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अनन्यभक्तिकी महिमा

प्रवचन—दिनांक २१/५/५०, स्वर्गाश्रम
कंचन तजना सहज है सहज त्रियाका नेह।
मान बड़ाई ईर्ष्या दुर्लभ तजना एह॥

किसी कविका कहना है कि कंचनका त्याग उच्चकोटिके साधकोंके लिये सहज है, स्त्रीका त्याग भी सहज है, परन्तु मान-बड़ाई और ईर्ष्याका त्याग तो बड़ा ही कठिन है, किन्तु साधारण पुरुषोंके लिये यह बात है—

एक कंचन एक कामिनी
दुर्लभ घाटी दोय॥

कंचन तथा कामिनी एवं उनसे मिलनेवाले सांसारिक पदार्थ कामिनी यानी स्त्री और बाल-बच्चे साधनमें विघ्न करनेवाले हैं।

प्रथम तो यह समझना चाहिये कि रुपयोंका त्याग बड़ा ही कठिन है। एक कहानी आती है। एक लोभी वैश्य था। वह भजन-ध्यान भी किया करता था। उसकी कंचन-कामिनीमें भी बड़ी प्रीति थी। वह पूजा-पाठके लिये बैठता। उसकी स्त्री अपने बच्चेको उसके पास बैठा देती और खानेको एक लड्डू दे देती और रसोई बनाने चली जाती। कौए भी मौका देखते रहते। जब उसकी वृत्ति दूसरी ओर जाती तो कौए लड्डू छीननेका प्रयत्न करते। वह भी उन्हें डराया करता। उसका यही ध्यान रहता कि बच्चेसे कोई मिठाई न ले जाय। वह महात्माके पास गया। उसने कहा, मैं भजन-ध्यान करता हूँ, किन्तु मेरा मन नहीं लगता। तब उस महात्माने कहा कि भगवान् के भजनको आदर दिया करो। तब उस वैश्यने कहा कि मैं आदर तो खूब दिया करता हूँ। एक दिन महात्मा उसके घरपर आये। उन्होंने देखा कि सामने एक लड़का बैठा है, लड्डू खा रहा है, उसका पिता कौओंको डरा रहा है। फिर वह महात्माके पास आया। महात्माने कहा कि भजन-ध्यान किया करो। आदर दोगे तो मन लगेगा, ऐसे ही नहीं लगता। तुम कहते हो बहुत आदर देता हूँ, किन्तु तुम भजन-ध्यानको एक कौड़ी-जितना भी महत्त्व नहीं देते। उस वैश्यने पूछा कि कैसे? तब महात्माने पूछा—एक लड्डूके क्या दाम होते हैं, तब उसने उत्तर दिया कि दो पैसा। तब पूछा कि दो पैसोंमें कौड़ी कितनी होती है? उस वैश्यने कहा—१२८। फिर पूछा—एक माला फेरनेमें कितना समय लगता है? दस मिनट, उस समयमें कितने नाम होते हैं? १०८ नाम होते हैं। तुम्हारे लड़केको लड्डू खानेमें कितना समय लगता है? २०-२५ मिनट, इतनेमें तू कितनी माला जपता है? कम-से-कम मैं दो माला जप लेता हूँ। दो मालामें २१६ मन्त्र होते हैं। नाम ३४५६ होते हैं। हिसाब लगाओ कि तुम भजन-ध्यानको कितना महत्त्व देते हो। कौड़ी-जितना भी महत्त्व नहीं देते हो। तुम्हारा ध्यान तो लड्डूकी ओर ही रहता है। लड्डूको जितना महत्त्व देते हो, उतना महत्त्व मालाको ही देना चाहिये। जब प्रधान हेतु लड़केके भोजनकी रक्षा है, फिर भजन-ध्यान किस प्रकार हो सकता है। तुम्हारा ध्यान भगवान् को छोड़कर कहीं भी नहीं जाना चाहिये। कहनेका अभिप्राय यह है कि हम भजन-ध्यानको आदर नहीं देते। आदरसे किये हुएका बड़ा अच्छा फल मिलता है और अनादरका तो दण्ड मिलना चाहिये, किन्तु भगवान् दण्ड नहीं देते। वे दयालु हैं, कृपालु हैं।

