घरमें त्यागका व्यवहार एवं अतिथिसेवाकी महिमा
प्रवचन—दिनांक १३/५/४०, दोपहर, वटवृक्ष, स्वर्गाश्रम
माताओं, बहनों और पुरुषोंके लिये सबसे बढ़कर भगवान् का भजन है। वर्तमानमें हमारे घरोंमें स्त्रियोंमें शिक्षा कम है। इससे कलह अधिक है। हम यहाँ देखते हैं कि एक मकानमें बीस पुरुषोंको तो ठहरा देते हैं, किन्तु एक मकानमें यदि पाँच स्त्रियोंको ठहरा देते हैं तो कठिनता आ जाती है। घरमें भाई-भाई दस रहते हों तो कोई बात नहीं, स्त्रियाँ पाँच भी हों तो कलह होने लगता है। कलह जहाँ है, वहाँ कलियुगका निवास है, जहाँ ‘स’ और ‘त’ होते हैं वहाँ मंगल है। सतयुग ‘स’ और ‘त’से बनता है। कलियुग ‘क’ और ‘ल’ से बनता है, इसलिये कलह बहुत खराब है। अत: माताओंको चाहिये कि कलह न करें, कलह होनेसे क्लेश आता है। इसलिये हमको चाहिये कि कलह हो उसी समय उसको नष्ट कर डालें। कलह होता है क्रोधसे, इसलिये क्रोध ही न करे। क्रोध सारे अनर्थोंका मूल है, इसलिये हर एक माताओंको क्रोध नहीं करना चाहिये। जहाँ क्रोध आता है, वह उस स्थानको जलाता है। यह आग है। आग लग गयी, जोरकी हवा चली तो आसपासके सब घर जल जाते हैं। जैसे एक कुटियाके आग लगी, हवा चली तो आसपासकी सब कुटिया जल जाती है, इसी प्रकार किसीको क्रोध आ गया, जोरसे बात कही, बस दूसरेको भी उसकी बात सुननेसे क्रोध आता है, फिर कलह फैल जाता है। आगके पतंगे उड़ते हैं। उसी तरह क्रोधके वचन ही पतंगे हैं। अग्निकी चिनगारियाँ जैसे उड़ती हैं, उसी तरह सब क्रोधके वशीभूत हो जाते हैं। जब आग लग गयी अर्थात् क्रोध उत्पन्न हुआ तो आग बुझानेके लिये धूल और जल डालते हैं, इसी तरह क्रोध हो तो धूल, जल डालना चाहिये। धूल, जल डालनेसे तो क्रोध और बढ़ेगा ही, परन्तु क्रोधके लायक ही धूल, जल डालना चाहिये। अन्तमें कहते हैं कि जो कुछ हुआ धूल दो। शब्द तो यही है, परन्तु यह धूल नहीं है, इसका तात्पर्य है क्षमा कर दो।
जल क्या है? शान्तिके वचन ही जल है। शान्तिके वचन बोलना चाहिये। उसकी सारी बात स्वीकार कर ले, उसके अनुकूल वचन कहे। इससे वह शान्त हो जाता है। ऐसा भी कोई उपाय है, जिससे क्रोध हो ही नहीं? ऐसा उपाय ईश्वरका भजन है। जिस समय क्रोध होता है उस समय क्या ईश्वरकी भक्ति सुहाती है? ईश्वरका भक्त होता है उसके तो क्रोध आता ही नहीं। तुलसीदासजी कहते हैं—
बसहि भगति मनि जेहि उर माहीं।
खल कामादि निकट नहिं जाहीं॥
बात तो हम भी पढ़ते हैं, परन्तु क्रोध तो हमारे भी आता है। भगवान् कहते हैं नहीं आना चाहिये। अच्छा आप ईश्वरके भक्त हैं क्या? हाँ थोड़े बहुत तो हैं ही। तो थोड़ा आता होगा। पूरा भक्त होता है, उसको बिलकुल क्रोध नहीं आता। भगवान् के भक्त तो भगवान् के विधानमें सन्तोष करते हैं। अपने प्रारब्धका भोग तीन प्रकारसे होता है। स्वेच्छा, परेच्छा और अनिच्छा। स्वेच्छासे जो कार्य किया जाता है उसको स्वेच्छा प्रारब्ध कहते हैं। यदि भूकम्प हो जाय तो उसको अनिच्छा प्रारब्ध कहते हैं। भगवान्ने ही तो दिया। इसी प्रकार कोई गाली देता है। यह क्यों हो रहा है? हमारे पापका ही फल तो