भगवान् की एवं गीताजीकी विशेषता
प्रवचन—प्रथम वैशाख शुक्ल ५, संवत् १९९१, प्रात:काल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम
जनकपुरमें धनुष तोड़ना कोई बड़ी बात नहीं थी। कोई भी श्रेष्ठ पुरुष साधारणकी तरह विचरे, वही प्रभावकी बात है। संसारमें महत्त्व पाकर प्राय: अभिमान आ जाता है। परशुरामजीको अपना प्रभाव दिखाया, धनुष अपने-आप चढ़ गया, वे शान्त हो गये। अध्यात्मरामायणमें दूसरे प्रकारका विषय है। वहाँ परशुरामजी नहीं आये, राजा लोग नहीं आये, केवल धनुष लाया गया, उसे भगवान्ने तोड़ दिया, वहाँ परशुरामजी रास्तेमें मिले। लक्ष्मणजीने वहाँ कुछ भी नहीं कहा है। भगवान्ने धनुष चढ़ा दिया और कहा—इस तीरको कहाँ छोड़ूँ, लक्ष्य खाली नहीं जायगा। परशुरामजीने कहा—मैंने पुण्यलोकोंकी प्राप्तिके लिये जो कुछ पुण्यकर्म किये हैं, वे सब आपके इस बाणके लक्ष्य हों। वहाँ रामजीने बहुत कठोर शब्द कहे हैं, जितना तोड़नेका महत्त्व है उससे अधिक महत्त्वपूर्ण परशुरामजीका शान्त हो जाना है। भगवान् के राजतिलक स्वीकार करनेमें, वनमें जानेमें महत्त्व है, रहस्य है, प्रभाव है। रहस्य क्या है, जैसे सीताजीने कहा कि मैं भी आपके साथ चलूँगी, लक्ष्मणने भी यही कहा। माताजी कहती हैं—न जाओ, भगवान् कहते हैं, जाऊँगा। इसमें भी रहस्य है। दशरथजीने भी फिर बुलाना चाहा। जहाँ-जहाँ स्वार्थका त्याग है, वहीं रहस्य है, दशरथजीकी यदि दूसरी बात मान लेते तो कोई महत्त्वकी बात नहीं रहती। बड़ोंकी आड़ लेकर, स्वार्थकी आड़ लेकर काम तो सारा संसार कर ही रहा है। बड़ोंकी आज्ञापालनका महत्त्व उसीमें है, जिसमें आपत्तिका सामना करना पड़े। राज्यको लात मारकर वनमें जानेमें भी रहस्य है। लक्ष्मणने कहा, मैं भी चलूँगा। भगवान्ने कहा—नहीं, तुम यहीं रहो। पहले आज्ञा देते हैं रहो, फिर स्वीकार करते हैं—चलो। आज्ञा परिवर्तन करनेमें बड़ा रहस्य है। प्रेम एक ऐसी चीज है कि उसमें नीतिका भी त्याग हो जाता है। यह भी नीति है। जब यह मालूम हो गया कि यह मेरे वियोगसे बहुत दु:खी होगा, तब ले जाना स्वीकार कर लिया। नहीं कहनेसे लक्ष्मणजीकी उत्कण्ठा बढ़ी, कोई भी अच्छा पुरुष अपने साथ कहीं जानेके लिये नहीं कहता। आग्रह, श्रद्धा, उत्साहसे जाना ही उत्तम है। आज मैं बद्रीनारायण जानेके लिये विचार करूँ और दूसरोंसे भी कहूँ कि आप भी चलें तो कोई विशेषता नहीं है। एकने कहा कि मैं भी चलूँ। मना करनेपर उत्साह और आग्रहसे जाय तो विशेष लाभ है। बहुत उत्कण्ठा होनेपर ही सीताको भगवान्ने चलनेके लिये आज्ञा दी। कौसल्या माताने भी नहीं जानेके लिये आज्ञा दी, पर भगवान्ने कहा कि मैं पहले पिताजीकी आज्ञा मानकर फिर लौटकर आपकी आज्ञा स्वीकार करूँगा। दशरथजीको विलाप करते हुए छोड़कर भगवान् चले गये, इसीका प्रभाव है कि जब भगवान् आते हैं तो सब चकोरकी भाँति देखनेके लिये उत्सुक हो रहे हैं। वियोगसे प्रेम बढ़े तो वियोग उत्तम है, साथ ले जानेसे प्रेम बढ़े तो साथ ले जाना उत्तम है। भगवान् का प्रभाव ही भरतजीपर पड़ा, जिससे अन्तमें वह प्रेम प्रकट हुआ। रामजीका बड़ा सराहनीय व्यवहार है। जहाँ-जहाँ गये, बड़े प्रेमका अद्भुत व्यवहार किया, शबरीके साथ कैसा प्रेम किया। दिखला दिया कि मेरी भक्तिमें जाति-पाँतिकी कोई बाधा नहीं है।
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
(गीता ४। ११)
हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ।
सुग्रीवको कहा—
निज दुख गिरि सम रज करि जाना।
मित्रक दुख रज मेरु समाना॥
