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विरह और प्रेमकी साधना

प्रवचन—दिनांक ६। ५। १९४५, सायंकाल ६.३० बजे, गंगातट, स्वर्गाश्रम

इस प्रेमके मार्गमें चले तो बारम्बार प्रसन्नता, रोमांच होता है, हृदय प्रफुल्लित हो जाता है, गद्गद हो जाता है। भागवत, गीता, रामायणके श्लोक पढ़ें तो अर्थकी ओर ध्यान देनेपर उस भावसे भावित होकर प्रसन्नता, शान्ति और मुग्धता होती है। प्रथम अवस्थामें इसका अनुभव थोड़ा होता है और आगे बढ़नेपर अधिक होने लगता है।

विरह-व्याकुलताके मार्गमें भरत या गोपियोंका अनुकरण करे। युधिष्ठिरमें विरह-व्याकुलता नहीं थी। भरतजी प्रतीक्षा करते हैं, दु:खी होते हैं, चिन्ता कर रहे हैं, विलाप कर रहे हैं। अपने पाप, अवगुण और दुर्गुणोंको याद करके कहते हैं—मैं पापी हूँ, इस बातको जानकर भगवान् नहीं आये। भगवान् के सामने रोये, स्तुति और प्रार्थना करे। मिलनेके लिये व्याकुल होवे, जैसे मित्र मित्रके लिये, पति पत्नीके लिये, पत्नी पतिके लिये व्याकुल होते हैं, वैसे ही भगवान‍्से मिलनेके लिये व्याकुल होवे। सहन नहीं हो सके, ऐसा भाव दरसाये। भरत तथा गोपियोंकी नकल करे। स्त्रियोंमें गोपियोंकी और पुरुषोंमें भरतकी नकल करे। अशोकवाटिकामें सीताजीकी, शिशुपालके बारात लेकर आनेके समय रुक्मिणीजीकी विरह-व्याकुलता भी नकल करनेयोग्य है। प्रथम तो नकली विरह-व्याकुलता होती है, फिर समय-समयपर रोना और अश्रुपात होता है। वियोग और दु:खके कारण, भगवान् के नहीं आनेके कारण, विलम्ब करनेके कारण हृदय भी गद्गद हो जाय, जैसे जलके बिना मछलीकी तड़पन और व्याकुलता होती है, वैसे ही तड़पते हुए विनय, स्तुति और प्रार्थना करे। कभी-कभी विनोदमें यह भी कल्पना करे कि आप दयालु हैं, आप अन्तर्यामी हैं, मेरे हृदयको देख रहे हैं, फिर मुझे क्यों तड़पाते हैं? मैं क्या करूँ? मरूँ या गड़ूँ? उसीकी चिन्तामें रहे। जैसे ऋणीको रात्रिमें निद्रा कम आती है, दिनमें चैन नहीं पड़ता, वैसा ही भाव बनाये। अबतक भगवान् नहीं आये तो कब आयेंगे? शेष जीवन क्या ऐसे ही व्यतीत होगा। भगवान् के सिवाय कोई बात अच्छी नहीं लगे। सांसारिक वस्तु बुरी लगे और क्रोध आये। मनमें यह लहर उठे कि चलो यहाँसे। खाना, पहनना सब भाररूप हो जाय। शरीर, कंचन, कामिनी, भोग, ऐश, आराम, शौकीनीसे वृत्तियाँ हट जायँ और ये सब भगवान् की भक्तिमें बाधक मालूम दें। दु:खके कारण दूसरोंसे बुरा व्यवहार भी हो सकता है। दु:ख है भगवान् के नहीं आनेका। यह दूसरी अवस्था बीचकी अवस्था है।

प्रेमके विषयमें प्रसन्नता बतलायी थी। मन-ही-मन भगवान‍्से खूब बातें हो रही हैं। प्रत्यक्षमें मनसे हो रही है, हँस रहा है और आशा तथा प्रतीक्षा है कि भगवान् आज नहीं आये तो कल आयेंगे और अवश्य मिलेंगे। खूब विश्वास है, निर्भर है। जैसे प्रह्लादजी, नरसी मेहताको कोई चिन्ता और विचार नहीं है। उसी प्रकारका भाव हो, भगवान् के साथ मन-ही-मन मिलन हो रहा है। रोमांच, अश्रुपात, प्रसन्नता और शान्ति है, यह रमण है, दिन-रात ऐसा करे। सब क्रियाओंके साथ-साथ भगवान् को समझे। प्रसन्नता, शान्ति, प्रेममें मुग्ध होकर फिरे। यह दोनोंके बीचकी अवस्था है।

इसके आगेकी अवस्था विरह-व्याकुलताकी तीसरी अवस्था है। जैसे कोई आदमी भगवान् के लिये विरहमें व्याकुल हो जाय, भगवान् के बिना अपना जीवन भार मालूम दे। वह मरना आत्महत्या नहीं। खाना-पीना सब विषके समान है, देहकी स्मृति नहीं, बाहरी ज्ञान बहुत कम है। शरीर कहीं पड़ा रहे, खाओ या नहीं खाओ, न रातकी नींद और न दिनकी भूख है। न लज्जा, न भय, रात-दिन किसीका भय नहीं, निर्भय है। शरीरका ज्ञान नहीं, एक भगवान‍्से मिले बिना जीवन भार है। शरीरमें प्राण कहाँ अटक रहे हैं। जैसे सीताकी अवस्था है, एक-एक क्षण भार मालूम देता है। सीताजी हनुमान्से कहती हैं, मैं एक माह और प्रतीक्षा करती हूँ, फिर प्राणोंका त्याग कर दूँगी।

