महापुरुषोंमें श्रद्धा और भावकी विशेषता
प्रवचन—दिनांक ९/११/४१
यह ऐसा प्रकरण है चाहे नित्यप्रति कहा जाय। हम उन महापुरुषोंके लीला-रहस्यको समझते ही नहीं। यदि थोड़ा भी समझमें आ जाय तो वे जो भी क्रिया करें—उनका खाना, पीना, बोलना, चलना, उन सबमें उपदेश—शिक्षा भरी रहती है, प्रेम भरा रहता है और रहस्य भरा रहता है। समझनेके साथ ही उनकी सारी क्रिया इतनी आनन्ददायक हो जाय कि हम उसे देख-देखकर आह्लादित होते रहें। आनन्द समाये ही नहीं। चाहे कैसी भी क्रिया हो, शास्त्रके अनुकूल हो, प्रतिकूल हो, हमारी दृष्टि ही नहीं जायगी। जैसे अनन्य प्रेम करनेवाली एक स्त्री है, उसका एकान्तमें पतिके साथ वार्तालाप होता है। पतिकी हर एक क्रिया उस स्त्रीके लिये आनन्ददायक होती है। उसकी प्रत्येक क्रिया आनन्दसे भरी रहती है। उसको देख-देखकर वाणी गद्गद हुई रहती है। नेत्र डबडबाये रहते हैं। अपने आपका ध्यान नहीं रहता।
जिसमें जितनी श्रद्धा होती है, उतना ही वह उसके रहस्यको समझता है। जितना रहस्य समझमें आता है उतना ही उसका परिवर्तन हो जाता है। गोपियाँ भगवान् की क्रिया, स्वरूप सभीको देखकर आनन्दित होती थीं। गोपियाँ भगवान् की प्रत्येक क्रियाको देखकर आह्लादित होती थीं। वहाँ यह बात नहीं है कि यह शास्त्रके अनुकूल है, यह प्रतिकूल है। वहाँ तो यह दृष्टि ही नहीं थी।
जहाँ प्रेम है वहाँ कानून, नीति, आदर, सत्कार यह सब कलंक है। जहाँ ये सब हैं, वहाँ प्रेम नहीं है। वह तो लौकिक दिखाऊ प्रेम है, सभ्यता है। भगवान् किसी भी स्वरूपमें हों, हैं तो भगवान् न! भगवान् जब गौओंको चराकर आया करते थे, गोधूलिमें सने रहते थे, सारे शरीरपर धूलि जमी रहती थी। गोपियाँ इस स्वरूपको देखकर मोहित हो जाती थीं। यदि धूलिसे धूसरित होनेसे सुन्दरता आती हो तो हमलोग भी लगावें। बात तो यह थी कि वे भगवान् थे, वे चाहे जिस रूपमें हों, चाहे उन्हें मिट्टी खाते देखें, चाहे रोते देखें, चाहे मक्खन खाते देखें, वह तो उनकी लीला है। श्रद्धालुको तो सारी बात लीला दीखती है। जैसे बाजीगर नाटक करता है। वह बाजीगर जिस प्रकार जमूरेसे करवाना चाहता है जमूरा वही करता है। उनके राग-द्वेष नहीं होता।
यह जो उदाहरण दिया जाता है कि कुँआ तेरी माँ मरी, मरी। कुँआ तो जड़ है पर जमूरा तो चेतन है। उसकी सारी क्रिया बाजीगरके संकेतके अनुसार होती है। इसी प्रकार श्रद्धालु पुरुषसे उसकी सारी क्रिया अपने श्रद्धेयके संकेतके अनुसार स्वाभाविक ही हुआ करती है। वह करता नहीं, हुआ करती है। जैसे मनुष्य जिधर जाता है, उसकी छाया पीछे-पीछे चलती है। कठपुतलीकी सारी क्रिया सूत्रधारके आधीन रहती है। इसी प्रकार भगवान् के भक्तकी प्रत्येक क्रिया भगवान् के अनुकूल रहती है, भगवान् के प्रतिकूल नहीं।
ऐसे ही महात्मा पुरुष होते हैं इनके तत्त्वको हम जान जायँ तो हमारी भी क्रिया उसी तरह होने लगे। अपना कोई मन ही नहीं रहे, जिसके अनुकूल और प्रतिकूल हो। उसका मन तो स्वामीके आधीन हो जाता है। उसकी फिर निजकी इच्छा रही ही क्या। जब निजकी इच्छा ही नहीं रही, तब अनुकूलता-प्रतिकूलता क्या रहे। कठपुतलीमें अनुकूलता, प्रतिकूलता रहनेकी गुंजाइश है क्या? जिसकी ऐसी स्थिति स्वाभाविक हो जाती है, वह फलरूप अवस्था है। आरम्भमें तो करना पड़ता है फिर स्वाभाविक ही यह अवस्था हो जाती है। जैसे पहले जप किया जाता है, फिर अभ्यास दृढ़ हो जाता है तो स्वाभाविक जप होने लगता है, प्रयत्न नहीं करना पड़ता। ऐसे ही श्रद्धालुकी ऐसी स्थिति स्वाभाविक हो जाती है। इस बातको समझानेके लिये एक काल्पनिक कथा है।