केवल कहा ही नहीं, अपितु करके दिखा दिया। लंका जीतकर विभीषणको राज्य दे दिया। समुद्रमें भगवान्ने अपना प्रभाव दिखाया है। सीता-विरहकी कुछ भी परवाह न करके पहले सुग्रीवका काम किया। भरतके प्रेमके सामने विभीषणके अनुरोधको भी नहीं माना। दूसरोंका प्रयोजन पूर्ण करनेके लिये खूब चेष्टा करते हैं। अपने प्रयोजनकी बात ही नहीं है। सारी कथामें नीति, रहस्यादि भरा हुआ है। एक-एक लीलाका अनुकरण करना चाहिये। बड़े आनन्दसे वनमें जाते हैं, आज मैं धन्य हूँ, पिताकी आज्ञा और माताकी सम्मतिसे वनको जा रहा हूँ। कैसे विनय, प्रेमके साथ आज्ञा मानते हैं। भगवान् प्रकट होकर, प्रभाव प्रकट करके मर्यादासे स्वयं अर्जुनको अपना रहस्य बताते हैं—
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥
(गीता ४। ६—९)
मैं अजन्मा और अविनाशी-स्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ। हे भारत! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूपको रचता हूँ अर्थात् साकाररूपसे लोगोंके सम्मुख प्रकट होता हूँ। साधु पुरुषोंका उद्धार करनेके लिये, पाप-कर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी अच्छी तरहसे स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ। हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् निर्मल और अलौकिक हैं—इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्वसे जान लेता है, वह शरीरको त्यागकर फिर जन्मको प्राप्त नहीं होता, अपितु मुझे ही प्राप्त होता है।
अपना रहस्य खोलनेके लिये ही भगवान् अर्जुनके प्रति अपना रहस्य कहते हैं। साधुओंका उद्धार और दुष्टोंका संहार कोई बड़ी बात नहीं है, परन्तु धर्मको स्थापित करनेके लिये भगवान् ही कह सकते हैं। कहीं भी गीता-जैसा उपदेशका संग्रह नहीं है। जो मेरे दिव्य कर्म और जन्मको तत्त्वसे जान जाता है, वह संसारसे तर जाता है। भगवान् की क्रियामें, चालमें सुहृदता भरी हुई है। दया, उदारता प्रकट होनेमें भी यही बात है। बिना हेतु अनाथ, दु:खी सबको चाहते हैं। जो जैसे उनको चाहता है वैसा ही व्यवहार करते हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्डके मालिक छोटे-से-छोटे आदमीके साथ प्रेमका व्यवहार करते हैं। कितना प्रभाव, प्रेम, महत्त्व भरा हुआ है। प्रेममें छोटा-बड़ा कौन है। भगवान् कहते हैं—
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥
(गीता १४।२७)
उस अविनाशी परब्रह्मका और अमृतका तथा नित्यधर्मका और अखण्ड एकरस आनन्दका आश्रय मैं हूँ।
ज्ञानं कर्म च कर्ता च त्रिधैव गुणभेदत:।
प्रोच्यते गुणसङ्ख्याने यथावच्छृणु तान्यपि॥
(गीता १८। १९)
गुणोंकी संख्या करनेवाले शास्त्रमें ज्ञान और कर्म तथा कर्ता गुणोंके भेदसे तीन-तीन प्रकारके ही कहे गये हैं, उनको भी तू मुझसे भलीभाँति सुन। अन्तमें स्पष्ट कह दिया—
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
(गीता १८। ६५-६६)
हे अर्जुन! तू मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो और मुझको प्रणाम कर। ऐसा करनेसे तू मुझे ही प्राप्त होगा, यह मैं तुझसे सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ; क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है। सम्पूर्ण धर्मोंको अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोंको मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान्, सर्वाधार परमेश्वरकी ही शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर। कितना प्रभाव है ‘मन्मना भव’ यह कौन कह सकता है।
