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गुप्त भजन एवं सेवाकी महत्ता

प्रवचन—दिनांक २५/५/४०, रात्रि, स्वर्गाश्रम

किसीने पूछा कि कर्म बड़ा है या भाव। इसका उत्तर है कि भाव ही बड़ा है। भाव अधिक हो और कर्म थोड़ा तो भी वह ऊँची श्रेणीकी चीज बन जाती है और भाव नीचा होनेपर कर्म बड़ा होनेपर भी नीची श्रेणी हो जाती है।

जैसे एक भाई खेती करता है, पर उसका भाव बहुत ऊँचा है कि विश्वको लाभ पहुँचाना है, परन्तु वह उद्देश्यका प्रकाश नहीं करता। वह लागत मूल्यपर बेचता है, लोग उसे अपने कम्पिटीशनसे बेचना समझते हैं, परन्तु भीतरसे उसका भाव लाभ पहुँचाना है। वह कह दे कि लोगोंका उपकार करता हूँ तो वह नीची श्रेणीका हो जाता है। वह कहता नहीं तो दूसरे भी इसी भाव बेचना शुरू कर देते हैं। वह कह देता तो लोग कम भावमें नहीं बेचते।

एक आदमी यज्ञ, तप इसलिये करता है कि मेरा शत्रु मर जाय, तो वह कर्म बहुत नीची श्रेणीका है। लोकदिखाऊ, दूसरेके अनिष्टके लिये या मान-बड़ाईके लिये करना नीची श्रेणीका है।

एक भक्त था वह गुप्तरूपसे भजन करता था। घरवालोंको किसीको भी इसका पता नहीं था। लोग कहते भजन नहीं करते हो तो वह हँस देता। वह जानता था कि भगवान् को ही प्रसन्न करना है। लोगोंसे कहनेसे क्या लाभ है। एक बार स्वप्नमें वे राम-राम कहने लगे तो सब लोगोंने बड़ी खुशी मनायी। उसने पूछा यह क्या हो रहा है तो कहा आप स्वप्नमें राम-राम कर रहे थे। उसने कहा मेरे मुँहसे राम-राम निकल गया, इतना कहकर वह मर गया कि प्रकट हो गया तो अब जीकर क्या करें। भजन गुप्त-से-गुप्त करें।

मनुष्यपर यदि भारी-से-भारी आपत्ति आ जाय, फिर भी सत्यका, धर्मका त्याग नहीं करे तो धर्म भी उसका त्याग नहीं करेगा। मरनेके बाद धर्म ही साथ जाता है। ध्रुव, प्रह्लादपर कितनी आपत्तियाँ पड़ीं, पर उन्होंने धर्मका त्याग नहीं किया। प्रह्लादके पुत्र विरोचन एवं सुधन्वाकी कथा देखें, प्रह्लादने कितना उत्तम न्याय किया।

धर्मपालनमें महाराज युधिष्ठिर बहुत बढ़कर हुए। उनमें दया, क्षमा, धैर्य, शान्ति, सत्यता ये सब थे। इसीसे इनका नाम धर्मराज पड़ा। जब उनके सब भाई मर गये और वे इसी देहसे स्वर्गको गये, तब इन्द्रने कहा कि आप इस नदीमें स्नान करके इस शरीरको बदल लीजिये, क्योंकि देवता इस शरीरसे घृणा करते हैं तो स्नान कर लिया। वहाँ दुर्योधनको देखा तो पूछा कि हमारे भाई कहाँ हैं मुझे वहीं ले चलो। ले गये तो रास्ता बड़ा भयानक था। पूछनेपर पता चला कि यह नरक है तो वहीं ठहर गये। द्रौपदी, भीमसेन, नकुल, अर्जुन सबकी आवाज आयी कि हम बहुत दु:खी हैं, आप यहाँ ठहरिये। हमें आपसे बड़ा सुख मिल रहा है। युधिष्ठिरने सोचा यह क्या बात है, देवताओंके यहाँ न्याय नहीं है। देवताओंने वापस चलनेको कहा तो उन्होंने कहा कि मैं नहीं जाऊँगा। इतनेमें सारी माया मिट गयी और देखा कि केवल देवराज इन्द्र खड़े हैं। उन्होंने कहा कि आपके भाई नरकके योग्य नहीं हैं। अश्वत्थामाकी मृत्युके बहाने आपने छलसे झूठ कहा था, इसलिये हमने भी आपको छलसे नरक दिखला दिया।

दुर्योधनको स्वर्ग इसलिये मिला कि वह युद्धमें लड़कर मरा है। युधिष्ठिरको दिव्य दृष्टि दी, उन्होंने देखा कि द्रौपदी तो साक्षात् लक्ष्मी बनकर भगवान् की सेवा कर रही है और भीमसेन वायु देवताके पास, नकुल-सहदेव अश्विनीकुमारोंके पास बैठे हैं। अर्जुन भगवान् के पास बैठा है। जो जिसका अंश है वह उसी जगह चले गये। युधिष्ठिर फिर धर्मराजके यहाँ चले गये। यहाँ युधिष्ठिरकी दया देखनी चाहिये कि उन्होंने भाइयोंके लिये दु:ख उठाना स्वीकार कर लिया। अत: हमको भी ऐसे मौकेपर दु:ख उठानेके लिये तैयार रहना चाहिये।