अब आपको दूसरी बात बतायी जाती है। महर्षि पतंजलिने कहा है कि अभ्यास और वैराग्यसे चित्तकी वृत्तियोंका निरोध होता है। उस परमात्माकी प्राप्तिके लिये किये हुए कर्मोंका नाम अभ्यास है। दीर्घकालतक निरन्तर सत्कारपूर्वक अभ्यास करनेसे दृढ़ वैराग्य होना चाहिये, किन्तु वह अभ्यास आदरपूर्वक निरन्तर किया जाय, तब चित्तकी वृत्तियोंका निरोध होता है। कहनेका अभिप्राय यह है कि चाहे एकान्तमें करो या व्यवहारकालमें, भगवान् की स्मृति रखनी चाहिये। कार्य करते समय भगवान् की स्मृति ठीक नहीं होती, इसलिये एकान्तमें ध्यान किया जाता है। आजकल भगवान् के भजन-ध्यानकी जगह एकान्तमें शयन करते हैं। गाढ़ सुषुप्तिमें आनन्द आता है, यह बात नहीं है। उनका यह कहना बेसमझी है। ऐसी बात होती तो भगवान् उससे उलटी बात क्यों कहते?

‘निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्॥’
(गीता १८।३९)

निद्रा, आलस्य और प्रमादका नाम तामसी क्रिया है। इन्हें तामसी क्रिया कहते हैं।

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसा:।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसा:॥
(गीता १४।१८)

सत्त्वगुणमें स्थित पुरुष ऊँचे लोकोंमें जाते हैं, रजोगुणवाले बीचके लोकोंमें जाते हैं और नीच कर्म करनेवाले पुरुष नीचेके लोकोंमें जाते हैं।

कोई कहता है कि उपनिषदोंमें लिखा है, महात्मा और पागल एक-सा होता है तो क्या पागल होना चाहिये? नहीं, महात्मा ही होना चाहिये। छठी भूमिकामें पहुँचनेपर महात्माकी दशा पागलकी तरह हो जाती है। किसी-किसीका आचरण बालककी तरह ही होता है। यह नहीं कि तुम ध्येय कर लो कि हम तो बाहरसे पागल बनेंगे। पागलकी नकल करें तो हमें पाप ही लगेगा, न कि धर्म होगा। सुषुप्ति-अवस्थामें नित्य प्रलय रहती है, उस समय उसे बाहरका ज्ञान नहीं रहता। उसी प्रकार महात्माका भी यही ढंग हो जाता है। चौथी भूमिकामें संसार स्वप्नवत् दीखता है। स्वप्न सोनेपर आता है, जागनेपर वह समझता है कि रात्रिमें यह स्वप्न आया था। जब मनुष्य जागता है तो स्वप्नके संसारको स्वप्नरूप ही देखता है। वह देहसे रहित हो जाता है। उसकी संज्ञा विदेह हो जाती है। उस समय उत्तम महात्माको यह सारा संसार स्वप्नवत् दीखता है। न राग है, न द्वेष है, न हर्ष है, न शोक है। स्वप्नके संसारका नाम तो भूतकाल है। अत: ममता नहीं रहती। पाँचवीं भूमिकामें सुषुप्ति-अवस्था रहती है और छठी भूमिकामें गाढ़ सुषुप्ति आनेपर फिर पत्थरकी-सी अवस्था हो जाती है। संसारका बाहरी ज्ञान भी उसे नहीं रहता। सोना तो तामसी है। एकान्तमें जाकर जो भजन-ध्यानके बहाने सोते हैं, वे तो गलत रास्तेपर हैं। वे खतरेमें हैं। परमात्माकी प्राप्तिमें विलम्ब होना ही खतरा है। लोग समझते हैं कि वह गुफामें ध्यानके लिये जाता है, किन्तु वह तो लोगोंको ठगता है। जो इस प्रकारसे लोगोंको ठगता है, वह वास्तवमें मिथ्याचारी है, पाखण्डी है, पाखण्ड रचता है।

