आनन्दके स्वरूपका वर्णन
प्रवचन—दिनांक ३०/४/४०, प्रात:काल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम
निराकारके ध्यानमें वैराग्य और उपरामताकी बड़ी आवश्यकता है। इन दोनोंके प्राप्त होनेपर समाधि आदि अपने-आप ही लग जाती है। वैराग्य स्वत: हो जाय तो ध्यानके लिये चेष्टा नहीं करनी पड़ेगी। हमारे तो थोड़ी-सी ही उपरामता हो जाती है तो स्वत: ही ध्यान हो जाता है। जब उपरामता और वैराग्य नहीं है तो बहुत प्रयत्न करनेपर भी मन स्थिर नहीं होता। वैराग्य होता है तो संसारके पदार्थोंके चित्र स्वत: ही शान्त हो जाते हैं। मेरे तो किसी समय इस तरहकी झलक रास्ते चलते-चलते आ जाती तो मन करता कि यहीं बैठ जायँ, लोक-लाजसे नहीं बैठते फिर दूसरी जगह जाकर बैठकर ध्यान करते। ध्यानके समान साधन नहीं है। यहाँ वैराग्य हो जाता है। यह स्थान भोगीके लिये अनुकूल नहीं है। जितने भोग-पदार्थ हैं, साधकके लिये बाधक हैं, भोगीके लिये आराम देनेवाले होते हैं। मेरी स्वाभाविक वृत्ति रहती है कि कहीं तीर्थपर जाता हूँ तो देखता हूँ कि ध्यानके लिये यह स्थान कैसा है। इस बार ७,००० मील घूमे, इस तरहका स्थान कम ही मिला। यह भूमि उत्तराखण्डकी तपोभूमि बड़ी पवित्र और एकान्त है। तीनोंकी ही आवश्यकता है। सम्भव है, यहाँ पूर्वसमयमें ऋषियोंने तपस्या की होगी। न जाने इस भूमिमें क्या है? न जाने गंगाजीकी जो हवा है उसमें करामात है। सम्भव है, महापुरुषोंने तपस्या की होगी। यह आश्रम ही ऋषियों-जैसा है। बहुत वर्षोंसे देखता हूँ, यह मालूम देता है कि यह जगह ऋषिसेवित है। जैसे कोई हिंसक जगह होती है तो वहाँ बैठनेसे हिंसाके परमाणु आ जाया करते हैं। हमलोग ध्यान करनेके लिये आये हैं। हमारे सिवाय यहाँ कौन आता है। नजर उठाकर देखा जाय तो चारों तरफ वन-ही-वन दिखायी देता है। वटवृक्षका दृश्य भी बड़ा उत्तम है, गंगाकी ध्वनि मानो ब्रह्मचारी वेदका पाठ करते हों। रेणुकाका आसन भी उत्तम है।
यहाँ सात्त्विकता भरी है। वायु भी सहायक हो जाती है। इसमें दो बात मिलती है आरोग्यता और वैराग्य। भोग और आरामकी दृष्टिसे विचार किया जाय तो थोड़ी तकलीफ हो सकती है। असली चीज वैराग्य ही है। विषयभोग तो कुत्तेकी योनियोंमें भी है। मखमलके गद्देपर सोनेपर हमें जो आनन्द मिलता है, मैं अनुमान करता हूँ कि गधेको राखपर लेटनेसे कुछ कम नहीं मिलता। आरामकी दृष्टिसे मखमल और राखमें क्या अन्तर है, केवल मनकी कल्पना है। प्रत्यक्षमें देखिये, मनके मानेकी ही तो बात है। सबके बालोंका शौक अलग-अलग है। किसी एक प्रकारकी हजामतमें सुख मिलता तो दुनिया उसी तरहकी हजामत बनवाती। ऐसे ही सारे पदार्थोंके बीचमें यही बात है। वस्त्रोंकी ओर दृष्टि डालते हैं तो हमारी दूसरी, अमेरिकावालोंकी दूसरी, काबुलवालोंकी दूसरी है, कौन-सी अच्छी है? ऋषिलोग वल्कल वस्त्र पहनते थे, उनको उसमें ही आनन्द था। संसारमें सुख तो है ही नहीं, वैराग्यमें सुख है, राग-द्वेष तो त्याग करनेकी चीज है। वैराग्यके सुखका सबको अनुभव नहीं है। महात्मालोग कहते हैं, रागसे लाखों गुना सुख वैराग्यमें है, इससे भी ज्यादा ध्यानमें है, ध्यानसे भी ज्यादा सुख परमात्माकी प्राप्तिमें है।
बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम्।
स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्नुते॥
(गीता ५।२१)