एक ब्राह्मण देवता थे। वे पढ़े नहीं थे। बुद्धिमान् भी नहीं थे। खर्चका अभाव हो गया, तब ब्राह्मणीने कहा—यहाँका राजा बड़ा दाता है। आप उनके पास जाइये। वे ब्राह्मणोंका बड़ा सत्कार करते हैं। वास्तवमें यह बात भी थी, पर ब्राह्मणको डर था कि मुझे बोलना नहीं आता, लोग हँसी उड़ायेंगे। पर ब्राह्मणीके आग्रहसे वे राजाके पास गये। स्त्रीने एक पुस्तक दे दी। ब्राह्मणने देखा कि मैं पढ़ना ही नहीं जानता, फिर इसका क्या करूँगा। स्त्रीने कहा कुछ हर्ज नहीं, ले जाओ। ब्राह्मणने सोचा कि मैं राजाके यहाँ जाऊँगा तो सिपाही मारेंगे। वे बाजारमें एक टूटे मकानमें जाकर छिप गये। एक कुम्हारका गधा खो गया था। वह ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उस मकानमें आया। ब्राह्मणको देखा, सोचा ये महात्मा हैं। ब्राह्मणको एक रुपया देकर कहा महाराज यह भेंट है, मेरा गधा मिल जाय, ऐसा उपाय बता दीजिये। ब्राह्मणने देखा कि यह रुपया देता है, इसे ऐसी दवा बता दो, जिससे यह मर जाय, नहीं तो मुझे मारेगा। ब्राह्मणने कहा तुम जाकर एक तोला धतूराका बीज खा लो। कुम्हारको तो महात्माके वचनोंमें श्रद्धा थी, धतूरेका बीज खा लिया। रातमें जब नशा हुआ तो जंगलमें घूमने लगा। घूमते-घूमते उसका हाथ अपने गधेपर ही पड़ गया। गधा मिल गया। एक दिन कुम्हार बनियेके पास गया। बनिया उदास बैठा था। कुम्हारने कहा उदास क्यों हो? उसने कहा मैंने हीरा खरीदा था, वह खो गया। मिल नहीं रहा है। कुम्हारने कहा एक महात्मा पुरुष हैं, मेरे साथ चलो वे बता देंगे। उन्होंने मेरा गधा बता दिया था। कहा थोड़ी भेंट ले लो। उधर क्या हुआ कि ब्राह्मण ब्राह्मणीके पास गये। एक रुपया देकर कहा—राजाने कहा है कि फिर मत आना। पर ब्राह्मणीने फिर आग्रह किया तो फिर आये। उसी मकानमें आकर छिपकर बैठ गये। इधर बनिया और कुम्हार आये, पूछा महाराज इस बनियेका हीरा खो गया है, इसका पता बता दीजिये। ब्राह्मणने पंचांग उठाया। कुम्हार तो समझता नहीं था, बनियेने देखा कि ये तो सीधा पंचांग देखना नहीं जानते। कुम्हारने कहा महात्माकी तो उलटी ही गति होती है। बनियेको कहा तुम सीधा देखो, तुम्हारी महात्मामें श्रद्धा नहीं है। तब बनियेने कहा अच्छा मेरा अपराध हुआ। ब्राह्मणसे पूछा महाराज क्या करना चाहिये, आप बताइये। ब्राह्मणने कहा तुम एक तोला धतूरेका बीज खा लो। बनियेने कहा ठीक है। पर विचार किया कि धतूरेका बीज खानेसे नशा हो जायगा तो मर जाऊँगा। कुम्हारसे कहा तो कुम्हारने थप्पड़ मारी। मूर्ख तेरा महात्माके वचनमें विश्वास नहीं है, तेरा हीरा नहीं मिलेगा। मैंने भी तो धतूरेका बीज खाया था, मैं तो जीता बैठा हूँ। महात्माके कहनेके अनुसार खानेवाला मरेगा क्या? चाहे विष भी खा जाओ। बनियेने धतूरेका बीज खा लिया। रातको नशा हुआ, वह इधर-उधर घूमने लगा। उसका हाथ आलमारीके ऊपर पड़ा, जहाँ उसका हीरा रखा गया था, मिल गया तो बड़ा प्रसन्न हुआ। इधर ब्राह्मणने ब्राह्मणीको ले जाकर इक्कीस रुपये दिये। कहा कि राजाने कहा है कि अब मत आना। ब्राह्मणीने कहा राजा तो ऐसे ही कहा करते हैं, आपको जाना चाहिये।