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते॥
(गीता ३। ६)

जो बाहरसे कर्मेन्द्रियोंको रोककर मनसे संसारका चिन्तन करता है, वह इन्द्रियोंके अर्थोंमें विमूढ़ हुआ पुरुष मिथ्याचारी है, ऐसा कहा जाता है।

जो साधक एकान्तमें बैठकर इन्द्रियोंको विषयोंसे रोकनेका प्रयत्न करता है, फिर भी यदि उसे चिन्तन हो जाता है तो यह उसकी कमजोरी ही है। इसपर ध्यान न देकर इसे हटानेकी चेष्टा करनी चाहिये। यही तो हटानेका समय है, साधन करके हटाना चाहिये। बुरा भाव नहीं आना चाहिये। भजन-ध्यानको आदर देना चाहिये। पहले तो विचार करना चाहिये फिर लक्ष्य बनाना चाहिये। बिना लक्ष्यवाला तो जड़ (मूर्ख) है। बिना लक्ष्यके मनुष्य-जीवन व्यर्थ ही चला जायगा। मोटरका कोई लक्ष्य न हो तो देखो फिर क्या आनन्द होगा। बिना लक्ष्यके छोड़ी हुई मोटर टूट-फूट जायगी। लक्ष्य पहले बनाना चाहिये। लक्ष्यरहित क्रिया करनेवालेको कोई भी लाभ नहीं। लक्ष्य यह बनाना चाहिये कि परमात्माकी प्राप्ति सबसे बढ़कर है, यह बात गीता, रामायण, भागवत तथा महापुरुष भी कहते हैं। यही लक्ष्य बनाकर इसकी सिद्धिका प्रयत्न करना चाहिये। एकान्तमें जाकर ध्यान करना है तो ध्यानमें बाधक जो निद्रा-आलस्य आदि हैं, उनका त्याग कर देना चाहिये और ध्यानमें सहायक जो आसन इत्यादि हैं, इनको धारण करना चाहिये। ऐसे स्थानमें बैठना चाहिये, जहाँ हल्ला न हो। जनसमुदायमें नहीं रहना चाहिये।

मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।
विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि॥
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा॥
(गीता १३। १०-११)

मुझ परमेश्वरमें एकीभावसे स्थितिरूप ध्यानयोगके द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति तथा शुद्धदेशमें रहनेका स्वभाव और विषयासक्त समुदायमें प्रेमका न होना तथा अध्यात्म-ज्ञानमें नित्य स्थिति और तत्त्वज्ञानके अर्थरूप परमात्माको सर्वत्र देखना यह सब तो ज्ञान है, इससे विपरीत जो है वह अज्ञान है—ऐसा कहा गया है।