बाहरके विषयोंमें आसक्तिरहित अन्त:करणवाला साधक आत्मामें स्थित जो ध्यानजनित सात्त्विक आनन्द है, उसको प्राप्त होता है; तदनन्तर वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्माके ध्यानरूप योगमें अभिन्नभावसे स्थित पुरुष अक्षय आनन्दका अनुभव करता है।
इस श्लोकमें दो सुख बतलाये गये हैं। एक साधनकालका सुख है, दूसरा साधनका फल है। इस प्रकार हर एक श्लोकमें हमें ध्यान देना चाहिये। जैसे—
योऽन्त:सुखोऽन्तरारामस्तथान्तर्ज्योतिरेव य:।
स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोऽधिगच्छति॥
(गीता ५।२४)
जो पुरुष अन्तरात्मामें ही सुखवाला है, आत्मामें ही रमण करनेवाला है तथा जो आत्मामें ही ज्ञानवाला है, वह सच्चिदानन्दघन परब्रह्म परमात्माके साथ एकीभावको प्राप्त सांख्ययोगी शान्त ब्रह्मको प्राप्त होता है।
भीतरसे ही मननवाला है, उससे होनेवाले सुखसे सुखी है। हमको ध्यान रखना चाहिये कि हम ऐसे स्थानमें बैठे हैं, प्रभुकी कृपा है ही, अत: ध्यान लगेगा ही। जहाँ प्रभुकी चर्चा होती है, वहाँ आलस्य नहीं आ सकता, यदि आता है तो समझना चाहिये उसकी रुचि नहीं है। फिर खयाल रखनेकी यह बात है कि नामजपसे विक्षेपका विनाश हो जाता है। जहाँ विवेक होता है, वहाँ बुद्धिकी आवश्यकता होती है। जहाँ बुद्धि तीक्ष्ण होती है, वहाँ आलस्यकी सामर्थ्य नहीं कि पास आ सके। जिन्होंने भगवान् की शरण ले ली है उनके पास मायाका कार्य आलस्य नहीं आ सकता। जिसका ध्यान लग जाय वह तो ध्यानमें बैठा ही रहे, ध्यानको ही अपना जीवन बना लेना चाहिये।
मेरे तो इस प्रकारका अनुभव है कि मैं विचार कर लूँ कि आज आठ घंटा बैठना है, फिर परमात्माकी कृपासे ध्यान लग जाय तो बैठा रहना कोई बड़ी बात नहीं है। ज्यादा आनन्द तो तभी है कि सब आदमी दिनभर ध्यानमें बैठे रहें। मेरी तो धारणा है कि महापुरुषोंकी कृपासे अटल समाधि लग सकती है, फिर परमात्माकी कृपासे लग जाय इसमें बात ही क्या है। तीन घंटा तो मामूली बात है, यह तो हमारी खुराक है।
नारायण! नारायण! नारायण!
नारायणके नामका उच्चारण करते ही सब स्वाहा हो जाता है। नारायण शब्दका अर्थ है, ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ मनसे उसका मनन करे, बार-बार आनन्द शब्दका उच्चारण किया जाता है। इसके मुख्य-मुख्य सोलह विशेषण हैं।
देखो कैसी अद्भुत गन्ध आ रही है। शान्तिप्रद मन्द-मन्द वायु है। इससे ध्यानमें सहायता मिलती है। वृत्तियाँ पवित्र हो जाती हैं।
प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते॥
(गीता २।६५)
अन्त:करणकी प्रसन्नता होनेपर इसके सम्पूर्ण दु:खोंका अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्तवाले कर्मयोगीकी बुद्धि शीघ्र ही सब ओरसे हटकर एक परमात्मामें भलीभाँति स्थिर हो जाती है।
आनन्दको विशेष बना लेवें और सब विशेषण, जैसे दुर्गाका पाठ करनेवाला एक श्लोकका संपुट दिया करता है, ऐसे ही अपने भी नित्य ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’की भावना लगानी है। अष्टप्रहरी पीपलकी तरह न हो सके तो एक प्रहरीकी तरह छोटी भावना ही लगा लें।
इसका भाव समझकर उसमें तन्मय हो जाय, धारा बाँध दे।
- पूर्ण आनन्द—पूर्णका मतलब कमी नहीं, जैसे मनुष्य तृप्त हो जाता है तो कहता है कि पूर्ण, पूर्ण, जैसे घड़ा जलसे भर जाता है, उसमें गुंजाइश नहीं है, ऐसे ही मन आनन्दसे भर जाता है।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन् स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते॥
