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भक्ति तथा पतिव्रताकी महिमा

प्रवचन—दिनांक ३०/४/४०, मध्याह्न, स्वर्गाश्रम
जबहिं नाम हिरदे धरॺो भयो पापको नास।
जैसे चिनगी अग्निकी परी पुराने घास॥

गीतामें भगवान् कहते हैं—

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
(गीता ९। ३०)

यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही माननेयोग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है। अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है।

पाप रहे तब भोगे। भगवान् का भक्त भगवान् के शासनमें रहता है। उससे गलती नहीं होती है। पापके कारण काम, क्रोध, लोभ हैं, ये उसमें नहीं रहते।

बसहि भगति मनि जेहि उर माहीं।
खल कामादि निकट नहिं जाहीं॥

भक्तसे पापके ये योद्धा दूरसे ही भाग जाते हैं। जब भगवान् की भक्ति करने लगता है, तब उसको छोड़कर ये विदा हो जाते हैं। एक तो यह बात है कि पाप उससे बनते ही नहीं, पूर्वके होते हैं, वे नष्ट हो जाते हैं।

भगवान् की भक्ति करनेसे भक्तका पाप नाश हो जाता है। क्या स्त्री इस तरहसे पतिकी भक्ति करती है तो उसके भी पाप नष्ट हो जाते हैं? हाँ उसके ही नहीं, उसके पतिके भी पाप नष्ट हो जाते हैं। उसके पातिव्रत धर्मके प्रतापसे उसके पतिको उत्तम-से-उत्तम गति मिलती है। उसका पति पापी भी हो तो भी वह मुक्त हो जाता है। ऐसा कहीं उदाहरण भी आता है? हाँ आता है। शाण्डिली नामकी एक पतिव्रता स्त्री थी। उसका पति पापी था। वह वेश्याके यहाँ जाया करता था। उसके पैरसे चला नहीं जाता था। पतिव्रता स्त्री उसको वेश्याके यहाँ पहुँचाकर वापस लाती थी। एक दिनकी बात है, माण्डव्य ऋषिको सूलीपर चढ़ानेका दण्ड दिया गया था। उस पतिव्रताके पतिके पैरसे सूली हिल गयी तो ऋषिने शाप दिया कि जिसके पैरसे सूली हिली है, सूर्योदय होनेपर उसकी मृत्यु हो जायगी। उस पतिव्रताने कहा सूर्य उदय होंगे तब तो मृत्यु होगी। तीन दिन हो गये सूर्य उदय ही नहीं हुआ। देवतालोग उसके घर आये। उसके पतिको जीवनदान देनेका आश्वासन देकर सूर्यभगवान् को उदित होनेकी अनुमति देनेके लिये इन्द्रादि देवता उससे प्रार्थना करने आये। यह पतिव्रत धर्मका प्रताप था। उसी दिनसे उसके पतिने यह सब काम त्याग दिया और वे दोनों परमगतिको प्राप्त हो गये। जो स्त्री पतिकी सेवा करनेवाली होती है उसको अपने पतिके पुण्यका आधा हिस्सा मिलता है। स्त्रीको अपनी आत्माके कल्याणके लिये कुछ करनेकी आवश्यकता नहीं है; जो कुछ करे पतिके लिये करे, उसके कल्याणसे उसका कल्याण है।

गीताका अधिकारी भगवान् का भक्त है। भगवान‍्ने कहा है कि मेरे भक्तोंको सुनाओ। यह तो कहा है कि जो हमारे भक्त न हों उनको मत कहो, यह नहीं कहा कि अछूतको मत कहो, स्त्रियोंको मत कहो, अमुकको मत कहो। मेरे भक्तोंमें जो इसका प्रचार करता है, वह मुक्त हो जाता है। उसके समान मेरा प्रिय कार्य करनेवाला कोई नहीं है। भगवान‍्ने ऐसा कहा है। गीतामें मनुष्यमात्रका अधिकार है। मेरा तो ऐसा सिद्धान्त है कि जो अपना अधिकार मानता है उसीका अधिकार है, जो अधिकार नहीं माने वह न सुने, जो सुनानेका अधिकार नहीं मानता है, वह न सुनावे। गीतामें जिसकी श्रद्धा है, जो सुनना चाहता है, उसका गीतामें अधिकार है। भगवान‍्ने तो कहा है—

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
(गीता ९। ३०)

यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर मुझको भजता है तो वह साधु ही माननेयोग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है। अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है।

जातिसे नीच हो, चाहे आचरणोंसे नीच हो, मेरी भक्ति करेगा तो परमपदको प्राप्त हो जायगा। भगवान् उसका त्याग भी कैसे कर सकते हैं। वह भगवान् का ही तो बनाया हुआ है। माता अपने कुपुत्रका भी त्याग कैसे कर सकती है?

प्रश्न—जीव एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जाता है, उसमें कितना समय लगता है।

उत्तर—योनिके अनुसार समय लगता है।

प्रश्न—यदि हत्या हो गयी या मोटरसे दबकर मर गया तो क्या गति होगी?

