पैर दर्द करनेपर आसन बदल लेना चाहिये। एक-दूसरेको स्पर्श नहीं करना चाहिये, इससे विक्षेप होता है। ऐसा भाव करना चाहिये कि मेरी परमात्मामें सदाके लिये स्थिति हो जायगी। परमात्मतत्त्वके समझनेपर उसीको प्राप्त हो जाऊँगा, मुक्ति हो जायगी। यहाँ कोई मनुष्य-समुदाय नहीं है, शब्द नहीं है, आलस्य आता हो तो नेत्र खोलकर और नहीं आता हो तो नेत्र बन्द करके ध्यान करना चाहिये। मनके संकल्पोंको रोकना मनको बन्द करना है। मनके संकल्परहित हो जानेपर उसके भीतर विचारोंका अभाव हो जाता है। चिन्तनका कोई प्रयोजन नहीं है। स्फुरणारहित होना चाहिये।

संसार स्वप्नवत् है। स्वप्नमें जो देखा जाता है, वह किसी कालमें और स्थानमें नहीं है, केवल एक सच्चिदानन्द परमात्मा ही व्याप्त हो रहा है। नारायणके उच्चारणसे समझना चाहिये कि उसके सिवाय और कुछ नहीं है। आनन्द कहनेपर आनन्दका ध्यान करना चाहिये। उस समय मस्त हो जाना चाहिये। आनन्द कहनेसे आनन्द बढ़ जाता है। उसका प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहिये।

युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी विगतकल्मष:।
सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते॥
(गीता ६।२८)

वह पापरहित योगी इस प्रकार निरन्तर आत्माको परमात्मामें लगाता हुआ सुखपूर्वक परब्रह्म परमात्माकी प्राप्तिरूप अनन्त आनन्दका अनुभव करता है।

प्रत्यक्ष देखनेमें कुछ कठिन नहीं है। आनन्दके ध्यानसे आनन्दको प्राप्त हो जाता है। आनन्दमय, पूर्णानन्द, आनन्द-ही-आनन्द, अहा! कैसा आनन्द है, इस शब्दके उच्चारणसे ऐसा मालूम होता है, मानो इसकी बाढ़ आ गयी है। हमारे बाहर-भीतर सब जगह आनन्द-ही-आनन्द है।

बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्॥
(गीता १३।१५)

वह चराचर सब भूतोंके बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर, अचररूप भी वही है और वह सूक्ष्म होनेसे अविज्ञेय है तथा अति समीपमें और दूरमें भी स्थित वही है।

यह संसार परमात्माका स्वरूप है। चर-अचर सबमें परमात्मा है। वास्तवमें परमात्मा अनादि और नित्य है, ऐसा समझना चाहिये। संसार और शरीर जो प्रतीत होता है, उसे अनित्य समझकर उसका त्याग कर देना चाहिये।

देखो कैसी शान्ति है, प्रसन्नता है, अलौकिक आनन्द है। मन, इन्द्रिय, रोम-रोममें अलौकिक चेतनता है। यह परमात्माका स्वरूप है।

यहाँ शीतल-मन्द-सुगन्धित वायु चल रही है, यह शुभ लक्षण है। चारों तरफ शान्ति फैल रही है। शान्ति भगवान् का रूप है। इसीलिये जगह-जगह कहा है—‘स शान्तिमधिगच्छति’ शान्तिकी यदि वृद्धि हो तो मानना चाहिये कि भगवान् की प्राप्तिका कुछ साधन हो रहा है।

प्रसन्नता—दूसरी चीज प्रसन्नता है। शान्तिके उपरान्त प्रसन्नता प्राप्त होती है, आनन्द होता है, सुख होता है।

परमात्माका स्वरूप शान्तिप्रद और आनन्दस्वरूप है। भगवान् का जो चेतन स्वरूप है वह सुखमय है, ज्ञानस्वरूप है, आनन्दरूप है। इस प्रकार ध्यान करे। परमात्माका ध्यान ही ध्येयकी प्राप्ति करवाता है। शास्त्रोंद्वारा और महात्माओंद्वारा बतलाये हुए और मनद्वारा चिन्तन किये हुए स्वरूपका ही तो ध्यान किया जाता है।