(गीता ६।२२)
परमात्माकी प्राप्तिरूप जिस लाभको प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मप्राप्तिरूप जिस अवस्थामें स्थित योगी बड़े भारी दु:खसे भी चलायमान नहीं होता।
इस श्लोकसे पूर्ण आनन्द समझना चाहिये। इसमें क्या विशेषता है? जबतक यह लालसा रहे कि और आनन्द हो, तब-तक यही समझना चाहिये कि अभी आनन्दकी कमी है। जब आनन्दकी गुंजाइश नहीं रहे, तब वह पूर्ण आनन्द है।
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अपार आनन्द—यानी जिसका पार नहीं है। पूर्ण आनन्द, अपार आनन्द एक ही है। मुमुक्षुकी दृष्टिसे भेद किया जाता है। वह देश-कालकी सीमासे रहित है। जैसे आकाशकी सीमा नहीं, उसको अपार कहते हैं। जिसका पार नहीं है और जिसके परे कुछ है ही नहीं, इसलिये देश-काल किसी भी रूपमें उसका अन्त नहीं होता।
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शान्त आनन्द—विक्षेपका अत्यन्त अभाव होनेके बाद जो शान्ति होती है उसका नाम शान्त आनन्द है। परमात्मा शान्तिस्वरूप है। आकार-विकार-विक्षेपरहित जो पदार्थ होता है, वह शान्तमय होता है। परमात्माका स्वरूप शान्तिमय है। जहाँ किसी प्रकारका विकार, विक्षेप, उपद्रव नहीं, ऐसी स्थिति होनेके बाद जो शान्ति होती है, वह शान्तिमय आनन्द है। क्षणिक शान्तिके लिये हम कितना प्रयत्न करते हैं। परम शान्ति तो उसे कहते हैं जो नित्य कायम रहती है।
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घन आनन्द—वह आनन्द कैसा है, घन; घनको कैसे समझे, खूब गहरा है, गहरा कैसा? समुद्रकी तरह नहीं, पत्थरकी तरह जैसे शिला घन है ऐसे ही परमात्मा घन है, परन्तु शिला तो जड़ है। आत्माके स्वरूपमें आत्मा ही है। आत्मामें कोई चीज प्रवेश नहीं हो सकती। कोई कहे, भूत-प्रेत प्रवेश हो जाता है। यह तो हृदयमें हो सकते हैं, आत्मामें नहीं। द्रष्टामें कोई चीज नहीं घुस सकती। जैसे एक म्यानमें दो तलवार नहीं जा सकती। तलवार जा भी सकती है, क्योंकि वहाँ पोल है, परन्तु द्रष्टामें कुछ प्रवेश नहीं कर सकता। द्रष्टा दृश्य नहीं हो सकता। दृष्य कभी द्रष्टा नहीं हो सकता। योगी तो दूसरेके शरीरमें प्रवेश हो जाता है? नहीं, योगीकी आत्मा तो कहीं जाती-आती नहीं, मन प्रवेश कर सकता है। द्रष्टा तो वासना आदि जो मनके अन्तर्गत हैं, उनको जाननेवाला वह ज्ञाता है। उसको (आत्माको) कोई जान ही नहीं सकता। ज्ञाताको (आत्माको) यदि कोई जान जाय तो वह तो ज्ञेय हो जायगा। ज्ञेय जड़ होता है, आत्मा चेतन है। ज्ञाता अपने-आपको स्वयं ही जानता है।
संसार सारा ज्ञेयमें है, चेतनमें नहीं है। आइनेमें हमारा चित्र दीखता है, किन्तु आइनेमें कोई प्रवेश नहीं कर सकता, इसी प्रकार सारा संसार उस ज्ञातामें दिखायी पड़ता है। वास्तवमें उसमें नहीं है, इसीलिये गीतामें कहा है—
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्॥
(गीता १३। ३४)
इस प्रकार क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके भेदको तथा कार्यसहित प्रकृतिसे मुक्त होनेको जो पुरुष ज्ञान-नेत्रोंद्वारा तत्त्वसे जानते हैं, वे महात्माजन परम ब्रह्म परमात्माको प्राप्त होते हैं।