भुगताया जा रहा है। कौन भुगताता है? भगवान्। भगवान् का भक्त क्या क्रोध करेगा? हमारे मनके प्रतिकूल जो कार्यवाही होती है, वह हमारे प्रारब्धका फल तथा भगवान् का विधान है। मनके विपरीतमें क्रोध होता है। मनके विपरीत होता है, किन्तु वह ईश्वरका विधान हमारे कर्मोंका फल है। क्रोधका कार्य बन जाय तो भी क्रोध नहीं करना चाहिये। यदि रोयेंगे तो क्या लाभ होगा। भगवान् समझेंगे इसको मेरा विश्वास नहीं है। यह बात हमारे समझमें आ जाय तो हमें क्रोध नहीं आ सकता। अपने तो क्रोध करे ही नहीं। दूसरेको हो तो अपना ही अपराध माने। उससे क्षमा माँगनी चाहिये। कहे आपको क्रोध आया है, यह मेरा ही अपराध है। भगवान् के भक्त तो अपना अपराध मानते हैं। अपनेको क्रोध आता है, तब भी अपना ही दोष स्वीकार करते हैं। दूसरेको आता है, तब भी अपना ही दोष स्वीकार करते हैं। भगवान् कहते हैं—
संतुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय:।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥
(गीता १२।१४)
जो योगी निरन्तर संतुष्ट है, मन-इन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें किये हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चयवाला है—वह मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।
यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय:॥
(गीता १२।१५)
जिससे कोई भी जीव उद्वेगको प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीवसे उद्वेगको प्राप्त नहीं होता; तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगादिसे रहित है—वह भक्त मुझको प्रिय है।
ऐसा जो पुरुष है, वह मेरा प्रेमी है। दूसरेको क्रोध आता है, उसमें मैं ही हेतु हूँ, यह समझना चाहिये। मुझको क्रोध आ गया तो समझना चाहिये कि हमें भगवान्में विश्वास कहाँ है? योगी तो हर समय सन्तुष्ट रहता है।
यदि हर समय सन्तोष नहीं तो तुम कैसे भक्त हुए? भगवान् का भक्त समझता है कि जो कुछ भी हमारे प्रतिकूल होता है, हमारे पापोंका फल है, ईश्वर भुगता रहे हैं, ताकि भविष्यमें हम इस तरह न करें। हमको दण्ड मिल रहा है, यह हमारे ही अपराधोंका फल है। भोगना तो मूर्खोंको भी पड़ता है, वे रोकर भोगते हैं। हम भक्त हैं, इसलिये हँसते हुए भोगना चाहिये।
प्रभुकी कृपासे हम जी रहे हैं। जो कुछ हमारे मनके प्रतिकूल हो रहा है, वह हमारे पापोंका फल है। ईश्वर भुगता रहे हैं। इस प्रकार करेंगे तो भगवान् प्रसन्न होंगे। प्रह्लादपर कितने आक्रमण हुए, वह कभी बिगड़ा क्या? हँसते-हँसते सब सहा तो भगवान् प्रकट हो गये। भगवान् के भक्तोंके लक्षणोंको गीता १२। १३ से २० तक देखना चाहिये। उदाहरण प्रह्लादका देख लीजिये।
आपपर कोई क्रोध करता है, आप दण्ड देनेकी शक्ति होते हुए भी सह लेते हैं तो क्रोध करनेवाला आपसे क्षमा माँगेगा।