बादलमें आकाश बाहर-भीतर सर्वत्र व्याप्त है, इसी प्रकार परमात्मा भी सर्वत्र व्याप्त है। आकाश जिस तरह अनन्त है, इसी तरह ब्रह्म भी अनन्त है। आकाशकी भी सीमा आ जाती है, किन्तु भगवान् का अन्त नहीं आता। आकाशका तो समय पा करके अन्त भी होता है, किन्तु भगवान् सत्य हैं, नित्य हैं, आकाश जड़ है और परमात्मा चेतन है। आकाश शून्य है, परमात्मा आनन्दमय है। एकान्तमें आनन्दकी भावना करे, वाणीसे आनन्दका उच्चारण करे, बुद्धिमें निश्चय करे कि सर्वत्र आनन्द-ही-आनन्द है, वह आनन्द ही चेतन है। मनसे आनन्दका ऐसा मनन करे कि अपने-आपको भूल जाय। शरीरकी सुधि न रहे, फिर सर्वत्र आनन्द-ही-आनन्द रहेगा। वाणीमें और मनमें दोनोंमें ही आनन्दका समुद्र हिलोरें लेने लगे। इस तरहका भाव करनेसे प्रत्यक्ष आनन्द होता है। वास्तवमें आनन्द है, इसीलिये आनन्दका अनुभव होता है। वस्तुत: यह आनन्द पूर्ण है।

ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म पुरुषोत्तम सब प्रकारसे सदा, सर्वदा परिपूर्ण है। यह जगत् भी उस परब्रह्मसे ही पूर्ण है; क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तमसे ही उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार परब्रह्मकी पूर्णतासे जगत् पूर्ण है, इसलिये भी वह परिपूर्ण है। उस पूर्ण ब्रह्ममेंसे पूर्णको निकाल लेनेपर भी वह पूर्ण ही बच रहता है।

परमाणुरूपमें, बादलके रूपमें, बूँदके रूपमें, बर्फके रूपमें सर्वत्र जल-ही-जल है, इसी तरह वह चिन्मय परमात्मा ही परमात्मा है। इस प्रकार समझकर उसका ध्यान करे, आनन्दका अनुभव करे, उसे प्रत्यक्ष शान्ति और ज्ञानका अनुभव होगा। उसके पास तो आनन्द-ही-आनन्द शेष रहता है। इस प्रकारकी यह स्थिति सत्संगसे, वैराग्यसे, उपरतिसे, जपसे और पुन:-पुन: इस तरहकी आवृत्तिसे बढ़ती है।

इन चार वस्तुओंकी आवश्यकता है—वैराग्य, सत्संग, उपरति और नाम-जप। सर्वप्रथम रागका अभाव होता है, रागके अभाव होते ही वैराग्य और फिर उपरामता होती है, फिर परमात्माका ध्यान अपने-आप ही होता है। इसी तरह एकान्तमें बैठकर नामका जप करनेसे हमारा मन शुद्ध, पवित्र होकर तन्मय हो जाता है, इसलिये शान्तिसे ध्यान करनेपर आलस्य और विक्षेप नहीं आ सकते।

प्रभुका यह ऐसा आनन्दमय स्वरूप है। आनन्द-ही-आनन्द है। खूब विचार करके देखो, सर्वत्र आनन्द-ही-आनन्द है। यह जो आनन्द मिल रहा है, वह उस आनन्द-समुद्रकी बूँदकी छायाका एक अणुमात्र है। यह आनन्द ही परमात्माका रूप है। सर्वत्र आनन्द-ही-आनन्द है। आनन्द, आनन्द, आनन्दमय, आनन्दमय, आनन्दमय।

जैसे बर्फके ढेलेको गंगामें प्रवेश करा दिया जाय तो उसके चारों ओर जल-ही-जल है। बर्फका ढेला भी जल ही है। इसी प्रकार यह स्थिर शरीर बर्फके समान है। जलके समान परमात्मा हमारे चारों ओर है। आकाश निराकार है। बादलके बाहर-भीतर आकाश है, उसी प्रकार मेरे बाहर-भीतर परमात्मा है। परमात्मा चिदानन्दघन विज्ञानानन्दघन है। हमारे शरीरमें ज्ञान है, उससे अधिक अन्त:करणमें और उससे अधिक द्रष्टाके स्वरूपमें यह चेतनता है। जिसका आत्मा परमात्माको प्राप्त हो गया है, जिसके शरीरपर दु:ख आनेपर वह विचलित न हो, वह जीवन्मुक्त है। जीवित समयमें शरीर काटनेपर, जलानेपर किसी प्रकार विचलित न हो, यह जीवन्मुक्तकी परीक्षा है।

अगला लेख  > आध्यात्मिक प्रश्नोत्तर