ध्यानमें वटवृक्षके स्थानकी महिमा
प्रवचन—दिनांक १/५/४०, प्रात:काल, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम
यहाँ वैराग्य तो स्वाभाविक सिद्ध है। वैराग्यकी बात कही गयी, अब तो स्वाभाविक ही हृदयमें वैराग्यकी लहरें उठनी चाहिये। हमलोग सब घर चले जाते हैं, घरपर ध्यान करते हैं, यहाँका चित्र याद कर लेते हैं तो चित्तकी वृत्तियाँ बदल जाती हैं। यहाँका दृश्य अलौकिक दृश्य है। गंगाके इस पार और उस पार वन-ही-वन है। यह वैराग्य उत्पन्न करनेवाला है। महात्मालोग वनमें प्रवेश कर जाते, वहाँ कोई चीज नहीं दीखती, उनके वैराग्य छा जाता। हमलोग भी वनमें प्रवेश कर जाते हैं तो वनमें घुसनेसे ही चारों तरफ वैराग्य छा जाता है। हमलोग अपने देशोंमें चले जाते हैं, वहाँपर भी इसका चित्र वैराग्य उत्पन्न कर देता है। अब तो इस जगह ही बैठे हुए हैं। हमलोगोंको वैराग्य नहीं होता तो मैं तो यही समझता हूँ कि हमलोगोंको कोई वैराग्यवान् उपदेश दे तो वैराग्य हो सकता है। मैं तो गृहस्थ हूँ। कोई बहुत विरक्त पुरुष हो, संसारसे उपराम हो, हमलोग भी पात्र हों तो एक बारके आदेशसे ही ऐसा वैराग्य हो जाय कि जीवनपर्यन्त उसका नशा बना रहे तो कोई आश्चर्य नहीं। भाई लोगोंके भी कभी वैराग्य होता है तो जैसे ज्वर उतर जाता है, उसी प्रकार थोड़े कालमें उतर जाता है। तीव्र वैराग्यवान् महापुरुष वनमें जब विचरते हैं, उनकी छायासे, उनके दर्शनसे दूसरोंके वैराग्य हो जाता है। उनका स्मरण करके हमको उपराम होना चाहिये। उपरति और वैराग्य ये शब्द ही ऐसे हैं, जिनसे मनुष्यके वैराग्य हो जाता है। अब हमलोगोंको प्रभुके ध्यानमें मस्त होना चाहिये। ध्यानके पूर्वमें प्रभुका आवाहन करना चाहिये, फिर समझना चाहिये मानो प्रभु आ ही गये हैं, फिर प्रेममें विह्वल हो जाना चाहिये। होश आये तब भगवान् की पूजा करनी, भोग लगाना, आरती उतारनी चाहिये। फिर प्रार्थना करनी चाहिये कि हे प्रभु हमारे हृदयमें आपका यह ध्यान कायम रहे, हम आपसे यही चाहते हैं। वसिष्ठजीने भी भगवान्से यही प्रार्थना की थी।
भगवान्से यही प्रार्थना करें दर्शन चाहे मत दो, हमारा यह ध्यान बना रहे। ध्यानके लिये पहले सुखपूर्वक स्थिरतासे बैठना चाहिये। आवाहन करना चाहिये, फिर मानो भगवान् आ गये हैं। ध्यानमें मस्त हो जाना चाहिये। यहाँ जो वायु चलती है, मन्द-मन्द गन्ध आती है, प्रत्यक्षमें शान्तिप्रद है। यहाँ कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता, प्रत्यक्षमें शान्ति बढ़ती जाती है। यहाँ मृत्यु भी हो जाय तो कृतकृत्य हो गये। भगवान्से प्रार्थना करे कि ऐसी अवस्थामें हमारी मृत्यु हो तो ठीक ही है।
मनको सब ओरसे हटाकर, उपराम होकर भगवान्में लगा दे, उसीका नाम मच्चित्ता है, युक्तका मतलब है लगाकर वहीं ठहरा दे, फिर किसीके चिन्तनकी आवश्यकता नहीं है, प्रभुका जो दिव्य स्वरूप है, वहीं अपने मनको लगाकर टिका दे। मनरूपी भौंरेको भगवान् के मुखकमलपर टिका देना चाहिये। सदाके लिये स्थित कर देना चाहिये, फिर ध्यानमें ऐसा मस्त हो जाना चाहिये, मानो हमारा अभाव ही हो गया। भगवान् की जो माधुरी मूर्ति है, उसमें अपनेको ऐसा तन्मय कर देना चाहिये, जिसमें न देशका, न कालका, न अपने शरीरका ही ज्ञान रहे। यह सूत्ररूपसे बता दिया।
प्रेम और ज्ञान भगवान् का स्वरूप है। उसका आवाहन करना चाहिये, वह चिन्मयस्वरूप है। वही ज्ञानके रूपमें आता है। शरीरके भीतर जो ज्ञानकी बड़ी भारी दीप्ति है, वह रोम-रोममें व्याप्त हो जाती है। उसके बाद बड़ा भारी प्रकाश दीखता है। सूर्यकी रोशनीसे भी बढ़कर प्रकाश और चन्द्रमाकी छायाकी तरह शीतल ऐसा प्रकाश नेत्र बंद करनेपर भी प्रतीत होता है। फिर जब मूर्तिमान् होकर दीखता है तो उसको किन शब्दोंमें कहा जाय। वे भगवान् कैसे हैं? धनुष-बाणके सहित भगवान् रामका स्वरूप सामने आ जाता है, मानो साक्षात् आनन्दके ही रूपमें प्रकट हो गये हैं। उस माधुरी मूर्तिका ध्यान होता है तो मनुष्य अपने-आपको भुला देता है। भगवान् चाहें तो सारे संसारका एक क्षणमें ध्यान लगा सकते हैं।