यदि आपपर कोई क्रोध करता है, आप उस समय पानी-पानी हो जायँ, उसे ऐसा कहें, मैं बड़ा नालायक हूँ, मेरा अपराध है, इसीलिये तो आप क्रोध कर रहे हैं। वह आपके ऐसा कहते ही शान्त हो जाता है। आपके मनके प्रतिकूल काम हो जाय, उस समय आप सोचें कि यह तो हमारे प्रारब्धसे हो गया। क्रोध करे ही नहीं। यदि वह क्षमा माँगने आये तो कहे कि आप तो निमित्त बन गये हैं। हमारे ही कर्मोंका फल है। आप विचार बिलकुल मत करिये, आपके ऐसा कहनेसे ही वह बड़ा प्रसन्न होगा।
प्रथम तो हर एक माताको अपना सुधार करना चाहिये, यदि आपमें काम-क्रोध बैठे हैं तो ये साक्षात् नरकके द्वार हैं। गीतामें काम-क्रोधको नरकका द्वार बतलाया है।
एक गृहस्थ जातिका वैश्य था। उसके घरमें स्त्रियोंमें कलह चलती थी। घरके लोग बड़े दु:खी थे। उस घरमें एक भले घरकी बहू आ गयी। उसके घरवाले सब भले पुरुष थे। इस घरमें साक्षात् कलियुग विराजमान हो रहा था। उसने सोचा मुझे यहाँ कहाँ ढकेल दिया। वह शिक्षित थी, उसने थोड़ी देर बाद सोचा कि भगवान्ने मुझे सेवा करनेके लिये भेजा है। वह देखती इस घरमें रोज लड़ाई होती है, यह नरकमें डालनेवाली है। उसके परिवारमें चार जेठानी, चार जेठ, एक सास, एक श्वशुर, दो ननद, चार बच्चे—इस प्रकार कुल बीस आदमी थे। वहाँ रसोई बनानेकी अलग-अलग पारी थी। किसीके ज्वर हो गया या कोई कष्ट हो गया, वह किसी दूसरेको कहती तो कोई सहयोग नहीं देती, बल्कि झगड़ा करती, अन्तत: विवश होकर रसोई बनानी पड़ती। वह सुशिक्षित थी, उसने एक दिन सुबह आकर जेठानीसे कहा कि एक समयकी रसोई मुझे दे दें। जेठानीने कहा घबड़ाओ मत, तुम्हारी भी पारी हो जायगी। अभी नयी आयी हो। उसके बार-बार आग्रह करने और उसकी मीठी बातोंसे प्रसन्न होकर उसने अपनी पारीकी रसोई उसे दे दी। इसी प्रकार उसने सबसे रसोई ले ली। सासको यह बात मालूम पड़ गयी। उसने कहा तू इतनी रसोई क्यों बनाती है। उसने कहा मेरे पिताने सिखाया है कि यही सच्चा धन है। आप बाधा मत डालिये। थोड़े दिन बाद घरमें धन बढ़ गया तो सबको श्वशुरने साड़ी आदि लाकर दी, नयी बहूने सब जेठानियोंको, ननदको जाकर दे दी, कहा कि मेरे पास तो पीहरसे लायी हुई बहुत पड़ी है। वह ही नहीं फटेगी। आपके लड़कियाँ हैं, सब काम आ जायगी। प्रेमसे प्रार्थना करके चारों जेठानियों और ननदके पास जाकर साड़ी छोड़ आयी। सासको पता लगा तो उसने कहा कि तुमने सब बाँट दिया। उसने कहा मेरा क्या था, सब आपका ही था। मुझे तो पिताजीने सिखलाया था पूर भेला मत करिये यानी कपड़ा आदि इकट्ठा मत करना। इकट्ठा करेगी तो मन इसमें अटक जायगा। दूसरोंको देकर शान्ति मिलेगी। वह सच्चा धन है। मरनेके बाद वह साथ जायगा। वस्त्र साथमें नहीं जायँगे, यही असली धन है।
थोड़े दिनमें उस घरमें लाखों रुपये बढ़ गये, उसके श्वशुरने एक-एक सेट गहना सबको बनवा दिया। वह ननदके पास जाकर उसे समझाकर गहना दे आयी, फिर जेठानियोंको भी समझाकर बचा हुआ गहना दे दिया। पूछनेपर कहा कि मेरे पिताने यह बात कही थी कि गहनोंमें मन रह जायगा तो यह नरकको देनेवाला है। असली धन इकट्ठा करना चाहिये। आप इसमें बाधा मत डालें। सासके पूछनेपर भी उसने कहा कि मरनेपर यह गहना कुछ काम नहीं देगा। सेवा करके दूसरोंको अपना सब अर्पण कर दे, उसका फल मुक्ति है और सब नकली धन है। जबतक देहमें प्राण है तबतक बुद्धिमान् पुरुषको यह कर लेना चाहिये। यह बात मेरे पिताने सिखलायी है। सासने सोचा बात तो ठीक है, उसने भी अपना दो-दो गहना, दो-दो कपड़ा लेकर सब बहुओंको दे दिया।