जो कुछ क्रिया होती है, तीनों गुणोंके द्वारा ही होती है। गुण क्या चीज है? जड़ है, आत्मा पर है। इस प्रकार जो देखता है, भगवान् कहते हैं कि वह मेरे स्वरूपको प्राप्त हो जाता है। अपने प्रकरणपर आ जाता हूँ। जिसमें गुंजाइश नहीं है, ठोस है, उसे घन कहते हैं। काँच घन है, परन्तु उसमें भी आग घुस जाती है; परन्तु वह आनन्द तो ठोस है, चेतन है, द्रष्टा है। अपने शरीरमें आत्मा है, उसमें कोई पोल नहीं है, इसी प्रकार आनन्द-ही-आनन्द है और कोई गुंजाइश नहीं है।
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अचल आनन्द—आत्मा अचल है। देहके साथ चलता-दीखता प्रतीत होता है। वास्तवमें आत्मा नहीं चलता। तीनों शरीर ही चलते हैं। जैसे पहाड़ है वह भी अचल है, परन्तु वह जड़ है, किन्तु आत्मा अचल है। इसके लिये सरकनेकी गुंजाइश नहीं। आकाश देशकी दृष्टिसे तो अचल है, कालकी दृष्टिसे नहीं। प्रलय होता है, तब इसका भी नाश हो जाता है। आत्मा न देशकी दृष्टिसे चल है न कालकी दृष्टिसे। आत्मा सदा कायम रहता है। किसी रूपमें नहीं बदलता। हमारेमें जितने भाव बदलते हैं, सब अन्त:करणके हैं। सूक्ष्म शरीर बदल जाता है, किन्तु आत्मा नहीं। अचलके लिये दृष्टान्त हमारे लिये आत्मा ही है।
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ध्रुव आनन्द—ध्रुव दो बात बतलाता है, ध्रुव तारा एक स्थानमें रहता है, दूसरा निश्चल रहता है। ध्रुव वस्तु सत्ताका वाचक है। वास्तवमें सत्य पदार्थ है, इस बातको बतलानेके लिये ध्रुव शब्दका प्रयोग किया है।
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नित्य आनन्द—नित्य शब्द कालका वाचक है। इसमें कालकी प्रधानता है। यह सदा रहता है, जैसे पदार्थमें परिवर्तन होता है, वैसे इसमें कोई परिवर्तन नहीं होता। ब्रह्ममें काल नहीं है। भूत, भविष्य, वर्तमान सबकी मायामें कल्पना होती है। यह कालका भी महाकाल है, इसलिये इसको नित्य कहा है। आत्मा निर्विकार है, शाश्वत है। वह परम आनन्द नित्य है, सदा रहता है।
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बोधस्वरूप आनन्द—यह आनन्द बोधस्वरूप है। संसारके विषयोंसे जो सुख मिलता है, वह बोधस्वरूप नहीं है। वह ज्ञेय है, हम ज्ञाता हैं। वह भोग्य है, हम उसके भोक्ता हैं। यह आनन्द ज्ञानस्वरूप है। इसको स्वयं ही अपने-आपका ज्ञान है। ब्रह्म बनकर ही ब्रह्मका अनुभव करता है। बुद्धिके द्वारा ब्रह्मका जो निश्चय किया जाता है, वह ब्रह्म नहीं है। उस आनन्दका ज्ञान तो उस आनन्दको ही है।
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ज्ञान आनन्द—बोध और ज्ञान एक-सी ही बात है, फिर भी सूक्ष्म भेद बतलाया जाता है। जैसे गीतामें बतलाया गया है—
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमस: परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्॥
(गीता १३।१७)
वह परब्रह्म ज्योतियोंका भी ज्योति एवं मायासे अत्यन्त परे कहा जाता है। वह परमात्मा बोधस्वरूप, जाननेके योग्य एवं तत्त्वज्ञानसे प्राप्त करनेयोग्य है और सबके हृदयमें विशेषरूपसे स्थित है।
सबके हृदयमें स्थित है, ज्योतियोंका भी ज्योति है। यह ज्ञान है, यही जानने लायक है। वह जो आनन्दमय ब्रह्म है, वह ज्ञानके द्वारा जाना जाता है। बुद्धिके द्वारा जो जाननेमें आता है, वह ब्रह्म बुद्धिविशिष्ट है। सांसारिक सुखका अनुभव इन्द्रियोंसे होता है, इन्द्रियोंसे परे मन है, मनसे परे बुद्धि है, बुद्धिसे परे आत्मा है। आत्मा जानता है कि मेरी बुद्धि कैसी है। सबसे बढ़कर चेतनता आत्मामें है। जाननेका ज्ञान है, इसलिये उसको ज्ञानानन्द कहा है।
