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स्वार्थरहित सेवाकी महिमा

प्रवचन—दिनांक १७/५/५२, दोपहर, स्वर्गाश्रम

भगवान् का भजन, मन-इन्द्रियोंका संयम, स्वाध्याय इनको करना चाहिये। यह बहुत ही अच्छी तथा सिद्धान्तकी बात है। स्वार्थके त्यागकी बात तो जितनी कही जाय, उतनी ही थोड़ी है। निष्काम प्रेमभावसे सेवा की जाय तो उसके समान कोई सेवा है ही नहीं। त्यागसे भगवान् की प्राप्ति हो जाती है। चित्तमें प्रसन्नता होती है। चित्तका सुधार होकर उद्धार हो जाता है। यह बात विशेष मूल्यवान् बतायी गयी है। यह बात शास्त्रोंमें भी जगह-जगह मिलती है—

श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥
(गीता १२।१२)

मर्मको न जानकर किये हुए अभ्याससे ज्ञान श्रेष्ठ है, ज्ञानसे मुझ परमेश्वरके स्वरूपका ध्यान श्रेष्ठ है और ध्यानसे भी सब कर्मोंके फलका त्याग श्रेष्ठ है; क्योंकि त्यागसे तत्काल ही परम शान्ति होती है।

शरीरके द्वारा कोई भी क्रिया होवे, सभी स्वार्थरहित होनी चाहिये। सभी स्वार्थरहित हों तो विशेष मूल्यवान् है। हम कोई भी काम करते हैं, उसमें यह देखते हैं कि इस कामके करनेसे मुझे क्या लाभ होगा। हरेक काममें लाभ सोचते हैं, यही तो स्वार्थ है। यह बात तो सारे संसारमें है ही, अब इसकी क्या आवश्यकता है। हमें तो अपनेमें कोई विशेष बात रखनी चाहिये। प्रत्येक क्रियामें यह भाव होना चाहिये कि इस कामसे दूसरोंको क्या लाभ मिलेगा। इस कामसे मेरे द्वारा दूसरोंकी क्या सेवा होगी। सारे संसारकी सेवा करनेकी चेष्टा करनी चाहिये। जैसे कोई लोभी आदमी यह सोचता रहता है कि इस कामसे रुपये कैसे मिलें। ऐसे ही हमें सेवाके उपायोंकी खोज करनी चाहिये। एक तो होती है सेवा, दूसरी होती है परम सेवा। शरीरके उपकारको सेवा कहते हैं और आत्माके उद्धारका नाम है परम सेवा। आत्माके उद्धारके लिये विशेष चेष्टा करनी चाहिये। शरीरकी भी निष्कामभावसे सेवा करनेसे सेवा करनेवालेका कल्याण हो जाता है। अपंग, अनाथ, दु:खी, वृद्ध सभी ही पूजाके योग्य हैं, इनकी सेवा करनी चाहिये। बड़े चावसे और निष्कामभावसे सेवा करनी चाहिये। ऐसा सेवा करनेवाला सात्त्विक त्यागी होता है।

मुक्तसङ्गोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वित:।
सिद्‍ध्यसिद्‍ध्योर्निर्विकार:कर्ता सात्त्विक उच्यते॥
(गीता १८।२६)

जो कर्ता आसक्तिसे रहित अनासक्त होकर अहंकारसे अलग हुआ, धृति (धैर्य) उत्साहसे युक्त हुआ, सिद्धि-असिद्धिमें निर्विकार है, वह सात्त्विक कर्ता कहा गया है।

जैसे किसीके पुत्रका विवाह हो तो उसके तो उत्साह होता है स्वार्थसे, परमार्थमें तो इससे भी अधिक उत्साह एवं आनन्द आना चाहिये। मान-बड़ाईके लिये कर्म नहीं करना चाहिये। ऐश-आरामको त्यागकर प्रत्येक कामको करना चाहिये।

ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥
(गीता १२।१२)

ध्यानसे भी सब कर्मोंके फलका त्याग श्रेष्ठ है; क्योंकि त्यागसे तत्काल ही परम शान्ति होती है।