बनिया राजाके पास जाया-आया करता था। बनियेको प्रसन्न देखकर राजाने पूछा कि क्या बात है। कल तो उदास थे, आज प्रसन्न क्यों हो। बनियेने कहा कि मेरे हीरे खो गये थे, एक महात्मा हैं इनकी कृपासे मिल गये। राजाने कहा ऐसे महात्माका मुझे भी दर्शन करा दो। बनियेने ब्राह्मणसे कहा कि महाराज आपका दर्शन करना चाहते हैं, आप चलेंगे क्या? ठीक है बारह बजेका समय दे दिया। बनियेने जो एक सौ रुपये भेंट दिये थे, लाकर घरमें रखे। ब्राह्मणीने कहा नित्य जाया करो। ब्राह्मणके मनमें विचार हुआ कि राजाके पास जाना ठीक नहीं, ऐसा अनुचित व्यवहार करो राजा बुलाये ही नहीं। इतनेमें बनिया आ गया, कहा ग्यारह बजेका समय हो गया, चलें। मनमें विचार किया कि राजाके चलकर जूता लगाओ, चाहे जो हो। अब शहरमें उसका दबदबा हो गया कि पगलेसे ब्राह्मणका इतना मान हो गया है। अब सब उसके दर्शनके लिये उत्सुक हो रहे हैं। ब्राह्मण घरसे जूता उठाकर भागता हुआ चला। बनियेने कुम्हारसे पूछा कि जूता लेकर क्यों जाते हैं। कुम्हारने कहा—मूर्ख! महात्माओंकी क्रिया समझमें नहीं आती। उनका रहस्य पीछे खुलता है। ब्राह्मणने राजाके सिरपर जूता मारा, सारी सभामें हल्ला मच गया कि यह क्या बात है। राजाकी पगड़ी सिरसे गिर गयी, उसमेंसे साँप निकला। बात यह थी कि उनकी पगड़ी जब खूँटीपर रखी हुई थी तो उसमें साँप प्रवेश कर गया था। उसीको राजा साहबने सिरपर रख लिया था। यदि ब्राह्मण जूता मारकर थोड़ी देरमें उसे नहीं गिराते तो साँप महाराजको काट लेता। सब आश्चर्यचकित हो गये। महाराजने हजारों मोहरें भेंट कीं। बनिये और कुम्हारने मोहरें ब्राह्मणके घर पहुँचा दीं।
कुम्हारको तो जो कुछ उस ब्राह्मणकी क्रिया होती थी, आनन्ददायक ही दीखती थी। श्रद्धाका प्रकरण समझानेके लिये यह उदाहरण है। सारी विपरीत क्रिया कुम्हारको अनुकूल दीखती है। गधा खोजनेके लिये धतूरेका बीज खानेको कहना यह कौन-सी युक्ति है। राजाके बुलानेपर जूता मारना यह कौन-सी युक्ति है, यह तो ब्राह्मणके प्रारब्धसे तुक मिल जाता है। जितनी भी उसकी क्रिया होती, कुम्हारको तो सब अनुकूल ही दीखती। यह तो नकली महात्माओंकी बात है, असली हों उनकी तो बात ही क्या है। श्रद्धा ऐसी होनी चाहिये, शंकाकी गुंजाइश ही न रहे। कुम्हारको ब्राह्मणकी प्रत्येक क्रिया आनन्ददायक दीखती थी। इसी प्रकार श्रद्धालुको महात्माकी प्रत्येक क्रिया आनन्ददायक ही दीखती है।
महात्माकी जो कुछ क्रिया है, उनका किसीके साथ भी सम्बन्ध है, उनके द्वारा जो कुछ भी वस्त्र छुआ जाता है, श्रद्धालुको उसमें अलौकिकता दीखती है। महात्माके साथ जिन चीजोंका संसर्ग हो जाता है, उसके भीतर उसको अलौकिकता प्रतीत होने लगती है।