यह बात भगवान‍्ने कही है। भगवान् कहते हैं कि व्यभिचारिणी भक्ति नहीं करनी चाहिये। मेरे सिवाय और किसीका भी चिन्तन नहीं करना चाहिये। परमात्मामें चित्तकी वृत्तियोंका समावेश कर देना चाहिये। भगवान् की भक्ति निष्कामभावसे हेतुरहित करनी चाहिये। एकतार भगवान् का ध्यान हो। एकान्त देशका सेवन रखना और जनसमुदायमें प्रीति नहीं रखनी चाहिये। यह सिद्ध हुआ कि ध्यानके समय जनसमुदायका संग और दूसरोंसे प्रीति नहीं होनी चाहिये। स्वाध्याय भी वृत्तियोंको रोकनेमें सहायक है। कोई विक्षेप या आलस्य आवे तो गीता, रामायण, भागवत आदि पुस्तकोंका स्वाध्याय करना चाहिये। यदि महापुरुष मिल जायँ तो और भी अच्छी बात है। सत्संग, स्वाध्याय ये परमात्माके ध्यानमें बड़े सहायक हैं। जप तो और भी श्रेष्ठ है। ध्यानसहित जपसे बड़ा लाभ होता है। यह बड़ा ही सरल साधन है। अभ्यास, वैराग्यकी अपेक्षा नाम-जप सरल है। निराकारका ध्यान करो या भगवान् के साकाररूपका ध्यान करो, जिसमें क्लेश, कर्मवासना न हो, कर्मविपाक न हो, पुरुष विशेष हो, राग-द्वेष आदि न हो, शुभ-अशुभमिश्रित कर्मसुख, दु:ख, वासना कुछ भी नहीं है, वह ईश्वरका स्वरूप है। उस ईश्वरका ध्यान करना चाहिये। वह नित्य है, उसकी अवधि नहीं है। परमात्माके नामका जप करना चाहिये, ध्यान भी करना चाहिये। उसका ध्यान और जप करना बड़ा उत्तम उपाय है। इससे आत्मा शुद्ध होती है, फिर चित्तकी चंचलता और आलस्य इन दोनोंका नाश कर देना चाहिये। भगवान‍्ने भी यही बात कही है। अर्जुनने कहा कि यह मन बड़ा ही चंचल है। भगवान‍्ने कहा है—

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥
(गीता ६।३५)

हे महाबाहो! यह मन बड़ा चंचल है, इसमें कोई भी संशय नहीं। अभ्याससे एवं वैराग्यसे यह मन वशमें किया जाता है। अभ्यासका मतलब परमात्माका ध्यान लगानेका प्रयत्न है। गीतामें ही बतलाया है—

यतो यतो निश्चरति मनश्चञ्चलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥
(गीता ६।२६)

जहाँ-जहाँ यह चंचल स्थिर न रहनेवाला मन जाय, वहाँ-वहाँसे इसे रोककर आत्मामें ही लगाये। यह वैराग्यकी बात बतायी।

ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:॥
(गीता ५।२२)

जो भी संस्पर्शोंसे उत्पन्न होनेवाले भोग हैं, सभी दु:खको देनेवाले हैं, वे सब आदि-अन्तवाले हैं, पण्डित पुरुष इनमें नहीं रमते। उनमें तो मूर्ख ही रमते हैं। यह बतलाकर फिर अंतमें कहते हैं—

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:॥
(गीता ६।४७)

सम्पूर्ण योगियोंमें श्रद्धावान् पुरुष जिसने मेरेमें मन लगा दिया है, ऐसा भक्त मुझे प्यारा है।

जितने भी कर्मयोग, ध्यानयोग, अष्टांगयोग हैं, भक्तियोग उन सबमें युक्ततम है। जो मेरेमें मन लगाकर श्रद्धापूर्वक मेरा भजन करता है, उसे सबसे बढ़कर तथा सबसे सुगम बताया। जगह-जगह कहा है। बारहवें अध्यायमें अर्जुनने पूछा—

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमा:॥
(गीता १२।१)

जो अनन्यप्रेमी भक्तजन पूर्वोक्त प्रकारसे निरन्तर आपके भजन-ध्यानमें लगे रहकर आप सगुणरूप परमेश्वरको और दूसरे जो केवल अविनाशी सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्मको ही अतिश्रेष्ठ भावसे भजते हैं—उन दोनों प्रकारके उपासकोंमें अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं? तब भगवान‍्ने कहा—

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता:॥
(गीताल १२।२)