ध्यानसे भी कर्मोंके फलके त्यागकी विशेषता बतायी है। वर्तमान समयमें शिवकिशनजी डागाकी सेवाका काम अच्छा है। साधन समझकर कर रखा है। मान-बड़ाईकी इच्छा नहीं है, शरीरकी भी परवाह नहीं है। यह बात अनुकरणीय है। बद्रीदासजी लोहियाकी सेवाका काम भी बहुत सराहनीय था।

प्रश्न—कोई उदाहरण देकर समझाइये कि इस प्रकार सेवा करनी चाहिये।

उत्तर—कुन्तीकी सेवा सराहनीय तथा अनुकरणके लायक है। कुन्तीकी बातें तो बड़ी ही प्रसिद्ध हैं।

एक समय पाण्डव एकचक्रानगरीमें रहा करते थे। राजाने एक राक्षसके साथ जो वहाँ रहता था, समझौता कर रखा था कि तुम्हारे पास नित्य एक मनुष्य, एक भैंसा और एक गाड़ा उड़द आदि आ जाया करेगा। यदि राजा नहीं देता तो वह नगरमें आकर नगरको नष्ट-भ्रष्ट कर देता। सब घरोंकी पारी बँधी हुई थी। बारह वर्षके बाद उस घरकी बारी आयी, जिसमें कुन्ती रहती थी। सायंकाल घरवाले विचार करने लगे कि कल कौन जायगा। घरका मालिक कहता है कि मैं जाऊँगा, स्त्री कहती है कि मैं जाऊँगी। मेरा कर्तव्य है कि मैं पतिके प्राणोंको बचाकर अपने प्राणोंको त्याग दूँ। पतिने कहा तुम्हारा कहना ठीक है, बाल-बच्चोंकी सँभाल कौन करेगा। स्त्री तर्क देती है, आपके जानेके बाद कमाकर कौन लायेगा। मेरे जीते मैं आपका मरना कैसे सहन करूँ। बारह वर्षकी एक पुत्री थी। उसने कहा कि माता-पिताके बिना तो काम नहीं चलेगा। मैं पुत्री हूँ, नरकसे तारे वह पुत्री होती है, पु=नरक, त्री=जो तारे। अभी आपका उद्धार करूँगी तो मेरा कर्तव्यपालन हो जायगा। विवाह तो मेरा करना है ही, आप राक्षसके साथ मेरा विवाह कर दें। पिताने कहा विवाहसे तो स्वर्ग मिलेगा, किन्तु राक्षसकी भेंटसे तो नरकका ही भागी होना पड़ेगा। तुम्हें हम कैसे भेज सकते हैं? पहले तो बारह साल पूर्व एक जवान लड़का था, उसे भेज दिया, अब किसे भेजें। इतनेमें उसके तीन सालके लड़केने छड़ी लेकर कहा कि मैं उसे मार डालूँगा। वह लड़का राक्षसको नहीं जानता था। सब हँसे। कुन्ती सुन रही थी। मौका पाकर कुन्तीने प्रवेश किया। रातभर आपलोग बातचीत करते रहे, आपको नींद नहीं आयी, क्या समस्या है? तब उन्होंने कहा—देवि! हमपर जो विपत्ति आयी है, उसमें सहायता करना मानवीय शक्तिके बाहर है। ज्यादा आग्रह करनेपर कि हमारा कर्तव्य है कि हम आपके सुखमें भाग लेते हैं तो हमें दु:खमें भी भाग लेना चाहिये। ब्राह्मण देवताने कहा—आपत्ति यह है कि यहाँका राजा मूर्ख है। उसने राक्षसके साथ समझौता कर रखा है कि नित्य एक मनुष्य, एक भैंसा, एक गाड़ा अन्न तुम्हारे पास आ जाया करेगा। सारे नगरकी पारी बँधी हुई है। बारह वर्षपर प्रत्येक परिवारकी बारी आती है। कलकी हमारी बारी है, अत: हम विलाप कर रहे हैं। कुन्तीने कहा—ठीक है! तुम्हारा जाना तो बन ही नहीं सकता। मेरे पाँच पुत्र हैं, मैं किसीको भेज दूँगी। मेरेपर यह बात छोड़ दो। मैं पाँचोंमेंसे किसी एकको भेज दूँगी। सिपाही आये तो मेरे