एक दिनकी बात है, धृतराष्ट्रको भीमसेनने ताना मार दिया, तब उन्होंने तीर्थोंमें जाकर तप करनेका विचार किया और विदुरसे कहा तो उन्होंने कहा ठीक है। युधिष्ठिर आये, उनके सामने वनमें जानेकी बात कही। उन्होंने मना किया और सेवामें त्रुटि समझकर बहुत पश्चात्ताप किया। अन्तत: विदुरजीने समझाया कि इन्हें जाने दो, क्योंकि वनमें जाकर प्राण त्याग करना उत्तम है। युधिष्ठिरने बात मान ली, धृतराष्ट्रके मनमें आया कि जाते समय दिल खोलकर खूब दान करूँ। युधिष्ठिर, अर्जुनने खूब उदारताका व्यवहार किया। कहा मेरी सब वस्तुएँ तन, मन, धनपर उनका पूरा अधिकार है। जाते समय उन्होंने खूब दान-पुण्य किया, लोगोंको खूब धन दिया। जाते समय प्रजासे क्षमा माँगी। गान्धारीकी सेवाके लिये कुन्ती साथमें गयी। संजय धृतराष्ट्रकी सेवामें गया। वनमें वेदव्यासजीने गान्धारीसेपूछा कि तुम्हारा दु:ख किस प्रकार दूर हो। उन्होंने कहा कि मुझे मेरे पुत्रोंसे मिला दो। वेदव्यासजीने अठारह अक्षौहिणी सेनाको बुला दिया, गंगाजीमें प्रवेश करके आवाहन किया। जलमें बड़ा शब्द हुआ, फिर हाथी, घोड़े सब वहीं निकले और अठारह अक्षौहिणी सेनाने पड़ाव डाल दिया। सबसे कह दिया गया कि यह सेना रातभर रहेगी, जिनको मिलना हो मिल लो। घोषणा कर दी कि अब आगे कोई नहीं रोना। कोई साथ जाना चाहे तो गंगामें गोता लगा ले, वह उसके साथ वहीं चला जायगा। रातभर सब मिले। जिसने गोता लगाया वह उनके साथ विमानमें बैठकर चला गया, गांधारी आदि नहीं गये।

जनमेजयको विश्वास नहीं हुआ। कहा कि मेरे पिताको बुला दें, वही यज्ञ पूरा करें तो वेदव्यासजीने वैसा ही करके दिखला दिया। यह महाभारत आश्रमवासीपर्वकी बात है।

कुन्तीकी तरफ देखो। जब पाण्डव वनमें गये, तब बेचारी कुन्ती रोती रही। धृतराष्ट्र आदि किसीने रोनेपर ध्यान नहीं दिया। वही कुन्ती जब राजमाता हो गयी, तब वनमें सेवा करनेके लिये साथ गयी। हरेक माता-बहिनोंसे यही प्रार्थना है कि जो तुम्हारे साथ बुरा बर्ताव करे, उसके साथ ऐसा उत्तम बर्ताव करके दिखला दे।

एक बार कुन्तीने भगवान् के कहनेपर यह वर माँगा कि हमें सदैव दु:ख मिलता रहे जिससे आपकी स्मृति न छूटे—

विपद: सन्तु न: शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम्॥

कुन्ती सत्यवादी थी, दूसरेकी संकटमें रक्षा करनेवाली थी। पाण्डवलोग एकचक्रा नगरीमें छिपकर रहते थे। उस नगरके बाहर बकासुर नामक एक राक्षस रहता था। उसके लिये एक आदमी तथा एक गाड़ी बाकला दिया जाता था। जिस घरमें ये रहते थे, एक दिन उसीकी पारी आ गयी। राजाके सिपाहीने आकर बता दिया। ब्राह्मणने कहा मैं जाऊँगा, ब्राह्मणीने कहा मैं जाऊँगी। उनके एक लड़का, एक लड़की थी, उन्होंने कहा हमें भेज दो। कुन्तीने उनके पास जाकर सारी बात पूछी और कहा मेरे पाँच लड़के हैं, एकको भेज दूँगी। भीमको कहा, वह बड़ा प्रसन्न हुआ। युधिष्ठिर आदिने भी कहा पर माँने भीमसेनको वहाँ भेजा। वहाँ राक्षससे खूब लड़ाई हुई। आखिर भीमसेनने राक्षसको पछाड़कर मार डाला। यहाँ यह देखना चाहिये कि कुन्तीने मृत्युके मुखमें अपने बेटेको भेज दिया। हमारी माताएँ तो किसी बीमारकी सेवामें भी नहीं जाने देतीं।

सुमित्राने लक्ष्मणको रामकी सेवामें भेज दिया तो हमें भी सबको राम समझकर अपनेको सेवामें देना चाहिये। हमारा जीवन एक दिन नष्ट होगा ही, मरनेके बाद न तो इसकी हड्डी काममें आयेगी, न चमड़ा काममें आयेगा, अत: दूसरेकी सेवामें सब कुछ लगा दें। धर्म और ईश्वरके लिये मरनेको तैयार रहना चाहिये। ‘जो सिर साटे हरि मिले तो लीजे पुनि दौर।’

यही मुख्य काम है नहीं तो एक दिन शरीर तो भस्मीभूत होना ही है।

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