जो पुरुष मेरेमें मन लगाकर नित्य मेरेमें युक्त हुए श्रद्धासे मेरी उपासना करते हैं वे युक्ततम माने गये हैं। मेरे सगुणरूपमें जिन्होंने मनको लगा दिया है, श्रद्धा करके जप-ध्यान करते हैं, वे भक्त युक्ततम हैं। परमात्मा निर्गुण-निराकार है, उसका चिन्तन मनसे हो ही नहीं सकता, नित्य है, अक्रिय है। ऐसे भगवान् के स्वरूपकी उपासना इन्द्रिय-समूहको वशमें करके करनी चाहिये। सब जगह जिनका समभाव है, सबमें आत्मा समझकर जो सबके हितमें रत है, वह युक्ततम भक्त है। अर्जुन फिर पूछते हैं कि आपको प्राप्त होनेवालोंमें भी क्या कई श्रेणियाँ हैं। भगवान् कहते हैं, निराकारवालोंको परिश्रम अधिक है, कठिनता है, इसलिये मुझ सगुण-साकारका भजन कर। मेरेमें जो चित्त लगाता है, उसे मैं शीघ्र ही पार कर देता हूँ। हे अर्जुन! मैं अनन्य भक्तिके द्वारा प्राप्त हो सकता हूँ। अनन्य भक्तिसे भगवान् की प्राप्ति बहुत शीघ्र हो सकती है। सगुण-साकारका कोई साधक दर्शन भी करना चाहे तो उसे दर्शन भी हो सकते हैं। ज्ञानसे तो यथार्थ ज्ञान हो सकता है, मुक्ति भी मिल सकती है। भगवान् कहते हैं कि दर्शन देनेके लिये मैं बाध्य नहीं। दर्शन तो भक्तिसे ही होते हैं। नेत्रोंसे दर्शन करना यह विशेष बात है। दर्शन, तत्त्वज्ञान और मुक्ति तीनों भक्तिसे ही हो सकते हैं, किन्तु ज्ञानसे तो दो ही काम होते हैं—ज्ञान तथा मुक्ति। यह मार्ग तो विचारशील पुरुषोंके लिये है। विदेहियोंके लिये तो ज्ञानमार्गमें कोई भी कष्ट नहीं है। अनन्य भक्तिवालोंको तुरन्त ही भगवान् की प्राप्ति हो जाती है। जबतक शरीरमें अहंभाव बना हुआ है तबतक ज्ञान होना कठिन है। मैं मुक्त हूँ ऐसे अनुभववालेको शीघ्र ही परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। प्रेम-श्रद्धा होनी चाहिये। साधनको आदर देना चाहिये, चाहे एकान्तमें हो या व्यवहारकालमें। गोपियाँ जप-ध्यान करते हुए काम कर रही हैं। ऊखलमें धान कूटते समय, दही बिलोते समय, दूध दुहते समय, सारा काम करते समय कीर्तन और ध्यान कर रही हैं। उनके लिये ही भगवान‍्ने कहा है कि मुझे गोपियोंसे बढ़कर और कोई भी प्रिय नहीं है। भगवान् यही बात कहते हैं—

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
(गीता ८।७)