पास भेज देना। एकको एक प्यारा होता है, जिसके पाँच हों, उसे पाँचों ही प्यारे लगते हैं। घरवालोंने कहा—हम अपने बलिदानमें दूसरोंको कैसे भेज सकते हैं। कुन्तीके आश्वासन देनेपर वे चुप हो गये। कुन्तीने भीमसेनको बुलाकर कहा कि बेटा! राक्षसको भेंट देनी है। एक राक्षस है वह नित्य एक व्यक्तिको खाता है, अत: आज तू चला जा। यह सुनते ही वह प्रसन्न हो गया। युधिष्ठिर आये, युधिष्ठिरने सुना कि भीमको राक्षसके पास भेजा है तो कहा, माताजी! आपकी बुद्धि कहाँ घास चरने गयी है। भीमसे तो हम राज्यके वापस मिलनेकी आशा करते हैं। इसको छोड़कर हम चारोंमेंसे किसीको भेज दो। तब कुन्तीने कहा तुम नहीं जानते हो, इसका शरीर बड़ा पक्का है, इसको कोई भी नहीं मार सकता। बचपनमें एक बार यह मेरेसे छूट गया था, नीचे सिल पड़ी थी, उसपर गिरा तो वह चूर-चूर हो गयी। तुम्हारेमेंसे यदि मैं किसी अन्यको भेज दूँगी तो मुझे यह आशा नहीं कि तुम वापस आ जाओगे। मैं एक पुत्रसे विहीन हो जाऊँगी। अत: मैं भीमसेनको भेजती हूँ। उड़द गाड़ेमें भरकर वह ले गया। राक्षसके आनेमें देर हो गयी। भीमसेनकी खुराक तेज थी। बारह वर्षोंमें भी जो कुछ पाण्डवोंको प्राप्त होता था, आधा वह खाता और आधेमेंसे सभी बाँट लेते थे, भीमसेन उड़द खाने लगे। राक्षसने दूरसे कहा यह कौन है, कहाँसे आया है, खड़ा रह, क्या कर रहा है? भीमसेनने कोई भी उत्तर नहीं दिया। भीमसेनको उसने मुक्का मारा। उसे ऐसा मालूम दिया कि किसी पत्थरपर मुक्का मारा हो। भीमसेन खाते ही रहे। खा चुकनेके बाद राक्षसने पूछा, क्यों रे तू तो मेरा भोजन खाता है। तब भीमने कहा—तू नित्य मनुष्योंको मारता है, आज मैं तुझे मारने आया हूँ। भयंकर युद्ध हुआ। उस स्थानके सभी पेड़ उखाड़ लिये। अन्तमें भीमसेनने उसे मार डाला और उसे लाकर नगरके द्वारके आगे रख दिया। सुबह हुआ, मरे हुएको सभी मारने लगे। सबने कहा मैंने मारा है, मैंने मारा है। उनका निर्णय करना कठिन हो गया। तब फिर वे जिसकी बारी थी उसके घर गये। भीमसे पूछा—क्या तुमने मारा है? हाँ मारा है। इनाम देने लगे तो उसने कहा इनामकी कोई भी आवश्यकता नहीं है। फिर मातासे कहा कि माताजी अब यहाँ नहीं ठहरना चाहिये। वे आगे बढ़ गये। इन सबसे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये। कितना त्याग है अपने पुत्रको बलिवेदीपर चढ़ानेको तैयार है। वह कहती है—सुखमें हम बराबर साथ रहते हैं तो दु:खमें भी साथ रहना चाहिये। यह कर्तव्य समझकर भेज रही है। कितना त्याग है। ब्राह्मण बलिदानके लिये अपने-आपको देनेको तैयार है। स्त्री कहती है कि मेरे प्राणोंको देकर पतिके प्राणोंको बचाना मेरा कर्तव्य है। दोनोंका त्याग देखो। पुत्री कहती है, माता-पिताका प्राण बचाना मेरा कर्तव्य है। कुन्तीका त्याग देखो। युधिष्ठिरका देखो, हमें क्यों नहीं भेज दिया। किसीको भी देखो कितना त्याग है। मामूली त्याग नहीं, प्राणोंकी बात है।