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतस:।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिता:॥
(गीता ९। ११-१२)
मेरे परमभावको न जाननेवाले मूढ लोग मनुष्यका शरीर धारण करनेवाले मुझ सम्पूर्ण भूतोंके महान् ईश्वरको तुच्छ समझते हैं, अर्थात् अपनी योगमायासे संसारके लिये मनुष्यरूपमें विचरते हुए मुझ परमेश्वरको साधारण मनुष्य मानते हैं। वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञानवाले विक्षिप्तचित्त अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृतिको ही धारण किये रहते हैं।
न मे विदु: सुरगणा: प्रभवं न महर्षय:।
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वश:॥
(गीता १०।२)
मेरी उत्पत्तिको अर्थात् लीलासे प्रकट होनेको न देवतालोग जानते हैं और न महर्षिजन ही जानते हैं, क्योंकि मैं सब प्रकारसे देवताओंका और महर्षियोंका भी आदिकारण हूँ।
अर्जुनके वचनोंमें कितना प्रभाव है। अर्जुन कहता है, भगवान् स्वीकार करते हैं कि मैं नारायण हूँ। भगवान्ने अर्जुनसे यह गोपनीय, बड़े रहस्यकी बात कही, किन्तु भगवान् के प्रभावको देखकर अर्जुन भय करने लग गया।
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥
(गीता ११। ४१)
आपके इस प्रभावको न जानते हुए आप मेरे सखा हैं, ऐसा मानकर प्रेमसे अथवा प्रमादसे भी मैंने ‘हे कृष्ण!’, ‘हे यादव!’, ‘हे सखे!’ इस प्रकार कुछ बिना सोचे-समझे हठात् कहा है।
मुझ साक्षात् परमात्मा, परमेश्वरसे डरनेका क्या काम है। मैं तो अपराध ही नहीं समझता, यह प्रेम है। अर्जुन तो घबड़ा उठा था।
यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्॥
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥
(गीता १०। ४१-४२)
जो-जो भी विभूतियुक्त अर्थात् ऐश्वर्ययुक्त, कान्तियुक्त और शक्तियुक्त वस्तु है, उस-उसको तू मेरे तेजके अंशकी ही अभिव्यक्ति जान। अथवा हे अर्जुन! इस बहुत जाननेसे तेरा क्या प्रयोजन है। मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपनी योगशक्तिके एक अंशमात्रसे धारण करके स्थित हूँ।
दसवें अध्यायमें २० से ३९वें श्लोकतक तो साधारण विभूतियाँ बतलायी गयी हैं। भगवान्ने आगे जाकर इनका तिरस्कार कर दिया कि बहुत जाननेसे तेरा क्या प्रयोजन है। तुम यह मत समझना कि मैं साधारण मनुष्य हूँ। जैसे अग्नि वस्त्रमें नहीं बाँधी जा सकती, वैसे ही कृष्ण नहीं बाँधे जा सकते। भगवान्ने कहा कि धृतराष्ट्र! तेरा पुत्र दुर्व्यवहार कर रहा है, यह मुझे बाँधना चाहता है। मुझे अकेला समझकर मारना चाहता है, सारे देवता मेरेमें हैं। फिर अपना रूप दिखाया, लोग मूर्छित हो गये। रूपको समेट लिया, मूर्छा खुल गयी। भगवान्ने सन्धि नहीं करायी, इसलिये उत्तंकने कहा कि मैं तुम्हें शाप देता हूँ। भगवान्ने कहा—मैं नहीं चाहता कि आपका तप नष्ट हो जाय। मैं कृष्णरूपमें साक्षात् परमात्मा हूँ। आप इस महत्त्वको नहीं जानते, इसीलिये ऐसा कहते हैं। सारे नक्षत्र, सारी पृथ्वी प्रभुकी ही है। उत्तंकके प्रार्थना करनेपर भगवान्ने उन्हें विराट् स्वरूप दिखलाया। बिना हेतु ही भगवान्ने जबरदस्ती पीछे पड़कर अर्जुनके मनमें प्रभाव जमाया, यह बड़ी बात है। दसवें अध्यायमें पहले तो विभूतियाँ बतलायीं, फिर अपना प्रभाव दिखाया। संसारमें उदारता देखकर हम प्रशंसा करते हैं। सारे संसारकी दया इकट्ठी करनेपर भी उस दयासागरकी दयाके एक बूँदके समान भी नहीं हो सकती। सहस्र सूर्य एक साथ उदय हों तो भी उस ईश्वरकी एक