इसलिये हे अर्जुन! सब समय मेरा स्मरण करते हुए युद्ध करो।

मन-बुद्धि लगाकर काम कैसे हो सकता है? युद्धमें स्मरण कैसे हो सकता है? भगवान् क्यों कहते हैं, क्योंकि गोपियाँ करती थीं। एक बार मैंने एक नटका तमाशा देखा। नट और नटनीके लिये दो रस्से बाँधे गये। फिर वे रस्सेपर चढ़े। सिरपर हाँडी, रस्सीपर चलना, कण्ठमें लटका हुआ ढोलक बजाना, गाना सभी काम करती है। किसलिये, पैसोंके लिये वह सभी काम एक साथ करती है। इस पारसे उस पार चली जाती है। रस्सेपर चलती है, हमारी तरह ही चलती है और उस पार चली जाती है। जब ये सभी काम एक साथ हो सकते हैं तो भगवान् के लिये तो होने ही चाहिये। उसने तो पैसोंके लिये ही अभ्यास किया है। उसका मुख्य ध्यान पैरोंपर है, वैसा ही परमात्मामें ध्यान लगाना चाहिये। ढोल बजाती है, ध्यान पैरोंपर है, इसी प्रकारसे ही काम करना चाहिये। भोजन करते हैं, ध्यान दूसरी जगह है। मल-मूत्रका त्याग कर रहे हैं, ध्यान कहीं और ही घूम रहा है। भयसे जिस प्रकार वह पैरोंपर ध्यान रखती है, उसी प्रकार ही हमें परमात्माका ध्यान करना चाहिये। दूसरी जगहसे मन हटाकर परमात्मामें ही मन लगाना चाहिये। मन व्यर्थमें ही भोगोंका चिन्तन करता है। व्यर्थ बातोंका चिन्तन करता रहता है। मेरा कहना है कि आपको सोलह आना ध्यान परमात्मामें ही लगा देना चाहिये। हम चाहते हैं परमात्मा मिलें, किन्तु हम करते हैं अवहेलना। हम दु:ख नहीं चाहते, किन्तु क्रिया करते हैं दु:खकी। मनकी क्रियाका विशेष मूल्य है, अत: मनसे जहाँतक हो सके परमात्माका ही चिन्तन करना चाहिये। यदि आपका मन विषयभोगोंमें है तो उसका कुछ भी मूल्य नहीं। यदि मन संसारमें है तो खतरेमें है। यदि भगवान‍्में मन है तो मुक्ति है। आपका साधन अवहेलनासे होता है। यदि आप उसका आदर करेंगे तो वह निश्चय ही तुम्हारा आदर करेगा। यदि उसका अनादर करोगे तो वह भी तुम्हारा अनादर करेगा। यदि इसका आदर होगा तो यह परमात्माकी प्राप्ति करा देगा। अनादर करोगे तो मुक्तिकी जगह स्वर्ग ही मिलेगा। योगभ्रष्ट पुरुष मरकर स्वर्गमें जाता है, फिर आकर साधन करता है। योगभ्रष्टको स्वर्ग मिलता है। यह अनादर करनेका ही तो परिणाम है। कहाँ ब्रह्मकी प्राप्ति और कहाँ स्वर्गकी प्राप्ति। इन सब बातोंको ध्यानमें रखकर परमात्माका ही ध्यान करना चाहिये। रुपयोंकी प्राप्ति खराब समझकर इनको लात मार देनी चाहिये। भगवान‍्से प्रार्थना करनी चाहिये। रुपयोंका तो हृदयसे त्याग कर ही देना चाहिये। पुरुषोंको तो कामिनीका त्याग इस प्रकार कर देना चाहिये कि फिर मनमें भी न आवे। स्त्रीमें प्रेम करना तो बहुत खराब है। मल-मूत्रके सिवाय उसमें और क्या है। गन्दगीकी टोकरी है। मरनेके बाद तो क्या पता भगवान् मल-मूत्रका कीड़ा बना दें। यही बात स्त्रियोंको पुरुषोंके प्रति समझ लेनी चाहिये। इन सबको छोड़कर परमात्माका ध्यान करना चाहिये। भगवान् श्रीराम तथा श्रीकृष्ण कितने ऊँचे हैं, वे बड़े ही निर्मल हैं, चेतन हैं। भागवतमें कथा है—जिस समय ग्वालबालोंको तथा बछड़ोंको ब्रह्माजी चुराकर ले गये, तब भगवान‍्ने बड़ी लीला