उत्तर—किसी समय भी मृत्यु हो संकल्प तो रहता ही है। संकल्पके अनुसार गति होती है।

अकालमृत्युका विवेचन

प्रश्न—अकालमृत्यु किसे कहते हैं?

उत्तर—मृत्यु तीन प्रकारसे होती है—परेच्छा, स्वेच्छा, अनिच्छा। बुद्धि भ्रष्ट होकर जो मृत्यु होती है वह अकालमृत्यु है। भूकम्प हुआ, हम मर गये तो अनिच्छासे मृत्यु हुई। हमारे पास रुपया है, डाकू आये, छूरी मार दी, हम मर गये, यह परेच्छासे मृत्यु हुई। बीमारीसे या दैवी प्रकोपसे जो मरते हैं, वह अनिच्छासे मृत्यु है। अनिच्छासे तथा परेच्छासे मृत्यु अकालमृत्यु नहीं है। वास्तवमें अकालमृत्यु तो वह है कि समय तो नहीं आया, फिर भी मरना चाहे। बुद्धि भ्रष्ट होनेसे अकालमृत्यु होती है। क्रोधके आवेशमें आकर आत्महत्या करना ही अकालमृत्यु है।

पापका तो त्याग नहीं कर सकते, पुण्यका त्याग कर सकते हैं। एक आदमीकी आयु साठ वर्षकी है, वह पचास वर्षमें ही आत्महत्या करके मर गया। दस वर्षतक उसको दूसरी योनि नहीं मिलेगी, वह प्रेतयोनिमें रहेगा। उनके लिये कहा है—

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृता:।
ताॸस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जना:॥
(ईशावास्योपनिषद् ३)

मानव-शरीर अन्य सभी शरीरोंसे श्रेष्ठ और परम दुर्लभ है एवं वह जीवको भगवान् की विशेष कृपासे जन्म-मृत्युरूप संसार-समुद्रसे तरनेके लिये ही मिलता है। ऐसे शरीरको पाकर भी जो मनुष्य अपने कर्मसमूहको ईश्वर-पूजाके लिये समर्पण नहीं करते और कामोपभोगको ही जीवनका परम ध्येय मानकर विषयोंको आसक्ति और कामनावश जिस-किसी प्रकारसे भी केवल विषयोंकी प्राप्ति और उनके यथेच्छ उपभोगमें ही लगे रहते हैं, वे वस्तुत: आत्माकी हत्या करनेवाले ही हैं; क्योंकि इस प्रकार अपना पतन करनेवाले वे लोग अपने जीवनको केवल व्यर्थ ही नहीं खो रहे हैं वरं अपनेको और भी अधिक कर्मबन्धनमें जकड़ रहे हैं। इन काम-भोग-परायण लोगोंको—चाहे वे कोई भी क्यों न हों, उन्हें चाहे संसारमें कितने ही विशाल नाम, यश, वैभव या अधिकार प्राप्त हों—मरनेके बाद कर्मोंके फलस्वरूप बार-बार उन कूकर, शूकर, कीट-पतंगादि विभिन्न शोक-संतापपूर्ण आसुरी योनिमें और भयानक नरकोंमें भटकना पड़ता है (गीता १६।१६,१९,२०), जो ऐसे आसुरी स्वभाववाले दुष्टोंके लिये निश्चित किये हुए हैं और महान् अज्ञानरूप अन्धकारसे आच्छादित हैं। इसीलिये श्रीभगवान‍्ने गीतामें कहा है कि मनुष्यको अपने द्वारा अपना उद्धार करना चाहिये, अपना पतन नहीं करना चाहिये (गीता ६। ५)।

इस प्रकारका पाप बतलाया गया है, इसीलिये तो यह प्रार्थना की जाती है—

अकालमृत्युहरणं सर्वव्याधिविनाशनम्।
विष्णो: पादोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते॥

भगवान् विष्णुका चरणोदक अकालमृत्युका हरण करनेवाला तथा समस्त व्याधियोंका विनाश करनेवाला है। मानव उसका पान करके संसारमें पुनर्जन्म प्राप्त नहीं करता।

इस जन्ममें आप अपराध करेंगे तो उसका फल आजका आज भी हो सकता है, किसीका जन्मान्तरमें मिलता है। कोई वर्षाके लिये यज्ञ करता है तो वर्षा हो भी जाती है। दशरथजीने पुत्रेष्टि यज्ञ किया। उनके पुत्र हो गये। इसलिये यह सिद्ध हो गया कि इस जन्ममें किये हुए कर्मोंका फल इस जन्ममें भी भोग सकते हैं। बच जाते हैं वे अगले जन्ममें भोगने पड़ेंगे।

एक तो शुभाशुभ कर्म है, एक शुभाशुभ फल है। नयी क्रिया होती है, उसका नाम कर्म है। नवीन कर्म होते हैं उसमें प्रारब्ध हेतु नहीं है। अपनी आपकी हत्या करना पाप है। यह प्रारब्धसे नहीं होता, यह तो अपने स्वभावसे होता है।

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