किरणके समान भी नहीं होता, गोपियोंका, गोपोंका, सारे संसारका प्रेम उस प्रेमसागर प्रभुकी एक लहरके समान भी नहीं है। उनके प्रभावकी महिमा कौन गा सकता है। हम जिसे उत्तम समझते हैं, उसका उदाहरण देते हैं। पर उसके सामने ये कुछ भी नहीं है। कितना भारी प्रभाव है। विषदात्री पूतनाको भी मुक्ति दी, नीच व्यवहार करनेपर भी उसके साथ प्रेमका, दयाका व्यवहार किया। एक राजा सिपाहीके वेशमें आकर उदारतासे दु:खियोंका प्रबन्ध करे तो उसको सुनकर मनमें आनन्द होता है। ऐसे व्यवहारकी कितनी प्रशंसा करते हैं। उनके प्रभावको कौन कह सकता है। वहाँ वाणी, मन, बुद्धि सब रुक जाते हैं। किसीकी शक्ति नहीं कि उसका चिन्तन भी कर सके।
इतने प्रेमी हैं, सामर्थ्यवान् होकर प्रेमके वशमें उनके साथ क्रीड़ा करते हैं। गोपियोंके, गोपोंके साथ नाच रहे हैं, कितना प्रेम भरा हुआ है। जैसी लीला वे चाहते हैं, वैसी करनेको तैयार हैं। ऐसे प्रभावशालीको जानकर फिर हम रुपयोंमें प्रेम करते हैं। जब यह बातें सत्य हैं, हमें विश्वास है, फिर दूसरे कामसे हमें क्या प्रयोजन होना चाहिये। भगवान् सारे संसारको आनन्दित करनेवाले हैं और जो भगवान् को आह्लादित कर दे, वही प्रेम है। रामायणमें भगवान् कहते हैं—
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई।
मम अनुसासन मानइ जोई॥
गीतामें भगवान् कहते हैं—
संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय:।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥
(गीता १२।१४)
जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें किये हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चयवाला है—वह मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।
भक्तमें दो बातें प्रधान होनी चाहिये। प्रभुमें मन-बुद्धि लगा देना, उनकी प्रसन्नतामें प्रसन्न होना—जो ऐसी भक्ति करता है, प्रभु उसके आधीन हो जाते हैं। तीस, चालीस वर्ष पहले गीताके जाननेवाले बहुत कम थे, कुछ लोग केवल दसवें अध्यायका पाठ करते थे। अर्थका पता ही नहीं था। दसवें अध्यायमें भगवान् के प्रभावकी जितनी बात है, उतनी अठारहवेंको छोड़कर किसीमें नहीं है। नवें अध्यायके अन्तमें ‘मन्मना भव’ ये वचन कहे। फिर प्रारम्भमें ही अपना प्रभाव दिखाया, फिर भजनेकी आज्ञा दी। दसवेंके अन्तिम दो, नवें अध्यायका अन्तिम, अठारहवेंका ६५-६६ ये श्लोक अतिशय महत्त्वके हैं। चौदहवें अध्यायमें जैसी गुणकी बात आयी, एक-एक श्लोकमें ऐसे रहस्य हैं कि एकके धारणसे ही बेड़ा पार हो जाय। आवश्यकता थी इसलिये आसुरी सम्पदा कही, नरकके तीन द्वार हैं, नरकमें ले जानेके लिये महारथी हैं—
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥
(गीता १६। २१)
काम, क्रोध तथा लोभ—ये तीन प्रकारके नरकके द्वार आत्माका नाश करनेवाले अर्थात् उसको अधोगतिमें ले जानेवाले हैं। अतएव इन तीनोंको त्याग देना चाहिये।
धारणकी भी बात, त्यागनेकी भी बात बतलायी गयी है। जितने आदि और अन्तमें अध्याय हैं उनमें बहुत महत्त्वकी बात भरी हुई है, अन्तिम श्लोकमें पूर्णाहुति है। गीताके अन्तिम श्लोकमें कितना प्रभाव दिखलाया है—
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर:।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥
(गीता १८।७८)
हे राजन्! जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन हैं, वहींपर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है—ऐसा मेरा मत है। भगवान् का गीता-जैसा प्रभाव कहीं नहीं है।