की। ठीक वैसा-का-वैसा ही रूप बना लिया, तब ब्रह्माजी जान गये कि ये साक्षात् परमात्मा हैं। वे भगवान् की स्तुति, प्रार्थना करने लगे। चेतन भगवान् ही सबके रूपमें हो गये। भगवान् जन्मते-मरते नहीं, किन्तु ऐसे प्रतीत होते हैं मानो वे जन्मते-मरते हों। मतलब यह है कि मनुष्योंकी तरह ही भगवान् दीखते हैं, परन्तु समझना चाहिये कि बहुत अधिक अन्तर है। परमात्मा चेतन है। चन्द्रमामें जिस प्रकार तेजतत्त्व प्रधान है, उसी प्रकार परमात्मामें चेतनता प्रधान है, नित्य ज्ञानस्वरूप हैं। भगवान् जो कुछ करते हैं सब ठीक करते हैं। वे असम्भवको भी सम्भव बना सकते हैं। शुद्ध भगवान् के साकाररूपमें प्रेम न करके हाड़-मांसके पुतलेमें प्रेम करना कितनी बड़ी मूर्खता है। जिस स्त्रीसे प्रेम करते हैं उसके गुण-प्रभावकी ओर तो देखो। परमात्माके एक अंशमें भी सारे संसारके गुण नहीं समा सकते। भगवान‍्से जो प्रेम करता है, उसे भगवान् स्वत: अपनेको समर्पित कर देते हैं। पूतनाको भगवान‍्ने माताकी गति दी। पूतना झूठी माँ बनी, विष देनेवाली माँको सद्गति दी। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि जब विष पिलानेवाली माताको यह गति दी तो यशोदा जो दूध पिलानेवाली माता है, उसे क्या गति दी। यशोदा धमकाती है तो भगवान् काँपते हैं। यशोदा जिस आँगनमें रहती थी, उस आँगनकी धूलिमें भी मुक्ति है। यशोदा दूसरोंको भी मुक्ति दे सकती है। एक ब्राह्मणदेवताको भोजनके लिये यशोदा मैयाने बुलाया। उसने कहा कि मुझे सामग्री दे दो, मैं अपने-आप भोजन बनाऊँगा। भोजन बनाया और भगवान् का स्मरण किया। भगवान् बालकरूपमें तो थे ही, आ गये और खाने लगे। फिर दूसरी बार भोजन तैयार किया और भगवान् का स्मरण किया। वे आये और खाने लगे। तब फिर ब्राह्मणने यशोदासे कह दिया तो यशोदाने कहा कि मेरी गलती हुई, अब मैं इसे बाँधकर रखूँगी। तीसरी बार भी इसी प्रकार जा पहुँचे। तब माताने उन्हें पीटा। तब भगवान‍्ने मातासे कहा कि मैं क्या करूँ। यह मुझे क्यों बुलाता है? तब वह समझ गया कि ये साक्षात् भगवान् हैं। तब वह यशोदाके आँगनमें लोटने लगा। यशोदाने पूछा कि क्या कर रहे हो। उसने कहा कि आपके आँगनमें मुक्ति है। यशोदाके आँगनमें आनेसे ही पूतनाको मुक्ति मिली। ऐसे साक्षात् जो सगुण-साकार भगवान् हैं, उनको छोड़कर जो दूसरोंको भजता है, वह मूर्ख है। पूर्णब्रह्म परमात्माको छोड़कर जो सांसारिक विषयभोगोंमें रम रहा है, उसे धिक्कार है। ‘एक कंचन एक कामिनी दुर्लभ घाटी दोय।’ इनको त्यागनेके बाद फिर मान-बड़ाईके त्यागकी यथाशक्ति चेष्टा करनी चाहिये। मान-बड़ाई तथा ईर्ष्याको हटानेकी चेष्टा करनी चाहिये। स्वामीजी आये, बड़ी पूजा की, मान-सत्कार आदि भी किया। मैं आया तो मेरा भी वैसा ही सत्कार किया। हमने देखा कि श्रद्धालु हैं। कहीं तिरस्कार हुआ तो कहते हैं कि यहाँ आना ही नहीं है। बहुत-से आदर-सत्कारमें ही फँस जाते हैं। कंचन-कामिनी इन दो घाटियोंको त्यागनेके बाद फिर मान-बड़ाईको भी त्यागनेकी चेष्टा करनी चाहिये। एक ओर मान दूसरी ओर अपमान दोनों ही समान होने चाहिये।

