एकादशीव्रतकी विधि एवं महिमा
एकादशीके दिन हो सके तो मौन रहे, इससे जप-ध्यान होगा और वृत्ति बाहरकी ओर कम जायगी। यदि बोलना पड़े तो मितभाषी बने। ब्रह्मचर्यका पालन बड़े जोरोंके साथ रखे। अपनी स्त्रीसे भी आवश्यकता पड़े तो नीची गर्दनसे बात करे। सब प्रकारसे, सब इन्द्रियोंसे ब्रह्मचर्यका पालन करे, किसीकी हिंसा न करे। जो कुछ हिंसा करनी पड़ती है, वह अन्न-जलके लिये है, वहाँ भी त्याग करना पड़े तो मूल्यवान् है। एकादशीके दिन दातुन न करे, इससे भी हिंसा होती है और उसका अंश भी शरीरमें चला जाता है। मंजन भी नहीं करे, क्योंकि शरीरमें उसका अंश चला जाता है। दातुनसे एकादशी नष्ट हो जाती है।
भजन-ध्यान एक ऐसी चीज है, जिसमें हिंसा होती नहीं। अन्य सब आरम्भोंमें हिंसा होती है।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:॥
(गीता १८।४८)
धूएँसे अग्निकी भाँति सभी कर्म किसी-न-किसी दोषसे युक्त हैं।
उस दिन भगवान् का भजन-ध्यान-सत्संग तो करना ही चाहिये। पाप तो छोड़ना ही चाहिये। झूठका, भोग-आरामका त्याग करे। एकादशीको परम तप करे, हो सके तो रातको जागरण करे। एकादशीको जागरण करनेका ज्यादा माहात्म्य है। भगवान् के नामका जप, पूजा, स्तुति, प्रार्थना और भगवान् की भक्तिमें ही रात बितावे। दिनमें भक्ति की और रातको भी की तो ज्यादा माहात्म्य है। रातभर भजन न हो सके तो रातको बारह बजे ही सोवे। शयन करे तो पृथ्वीपर शयन करे, चारपाई और गद्दोंपर नहीं। सब भोगोंका त्याग करे। इन्द्रियोंको काम दे। कानोंसे भगवान् के नाम-गुणका श्रवण करे, वाणीसे भगवान् के नामका जप करे, महिमाका गान करे और मनसे भगवान् का ध्यान करे। पवित्रतासे रहे। गंगामें तीन समय स्नान करे, अन्य दिन न हो सके तो एकादशीको तो करना ही चाहिये और सारा दिन पवित्र व्यवहारमें बितावे। हृदय पवित्र रखे। काम, क्रोध, लोभका बुरा भाव नहीं आवे। व्यवहारमें काम, क्रोध, द्वेषका काम नहीं हो। हृदयका भाव भी पवित्र होना चाहिये। सुख, दु:ख, हानि, लाभ जो कुछ आकर प्राप्त हो, उसको भगवान् का भेजा हुआ पुरस्कार समझकर बर्ताव करे। भोगोंकी ओर तो दृष्टि उठाकर भी नहीं देखना चाहिये। इस प्रकार तपस्या करनी चाहिये। भगवान् के नामका जप, स्वरूपका ध्यान और स्वाध्याय करे। बन सके तो दूसरोंका उपकार करे। अतिथि, दु:खी, माता-पिता, गुरुकी सेवा करे। व्यवहार करे तो विनयका करे और भीतरमें त्यागका भाव रखे। अपना कर्तव्य समझकर व्यवहार करना चाहिये। शरीर, वाणी, मनसे व्यर्थ चेष्टा नहीं करनी चाहिये। व्यर्थके संकल्प, वाणीसे व्यर्थ बोलना—यह नहीं करे। बोले तो नम्रतापूर्वक बोले। कोई भी अपराध कर दे तो क्षमा कर दे। कोई हमारी मान, बड़ाई करे तो उनको स्वीकार न करे, इस बारेमें निश्चय दृढ़ रखना चाहिये।
ये बातें सदा करनी चाहिये। ये नित्य नहीं हो सके तो एकादशीको अवश्य करनी चाहिये। उपवास नहीं कर सके तो एक बार ही भोजन करे। उपवास करनेवालेको द्वादशीके दिन भी एक बार भोजन करना चाहिये।
जिस एकादशीको तीनों तिथियाँ पड़ जायँ तो उसे त्रिस्पर्शी एकादशी कहते हैं। तीन तिथि एक दिन हो, उस एकादशीका बड़ा माहात्म्य है। तीनों तिथियाँ एक दिन आ जायँ, उस दिन बिलकुल उपवास करे तो यह सबसे बढ़कर है, किन्तु एक बार भोजन कर ले तो दोष नहीं। त्रयोदशीको भोजन कर ले। एकादशीके दिन अन्नमात्र खाना पाप बतलाया गया है।
यानि कानि च पापानि ब्रह्महत्या समानि च।
अन्नमाश्रित्य तिष्ठन्ति तानि वै हरिवासरे॥
ब्रह्महत्यातकके जो कोई पाप हैं, वे सारे एकादशीके दिन अन्नमें आकर बैठ जाते हैं।
बीमारके लिये सब बातोंकी छूट है। आप एकादशी नहीं करेंगे तो पाप नहीं लगेगा। अन्न खानेसे पाप लगेगा। एकादशीसे पापोंका नाश होता है, यह बताया है। सकाम फल और निष्काम फल बतलाया है। जो निष्कामभावसे एकादशी करता है, उसके अन्त:करणकी शुद्धि होकर परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। सकामभावसे कर्म करे तो उसको वह फल मिलता है।