- परमानन्द—वह इन सबसे परे आनन्द है। सात्त्विक, राजस, तामस जो आनन्द है, वह इस आनन्दका आभासमात्र है। लौकिक आनन्द है, वह प्रतिबिम्ब है। परमानन्दके आनन्दके सामने लौकिक आनन्दकी कितनी सीमा है। लौकिक आनन्द बतलाया जा सकता है। जिस ब्रह्माण्डमें हम स्थित हैं, ऐसे लाखों ब्रह्माण्ड हैं। इन सबके आनन्दको इकट्ठा कर लिया जाय तो उस सागरस्वरूप आनन्दकी एक बूँदके बराबर भी नहीं हो सकता। कैसे समझाया जाय। जैसे एक तरफ स्वप्नका त्रिलोकीका राज्य और एक तरफ पाँच पैसे। स्वप्नके संसारको बेचनेपर एक पैसा भी नहीं आ सकता। परम नाम है श्रेष्ठका, सबका आधारस्वरूप आनन्द है, उससे परे कुछ है ही नहीं, इसलिये परमानन्द कहा है।
११.महान् आनन्द—परम शब्द श्रेष्ठका वाचक है, महान् बड़ेका वाचक है। महान् आनन्द है उससे बड़ा कुछ भी नहीं है। वह बड़े-से-बड़ा, श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ है।
१२.अनन्त आनन्द—अनन्त इस बातको बतलाता है, जिसका अन्त हो ही नहीं। जिसकी सीमा नहीं, देश, काल किसी भी रूपमें अन्त नहीं। उस ब्रह्ममें अत्यन्त और अनन्त दोनोंका भाव है, अनन्त माने जिसका कभी विनाश नहीं होता। परमात्माका स्वरूप अनन्त है।
१३.अत्यन्त आनन्द—जिससे अतिशय न हो। निरतिशय अतिशय है। वही अत्यन्त है, अपरिमित है, असली बात तो यह है।
१४.चिन्मय आनन्द—चिन्मय है वह आनन्द है, आनन्द विशेष्य है, चिन्मय विशेषण है। उदाहरणके लिये समझाया जाता है ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ वह कैसा है? वह ज्ञानस्वरूप चेतन आनन्द है। आत्मा चेतन है, बोधस्वरूप है, चेतन है। वह आनन्द है। चेतन खुद आनन्द है, इसमें चेतनताकी प्रधानता है।
१५.सम आनन्द—सम अर्थात् समान। जैसे आकाश सम है। आकाश कहीं कम कहीं अधिक नहीं है। आकाशमें बादल हो जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं। इससे आकाशमें कुछ विकार नहीं होता, ऐसे ही उस विज्ञानानन्दमें संसार उत्पन्न होकर विलीन हो जाय, उसमें कुछ अन्तर नहीं आता। जैसे कहा है—
इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन:।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिता:॥
(गीता ५। १९)
जिनका मन समभावमें स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्थामें ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है, क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ही स्थित हैं।
अन्त:करणमें जो समता आती है, उसमें और उपरोक्त समतामें अंतर है। बुुद्धिके जाननेमें जो समता आती है वह जड़ है। परमात्माका समस्वरूप चेतन है।
- केवल आनन्द—इसमें केवल आनन्द-ही-आनन्द है। ज्ञानके सिवाय वहाँ तो कोई पदार्थ ही नहीं है। ऐसी वाणीके उच्चारणसे प्रसन्नताकी लहरें उठने लग जाती हैं। फिर जब मनसे मनन किया जाता है, उस समय क्या शोक, मोह रह सकते हैं। आप ध्यान करके देखें। मैं बतला रहा हूँ उसे आप सुन रहे हैं। जब सुननेसे ऐसी स्थिति हो सकती है, फिर वास्तवमें जिनकी ऐसी स्थिति होगी उनकी बात ही क्या है। ऐसे महात्माओंको मेरा कोटिश: प्रणाम है।
ब्रह्मका जो वास्तविक स्वरूप है, उसका तो कोई वर्णन कर ही नहीं सकता। इसलिये हमारा कर्तव्य है, रात-दिन ध्यानमें मस्त रहें।
ध्यानावस्थामें मृत्यु भी हो जाय तो उसका ऐसा महत्त्व है कि जिसके लिये ध्यान करता है, उसको प्राप्त हो जाता है।
आनन्दमय, आनन्दमय, आनन्दमय।