छोटी बहू शामकी रसोईके लिये भी जाकर बैठ गयी कि मैं करूँगी। सास आयी, पूछा कि यह क्या कर रही है? शामकी रसोई तो मैं करूँगी। तुम अकेली ही सारा धन इकट्ठा करती हो। हमें मुक्ति नहीं चाहिये क्या? उसकी बहुओंने पूछा क्या बात है, उसने कहा छोटी बहू ठग है, चतुर है, सेवा करके पुण्य लूटती है। वह सेवा करके हमलोगोंका किया हुआ तप ले लेती है। सब बहुओंने सोचा कि बात तो ठीक है। अब घरमें लड़ाई हो, वह कहे मैं रसोई बनाऊँगी, वह कहे मैं भोजन बनाऊँगी। तब उस बहूने श्वशुरसे कहकर गेहूँ मँगाकर पीसना शुरू किया। सासने पूछा कि क्या कर रही है? उसने कहा कि भोजन बनाना तो मेरे हिस्से आता नहीं है। गेहूँ पीसनेवाला काम ठीक है। इससे और जल्दी कल्याण होता है। दूसरे दिन सास जल्दी उठकर चक्की चलाने लगी। अब सब बहुओंने भी चक्की चलानेवाला काम शुरू कर दिया। तब छोटी बहूने कहा—अब मुझे रसोई बनानेवाला काम दे दो। तब सबने कहा कि पहले तो हमने मूर्खतासे दे दिया था, अब कैसे दे सकती हैं। पानी भरनेवाला नौकर देरीसे आता था। छोटी बहूने जल्दी उठकर पानी भर दिया। सासने पूछा तब कहा चक्कीसे बढ़कर यह काम है, तब सासने भी पानी निकालना शुरू कर दिया। अब उसने झाड़ू देनेका काम शुरू कर दिया, सासने पूछा तब कहा कि चरणोंकी धूल बुहारनेसे भगवान् जल्दी मिलते हैं। सब झाड़ू देने लगे। अब उसने देखा बर्तन मलो, लोग भोजन करके जायँ, उसी समय बर्तन मल ले। सासने कहा—यह क्या करती है? उसने कहा—मेरे पिताने तो यह सिखाया है कि यहाँ जो काम करेगी, उसीका ही जल्दी कल्याण होगा, आलसीका नहीं। अब सास बोली—तेरे पिताने क्या-क्या बात बतायी है, सब बताओ। उसने कहा—
भोजन बनानेसे मूल्यवान् है चक्की पीसना, उससे भी मूल्यवान् है पानी भरना, उससे भी मूल्यवान् है झाड़ू देना, उससे भी मूल्यवान् है बर्तन माँजना, उससे अधिक मूल्यवान् है कोई बीमार हो उसकी सेवा करना। अब घरमें लड़ाई होने लग गयी। एक कहे कि मैं करूँगी, दूसरी कहे मैं करूँगी। उस घरमें सतयुग आ गया। गाँवके लोग उस घरके दर्शन करने आने लग गये। वास्तवमें जिस घरमें इस प्रकारकी लड़ाई होती है, वहाँ देवता भी दर्शन करने आते हों तो आश्चर्य नहीं।
यह मार्ग सीधा मुक्तिका मालूम देता है। कलसे ही आरम्भ कर दे। खूब रसोई बनावे, यदि साधु-महात्मा मिल जायँ तो उनको खिलाकर खूब प्रसन्न हों। कोई दिन उनको देनेसे अपने लिये रोटी नहीं बचे तो बारह महीने एकादशी करनेका फल होता है। क्योंकि यह महायज्ञ है।