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयो:।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीत: स उच्यते॥
(गीता १४।२५)

मान तथा अपमानमें तुल्य है, मित्र तथा शत्रुमें तुल्य है, ऐसे सब आरम्भोंका त्यागी गुणातीत कहा जाता है।

यह घाटी भी विशेष नहीं है, इसका भी त्याग हो सकता है। कोई कहे कि आप धर्मात्मा हैं, आपकी सेवा करनेसे हमारा कल्याण होगा और मैं कहूँ कि कर लो तो समझना चाहिये पतन किसका होगा? हमारा पैर धोकर पीये, जूठा खाये, मैं समझ लूँ कि क्या हर्ज है? उद्धार होवे तो होने दो। यह भाव ज्ञानीमें नहीं होता। जहाँ यह भाव है कि क्या आपत्ति है, वहीं मामला गड़बड़ है। इसका भी तिरस्कार कर दिया तो और आगे कीर्ति है। स्वामीजी बड़े अच्छे हैं। पुष्पकी माला पहनाते हैं तो वे फेंक देते हैं। कपड़ा भी फट जाता है तो वह नहीं लेते। पूजा-प्रतिष्ठा तो बहुत ही खराब है। कोई पूजा-प्रतिष्ठा स्वीकार करे तो समझना चाहिये कि स्वाँग भरा है। कोई अपमान करता है तो दु:ख होता है, कोई मान करता है तो मनमें प्रसन्नता होती है। मानसे यदि परे हो गया तो आगे बड़ाई कहती है कि यहाँ तो मैं रोक ही दूँगी। बहुत-से नामधारी साधक ही इससे परे होते हैं। जो भी बड़े-बड़े नेता हैं उनको बड़ाई घेर लेती है, यही मनुष्यकी उन्नतिमें बाधक है। पक्षी है उसके पैरोंके सूत बँधा हुआ है। वह यदि चाहे कि मैं कहीं उड़ूँ तो वह उड़ता है, परन्तु खींचनेसे वापस आ जाता है। इसी प्रकार मान-बड़ाईने सभीको बाँध रखा है। संसाररूपी माया है, यही साधकोंके रस्सी बँधी हुई है, जैसे पतंगमें डोरी बँधी हुई होती है, वैसी ही मान-बड़ाईकी डोरीसे मनुष्य बँध जाता है। यदि इससे भी आगे जाता है तो आगे ईर्ष्या नामकी एक राक्षसी बैठी है। वह यह सोचता है कि मेरी तो प्रतिष्ठा है ही, शरणानन्दजीकी मेरेसे भी अधिक है। उनकी मेरेसे अधिक प्रतिष्ठा क्यों है? स्वामीजी तो त्यागी हैं ही नहीं। मैं त्यागी हूँ, मेरी प्रतिष्ठा नहीं उनकी प्रतिष्ठा है। यह अन्धेर है। हमारी मान-बड़ाईमें कमी आवे तो कोई बात नहीं, दूसरोंकी प्रतिष्ठा नहीं होनी चाहिये। हमारेसे बढ़कर कोई है ही नहीं। आपके यहाँ कोई महात्मा है तो बताओ। फिर मुझे महात्मा क्यों नहीं मानते। मुझसे बढ़कर त्यागी और कौन होगा? यह अहंकारका तन्तु है। शरीरमें देहाभिमान है, जीवभाव है। शरीरमें आत्मबुद्धि अहंकारके ही कारण है। अहंकारके नाशसे ही इन सभीका नाश हो सकता है। यह अज्ञान है, इसका ज्ञानसे नाश कर देना चाहिये। यथार्थ ज्ञानसे अन्त:करणकी शुद्धि होती है। नामजप, स्वाध्याय, वैराग्य, उपरतिसे बड़ा लाभ है। भगवान‍्ने कहा है—

अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल-
मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा॥
(गीता १५। ३)

इस दृढ़ वृक्षकी जड़को दृढ़ वैराग्यरूपी शस्त्रके द्वारा काट देना चाहिये।

इस संसाररूपी वृक्षको तीव्र वैराग्यरूपी शस्त्रसे काट डालो। भीतरसे सम्बन्ध-विच्छेद करना ही काटना है। तत्पश्चात् फिर परमात्मामें मन लगाना चाहिये। उन्हींकी ही शरण हो जाना चाहिये। परमात्माकी शरण होनेसे ममता, अहंकारका अपने-आप ही अभाव हो जायगा। परमात्माकी चीज परमात्माको ही समर्पण कर देनी चाहिये। शरण हो गया तो उद्धार हो गया।

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