गंगाका जल है और नदीका भी जल है। विधर्मियोंको तो दोनों एक-सा ही जल दीखता है। हमारे पास भी एक लोटेमें लाकर दोनों जल रख दें तो हम पहचान नहीं सकते, परन्तु हमें मालूम हो जाता है कि यह गंगाजल है तो झट हमारा दूसरा ही भाव हो जाता है। रास्तेमें जाते हैं, पूछा कि यह कौन-सी नदी है, बताया गंगा है तो तुरंत दूसरा ही भाव हो जाता है। गंगाका ज्ञान होनेके बाद श्रद्धाके कारण भाव बदल जाता है। जिस चीजका हमें ज्ञान है उसमें शुरूसे ही दूसरी बात है। हम जा रहे हैं, रास्तेमें वृक्ष आते हैं। हम लघुशंकाके लिये बैठे, तुलसीका पौधा दीखा तो झट खड़े हो जाते हैं कि यह तो तुलसीका पौधा है। यहाँ लघुशंका कैसे करें। विधर्मीके यह भाव ही नहीं होता। जिसके भाव होता है, उसकी क्रिया बदल जाती है। हम मन्दिरोंमें जाकर भगवान् की मूर्तिको देखकर प्रणाम करते हैं। विधर्मी उसे तोड़नेकी चेष्टा कर सकता है।
श्रद्धा होनेसे उसकी क्रिया बदल जाती है। आँख वैसी ही विधर्मीके है, वैसी ही हमारे है। कुछ अन्तर नहीं है। दीखनेमें कुछ अन्तर नहीं दीखता, पर भाव होनेसे क्रिया बदल जाती है। एक श्रद्धालु महात्माको देख रहा है, दूसरा भी देख रहा है, देखनेमें अन्तर नहीं है। पर श्रद्धालुके नेत्र वे ही होते हुए भाव दूसरा होनेसे दूसरी दृष्टिसे देखता है। उस महात्माको स्पर्श करके जो वायु चलती है उस वायुके लगनेसे मुग्ध हो जाता है। वही वायु दूसरोंके भी लगती है पर उनके वह भाव नहीं होता। नदी बह रही है, हमलोग वहाँ स्नान कर रहे हैं। एक महात्मा भी स्नान कर रहे हैं, उन महात्माको छूकर जो जल आ रहा है, वह जल श्रद्धालुको स्पर्श करता है तो वह गंगाजलसे भी बढ़कर उसे समझता है। प्रत्यक्षमें गंगाजलसे बढ़कर उसे दिखायी देता है। उसकी स्पर्श की हुई धूलिको भी वह श्रद्धाके कारण दूसरी दृष्टिसे देखता है।
अक्रूर भगवान् की चरणधूलिको देखकर रास्तेमें कूद पड़े। अन्य लोग भी उस रास्तेसे जाते थे, पर उन्हें विशेषता नहीं दीखती थी, अक्रूरजीको दीखती थी। वे उस धूलिमें लोटने लगे।
भरतजी जब भगवान् के चरण-चिह्नोंको देखते हैं तो उन्हें भगवान् के मिलने-जैसा आनन्द होता है। मस्तकपर लगाते हैं। उनकी दशा विलक्षण हो गयी। जड़ चेतन और चेतन जड़ हो गये। वहाँ चरण-चिह्न पहलेसे थे और लोगोंने देखा भी था, पर उनकी अवस्था ऐसी नहीं थी। श्रद्धालुको ही ऐसी अलौकिकता दीखती है। वह उस बातको समझा नहीं सकता। जब जिसमें यह बीतती है, वह ही नहीं समझा सकता तो मैं तो फिर समझाऊँगा ही क्या? वास्तवमें जिसमें यह बीतती है, वही जान सकता है। महात्मा जब श्रद्धालुको छू देता है तो उसके सारे शरीरमें प्रेम और आनन्दसे इतनी विह्वलता हो जाती है कि वह बेहोश हो जाता है। छूनेके साथ सारा शरीर प्रेमसे ऐसा हो जाता है कि वह उसे सँभाल नहीं सकता।
भाव अलौकिक चीज है। भगवान् की प्राप्ति भावसे होती है। देवताकी प्राप्ति भी भावसे होती है। देवता न काठमें हैं, न मिट्टीमें हैं न पत्थरमें हैं। जहाँ भाव है, वहाँ देवता है। सभी चीजमें यही बात है। भाव ही प्रधान है। लौकिक बातोंमें भी यही बात है। एक स्त्रीको सिंह देखता है तो वह उसे खानेका पदार्थ देखता है, बच्चेको पालनेवाली माँ दीख रही है। महात्माको अलौकिक वस्तु दीख रही है, वह परमात्माको देख रहा है, विरक्तको त्याज्य वस्तु दीख रही है।
इसलिये महात्माओंमें, शास्त्रोंमें जिस प्रकार हमारी श्रद्धा हो, वही प्रयत्न हमें करना चाहिये।