राजा युधिष्ठिरने यज्ञ किया था। उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा हुई। उस जगह एक नेवला आया। उसने मनुष्यकी बोलीमें बोलकर कहा—आपको अति प्रशंसा नहीं करनी चाहिये। मैंने एक ऐसा यज्ञ देखा है, वैसा यहाँ हुआ ही नहीं। उसने एक शिलोञ्छवृत्तिवाले ब्राह्मणकी कथा कही। यह कथा अश्वमेधपर्वमें आती है। उसके नियम था कि अतिथिको भोजन देकर ही भोजन करना है। कई दिन हो गये। अन्न नहीं मिला। शिलोञ्छवृत्ति उसको कहते हैं कि खेतमें अन्न बिखरा हुआ रहता है। किसानके ले जानेके बाद जो बचे वह ब्राह्मणोंका है। सात दिनतक ब्राह्मणको खानेको कुछ नहीं मिला। सातवें दिन थोड़ा जो मिला, उसको पीसकर सत्तू बनाया। भोजनकी तैयारी की लगभग एक सेर अन्न था। बाहर निकले, देखा एक बूढ़ा ब्राह्मण खड़ा है। उससे पूछा तो उसने भोजन करना स्वीकार कर लिया। उनके सामने थाली रख दी, उतनेसे वह तृप्त नहीं हुआ। स्त्रीके आग्रह करनेपर उसके हिस्सेका भी दे दिया, फिर भी ब्राह्मण देवता तृप्त नहीं हुए, लड़केने देनेका आग्रह किया, उसका हिस्सा भी दे दिया, इस प्रकर चारों हिस्सेका भोजन वह ब्राह्मणदेवता कर गये। वे ब्राह्मणदेवता साक्षात् धर्मराज थे। वे प्रकट हो गये, उन्होंने कहा कि मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। तुम मेरे साथ परम धामको चलो। वे सब परम धाम चले गये। उस थालीमें ब्राह्मणदेवताने चुल्लू किया था। उसमें मैं लोटा तो मेरा आधा शरीर सोनेका हो गया। उसी अभिलाषासे मैं यहाँ लोटा, ताकि मेरा बाकी शरीर भी सोनेका हो जाय, परन्तु मेरे कीचड़ लग गया। यह अतिथिसेवाका माहात्म्य है। अतिथिसेवा भी महायज्ञ है। सबसे प्रार्थना है कि सबके साथ ऐसा ही व्यवहार करना चाहिये। पहले बात बतायी थी, वह घरवालोंके साथ व्यवहारमें लानी चाहिये, दूसरी अतिथिके साथ लानी चाहिये।
अब दूसरी बात यह है, सत्संगी भाई आ रहे हैं, उनको माताएँ, बहिनें अपने-अपने कमरेमें जगह दें, खानेको भोजन दें, ऐसा करनेवालोंका अपने ऊपर मैं बहुत उपकार मानूँगा, यह बड़े हर्षकी बात होगी, क्योंकि कमरे रुक गये हैं। भगवान् कहते हैं—
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥
(गीता ४।११)
हे अर्जुन! जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ; क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं।
जो मनुष्य जिस बातको लेकर मेरी शरण आते हैं, मैं उनको वही चीज प्रदान करता हूँ। दूसरा भाव जो जिस भावसे भजता है, उसके साथ मैं वैसा ही व्यवहार करता हूँ, कोई स्वामिभावसे, कोई वात्सल्यभावसे, कोई किसी भावसे मुझे भजता है, उसी तरह उसके भावके अनुसार मैं बन जाता हूँ। तीसरी बात जिस प्रकार जो मेरेको भजता है, मैं उसको उसी तरह भजता हूँ। जो मेरेको चाहता है, मैं उसको चाहता हूँ। जो ध्यान करता है, मैं उसका ध्यान करता हूँ। सीताजी विरहमें व्याकुल हैं, इसलिये भगवान् भी व्याकुल हैं। भीष्मजी ध्यान करते हैं, इसलिये भगवान् भी ध्यान करते हैं।
युधिष्ठिरने पूछा कि आप किसका ध्यान करते हैं। भगवान्ने कहा कि शरशय्यापर पड़े भीष्मपितामह मेरा ध्यान कर रहे हैं, इसलिये मैं भी उनका ध्यान कर रहा हूँ।
जो मुझे अपने हृदयमें बसा लेता है, मैं भी उसे अपने हृदयमें बसा लेता हूँ। लक्ष्मीजीने अपने हृदयमें भगवान् विष्णुको बसा रखा है, इसीलिये विष्णुभगवान्ने अपने हृदयमें लक्ष्मीको बसा रखा है। उनके हृदयपर इसीलिये लक्ष्मीका चिह्न है।