विरह-व्याकुलतामें कोई परवाह नहीं रहती। बाहरका ज्ञान कम हो जाता है। लोग चाहे सो कहें—परवाह नहीं। जैसे गोपियाँ कहती हैं कि लोग चाहे कुलटा ही कहें। वे शास्त्रकी मर्यादा छोड़ती नहीं, किन्तु उनसे मर्यादाका पालन नहीं हो पाता। बस, रात-दिन रोना ही होता है। कभी अपने ऊपर दोषकी कल्पना करती हैं और कभी भगवान् के ऊपर। प्रेममें भगवान्पर दोषारोपण करती हैं। रुक्मिणीजीका उदाहरण—शिशुपालके साथ विवाह नहीं किया—पपीहा स्वाति बूँदके सिवाय और जल नहीं पीता। ‘तद् विस्मरणे परमव्याकुलता’ बार-बार छटपटाना भगवान् के बिना चैन नहीं पड़े।

मैं आशिक तेरे रूप पे बिन मिले सबर नहीं होती।

बाहरकी अवस्था पागलपन-सरीखी, बेहोशीकी-सी होती है, शरीर कृश हो जाता है, बाहरका ज्ञान कम हो जाता है। वास्तवमें वह उन्मत्त तथा पागल नहीं है। बाहरसे धूम-धड़ाका, मारना-काटना नहीं होता, परन्तु दूसरोंकी दृष्टिमें बाहरी ज्ञान कम पड़ जाता है। भगवान् की विरह-व्याकुलतामें देश-काल, खान-पान, सोना—इनके ज्ञानसे रहित हो जाता है। केवल एक लगन रहती है—

लगन-लगन सब कोई कहे लगन कहावै सोय।
नारायण जा लगनमें तन मन दीजे खोय॥

यह विरह-अवस्थाकी बात है। अब प्रेमकी तीसरी अवस्था जैसे पागल आदमी हँसता है, बालककी-सी चेष्टा करता है, वह भगवान‍्से नित्य मिलता है, खूब विनोद करता है, कभी भगवान् को पकड़ता है, बातचीत करता है। ये सब भाव मानो प्रत्यक्ष हो रहे हैं। उसके आनन्द, प्रसन्नता, शान्ति और प्रेमका ठिकाना नहीं रहता। उसको प्रतीत होता है कि उसकी हर एक क्रियाके साथ भगवान् हैं। यहाँ मनसे प्रत्यक्ष देख रहा है। गाना, नाचना, प्रेम करना यह सब मन-ही-मन करता है। कभी-कभी बाहर भी करने लगता है। भगवान् की क्रियाके साथ अपनी क्रिया हो रही है। भगवान् की क्रिया प्रत्यक्ष नहीं, किन्तु मनसे कर रहा है। उसको बाहरका ज्ञान नहीं रहता। दिखावा अर्थात् नकली नहीं है। उसको भगवान् प्रत्यक्षकी तरह दीखते हैं। इस तरहका भाव हर समय रहता है। बाहरके उठने-बैठने-सोनेका ज्ञान बहुत कम है। इसका शरीर व्याकुलताकी भाँति कृश नहीं है, पीला नहीं है। वहाँ संयोग है, तड़पन नहीं है। विरह-व्याकुलतामें वियोग है, तड़पन है। यहाँ प्रसन्नता, शान्ति, आनन्द, विनोद, क्रीड़ा है, भगवान् के साथ है। भगवान‍्ने कहा है—

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥
(गीता १०।९)

निरन्तर मुझमें मन लगानेवाले और मुझमें ही प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन मेरी भक्तिकी चर्चाके द्वारा आपसमें मेरे प्रभावको जनाते हुए तथा गुण और प्रभावसहित मेरा कथन करते हुए ही निरन्तर सन्तुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेवमें ही निरन्तर रमण करते हैं।

हर समय प्रसन्नता और शान्ति है। ये स्वाभाविक उसमें रहते हैं। प्रेम है, मिलन है।

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
(गीता१०।१०)

उन निरन्तर मेरे ध्यान आदिमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तोंको मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं। विरहमें भरतजीकी दशा इस प्रकार हुई—

राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत।
बिप्र रूप धरि पवनसुत आइ गयउ जनु पोत॥

वहाँ विरह-व्याकुलतामें हनुमान‍्जी आये, यहाँ भगवान् आ जाते हैं। गोपियाँ भगवान् के विरहमें व्याकुल हुईं तो भगवान् ही प्रकट हो गये। विरह-व्याकुलता और प्रेमके मार्गमें शरीर और संसारकी लज्जा, खान-पान, सोना, जीना, बाहरी ज्ञानकी बेपरवाही दोनोंमें लगभग समान है। प्रेमके मार्गमें ज्यादा झुकाव नहीं है। बाहरी ज्ञान, बाहरी सँभाल भी होती है। नीतियुक्त बर्ताव भी हो जाता है, किंतु विरहकी बिचली अवस्थामें भूल हो जाती है। प्रेमके मार्गमें चकोरका उदाहरण है। संयोगमें हँसना, विनोद, शान्ति, आनन्द प्रधान है। वियोगमें रोना, तड़पना प्रधान है और भी थोड़ा-थोड़ा अंतर पड़ सकता है।

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