आज सरकार कोई विज्ञप्ति निकाले कि लड़ाई होनेवाली है। हरेक घरसे एक-एक आदमीको देवें तो कैसा विचार होगा। पुत्र कहेंगे पिताजी! आप बूढ़े हो गये हैं, आप चले जायँ। पिता कहेगा कि तुमलोग चार भाई हो, कोई एक चला जाय तो बड़ा कहता कि कौन कमायेगा। अन्तमें यही होगा कि वह राक्षस सबको खा जायगा। त्यागसे सब प्रकारसे लाभ ही है। स्वयं यदि त्याग करेगा तो दूसरोंपर भी प्रभाव पड़ेगा। हरेक काममें त्याग-ही-त्याग दीखना चाहिये। जो त्यागका व्यवहार करता है, वह तो एक प्रकारसे सबको त्यागकी बात सिखाता है। क्रियाकी शिक्षा उपदेशकी अपेक्षा उत्तम है। कहनेसे उतना प्रभाव नहीं पड़ता, जितना क्रिया करनेसे पड़ता है। मैं पालन नहीं करता हूँ, मैं कहूँ कि माता-पिताकी सेवा करनी चाहिये। मेरे द्वारा माता-पिताकी कोई विशेष सेवा नहीं हुई तो लोगोंको कम लाभ ही होता है। मैं पालन करूँगा, उसीका ही प्रभाव होगा। मैं निरन्तर भजन-ध्यानके लिये कहता हूँ, किन्तु यदि मैं स्वयं भजन नहीं करता तो प्रभाव कैसे पड़ेगा? मैं भजन-ध्यान करूँ तो लोग कहेंगे यह भजन करता है, अपने भी भजन ही करो, अन्यथा इनसे अधिक तो अपने ही करते हैं, ऐसा कहेंगे। जिस विषयमें मैं कहता हूँ, उसका पालन करूँ तो मेरा कहनेका अधिकार है। यदि मेरेमें स्वार्थकी बात है तो किसी भी प्रकार प्रभाव नहीं पड़ेगा। भगवान‍्से प्रेम करनेवाला ही प्रेमकी शिक्षा देगा। वेश्या प्रेमकी शिक्षा नहीं दे सकती। वेश्याका क्या प्रभाव होगा? जो मनुष्य जो व्याख्यान देता है, उसे उसमें निपुण होना चाहिये। अनुष्ठान स्वयं करना चाहिये, तभी कहनेका अधिकार होता है। यह बहुत अच्छा उदाहरण आपके सामने रखा। केवल स्वार्थ-त्यागके भावसे ही आत्माका कल्याण हो जाता है। काम पड़नेपर त्याग करनेकी चेष्टा करनी चाहिये। ध्यान देना चाहिये, कुन्ती उच्चकोटिकी स्त्री थी। धृतराष्ट्र और गान्धारी जब तपस्याके लिये वनमें गये तो कुन्तीने कहा—ये मेरे जेठ-जेठानी हैं। जब इन्होंने वनमें जानेका निश्चय किया तो मैं भी साथ जाऊँगी। उसने कहा मेरे जेठ ससुर एवं जेठानी सासके समान हैं। धृतराष्ट्रके कारण गान्धारी आँखोंपर पट्टी रखती है। दोनों अन्धेके समान हैं। वे तपस्या करेंगे, मैं उनकी सेवा करूँगी, तपस्या करूँगी। जैसा कहा वैसा ही किया। यह ध्यान देना चाहिये कि कुन्तीके साथ उन्होंने कैसा व्यवहार किया था। धृतराष्ट्रके पुत्रोंने भीमको विष खिलाकर गंगामें डाल दिया। कुन्तीको मालूम हो गया। विदुरजीने कहा ये सब काम दुर्योधनका ही है, गम खाना चाहिये। चुप रहनेमें ही लाभ है। भीम जब वापस आया तो उसने कहा कि मालूम होता है कि दुर्योधनने गंगामें बहा दिया होगा। जब मैं नीचे पातालमें गया, नागकन्यासे बगीचेमें मिला। मैं करीब मृतक-सा ही था। नागकन्याकी यह प्रतिज्ञा थी कि जिसको मैं देखूँगी उसीके साथ ही मेरा विवाह होगा। तब उसके पिताने नागोंको बुलाकर मेरा विष उतार दिया। अपने साथ बुराई करनेवालेके साथ भी भलाई ही करनी चाहिये। इतना होनेपर भी कुन्तीने दुर्योधनके पिताकी सेवा की। जब कुन्ती वनमें जा रही थी, तब द्रौपदी और सत्यभामाने कहा कि हमारेमेंसे किसीको भेज दें, आप न जायँ, किंतु कुन्तीने कहा मैं सेवा करूँगी। आजीवन सेवा कर उन्हींके साथ अपने प्राण गँवाये। कुन्तीने कैसा व्यवहार किया, विचार करना चाहिये। कोई बुराई करे तो उसके साथ भी भलाई ही करनी चाहिये। कुन्तीकी तरह करनेपर ही प्रभाव पड़ सकता है। युधिष्ठिरने भी ऐसा ही किया। जो उनको मारने आये, उनको भी अपने भाइयोंको भेजकर छुड़ाया। जो मारनेके लिये आया, उसके साथ ऐसा व्यवहार किया। क्या कोई दूसरा ऐसा व्यवहार कर सकता है? जिसमें धर्मवीरता है, उसे कौन मार सकता है। उनके धर्मका बड़ा ही प्रभाव था। बुराई करनेवालेके साथ भलाई करना एक नम्बर है। यही स्वार्थका त्याग है। इस प्रकार स्वरूपसे तथा हृदयसे भी त्याग करना चाहिये। फलका त्याग ही त्यागका त्याग है, निष्कामभावसे त्याग करनेमात्रसे ही परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार कुन्तीकी तरह अपने जीवनको बिताना चाहिये। कुन्तीका प्रसंग संक्षेपसे बताया है। निष्कामभावसे कर्म करना चाहिये। फलकी इच्छा तथा अहंवादी नहीं होना चाहिये। सेवा करनी चाहिये, फल नहीं चाहना चाहिये। जो दु:ख दे, उसके साथ तो विशेष उपकार करना चाहिये। इसका बड़ा प्रभाव पड़ता है। शत्रु भी साधु हो जाता है। भाव बदल जाता है। आत्माको पवित्र बना देता है। पवित्र बनानेसे बढ़कर और क्या हो सकता है। यह परम सेवा है। शरीरकी सेवा तो सेवा है, आत्माका कल्याण होना ही परम सेवा है। शरीरकी सेवासे ही उद्धार हो जाय तो फिर निष्कामभावसे परम सेवा होनेमें शंका ही क्या है? जैसे रुपयोंका लोभी जिस-किसी प्रकारसे रुपया मिले—ऐसी चेष्टा रखता है, उसी प्रकार किस तरह सेवा मिले यह भाव रखना चाहिये। यह भाव उच्चकोटिका है। शूद्रके लिये वेदव्यासजीने धन्य है, धन्य है, ऐसी घोषणा की है। यदि सेवा मिल जाय तो अपना अहोभाग्य समझना चाहिये।

यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव:॥
(गीता १८। ४६)

जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा पूजा करके मनुष्य परमसिद्धिको प्राप्त हो जाता है।

सबको ईश्वर मानकर सेवा करनेसे परम सिद्धिको प्राप्त हो जाता है। सबको नारायणका स्वरूप मानकर सेवा की जाय तो वह सेवा उच्चकोटिकी सेवा हो जाती है तथा परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है।

साक्षात् भगवान् मानकर वटवृक्षमें पानी देना चाहिये। भगवान् वटरूपमें पान कर रहे हैं। सब कुछ भगवान् का ही रूप समझकर इनकी सेवा भगवान् की सेवा मानकर बड़े उत्साहसे सेवा करनी चाहिये।

सबको भगवान् मानकर हाथ जोड़ना चाहिये। हो सके तो हर प्रकारसे सबको सुख पहुँचाकर कृतकृत्य होना चाहिये। हे प्रभो! हमें नीचेसे नीचा बनाओ, भगवान‍्से ऐसी प्रार्थना करनी चाहिये। जो सबसे नीचा होकर रहता है, वही अन्तमें ऊँचा उठता है, यह अटल सिद्धान्त है। जो अपनेको ऊँचा या बढ़कर मानता है, उसका पतन होता है। जो अपनेको चरणोंकी रज मानता है, वह ऊँचा उठता है। सबके चरणोंकी धूल होकर ही रहना चाहिये। ऐसा करनेवाला तुरन्त ही भगवान् की प्राप्ति कर लेता है। यह बात भगवान‍्ने गीतामें भी कही है।

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