सत्संगसे लाभ और सेवा किसीसे स्वीकार न करें
प्रवचन—दिनांक २८/५/४०, सायंकाल, स्वर्गाश्रम
प्रश्न—सत्संगमें रुचि कैसे बढ़े?
उत्तर—सत्संगका गुण, प्रभाव, महिमा, रहस्य जाननेसे।
प्रश्न—समझमें कैसे आवे?
उत्तर—भजन करनेसे अन्त:करण शुद्ध होनेपर समझमें आ सकती है।
प्रश्न—सत्संग किस प्रकार करना चाहिये, जिससे सत्संगका ज्यादा लाभ हो?
उत्तर—सत्संगकी बातोंको जितना अधिक आदर देंगे, उतना ही अधिक लाभ होगा। सत्संगकी बातोंका पालन करें। मनन करना भी ठीक है, पर पालन करनेसे अधिक लाभ है। प्रेमसे सुनें। पाँच आदमी बैठकर विवेचन करें, काममें लायें। भगवान् के बताये हुए सभी साधन ठीक हैं, पर मूर्खताके कारण करनेमें तत्परता नहीं है। मरनेके बाद क्या दशा होगी, यह भी नहीं सोचते हैं।
विचारनेपर समझमें आता है कि भगवान् का भजन बड़ी अच्छी चीज है। हेतुरहित उपकार बड़ी अच्छी चीज है। यह समझते हैं पर होता नहीं, क्रियारूपमें नहीं आता। मार्ग तो दीखता है, पर उसके अनुसार चलते नहीं बनता।
एक आदमीके पास लाख रुपये हैं, वैद्य, डॉक्टर कह दे कि अब नहीं बचेगा। वैसी दशामें भी मनुष्य दान नहीं करता। मान- बड़ाईको बुरी समझता है, पर प्राप्त होनेपर उसका त्याग नहीं करे तो असली समझ नहीं आयी। लोभी रुपयोंसे जैसे प्रसन्न होता है, इसी तरह सद्गुणोंको प्राप्त करके प्रसन्न होवे।
यह सब सत्संगकी बातें सुनता रहे, सुनता रहे, यह बातें खूब भर जायँ और एकदम साधनमें जोश आ जाय। बार-बार सत्संग सुनता रहे और मनमें अन्दर भाव इकट्ठे होते रहें। फिर सुनते-सुनते जोश आ जाय। मन बुरे उदाहरण बहुत लेता है, लाभ होनेवाले उदाहरण नहीं लेता, भीतर-ही-भीतर भाव बढ़ता रहे, जोश भरता रहे, फिर एक साथ क्रिया करे।
एक वृत्ति बहुत लाभकी वस्तु है, पर वृत्ति बदलनेमें भी बुराई नहीं है, क्योंकि एक ही बातसे मन उकता जाता है। एक ही साधन करनेमें जैसे जप या ध्यान ही करे तो मन कहता है कि चल बहुत देर हुई।
अच्छे आदमीको लोभ देकर, घूस देकर गिरा दिया जाता है। मैंने कई अच्छे साधकोंको देखा है कि उनके शिष्योंने उनको गिरा दिया। अच्छे साधक पुरुषोंकी शरीरकी सेवा आदि की जाती है, वह करवानेवालेके लिये प्रत्यक्षमें घातक होती है। वह समझता है कि सेवा करवाना बुरा है, पर प्रत्यक्षमें जो आराम मिलता है, वह आराम उससे वह सेवा स्वीकार करवा लेता है।
मैं तो वक्ताका, श्रोताका दोनोंका लाभ समझता हूँ, पर वक्ताको दोषोंसे—मान-बड़ाई और सेवा करानेसे सावधान रहना चाहिये।
सेवा करनेवाले जो साधु महात्माको आराम पहुँचानेकी चेष्टा करते हैं, उनका भाव तो ठीक ही होता है। उनको तो नहीं रोका जा सकता। पर जो करवाता है, उसे ही रोका जा सकता है। मन सुख चाहता है। प्रत्यक्ष सुखको पकड़ता है, इसीलिये सेवा करवाता है। दूसरा बुरा मान जायगा—इस बातपर भी ध्यान न दे, सेवा न करावे।
नीति यही रखे कि दबकर सेवा करवाना स्वीकार न करे, चाहे बाप ही क्यों न हो, पर उपरामता और वैराग्यमें कमी न आने दे। कमी आनेवालोंका तो विरोधी ही रहे।
किसीके संकोचमें पड़कर त्यागका आदर्श नीचा न करे। किसी पुरुषका बुराईकी ओर मन चला गया तो इस बातपर जोर देवे कि मर भी जायँगे तो भी बुरा काम नहीं करेंगे।
पापसे जिद्द करके भी हटना अच्छा ही है, अपने स्टैण्डर्डको न गिरने दे। उसे कायम रख लिया तो हम जीत गये।
पैर दबाना और हवा करना, क्रियामें कोई महत्त्व नहीं है, पर उनको जिससे सन्तोष हो, सुख हो वही करे। श्रद्धा हो तो उसे सेवा करनेके कालमें बहुत ही आनन्द आयेगा, हम उस आनन्दको नहीं जानते।
पुण्डरीक अपना कर्तव्य समझकर माँ-बापकी सेवा कर रहा था, उसी समय भगवान् भी आ गये। उसने उनकी भी परवाह नहीं की।
अपने कर्ममें रत हो जाओ। स्वार्थरहित होकर कर्तव्य समझकर लग जाओ, उससे ही काम बन जायगा।
परमात्मा समझकर करनेवाली क्रिया ही मुक्ति देनेवाली है। कर्तव्यपालन करनेवाली आसक्ति बुरी नहीं है, स्वार्थ ही बुरा है। क्रियामें आसक्ति होना भी बुरा है।
सबको भगवान् समझकर सेवा करने लगे तो बहुत शीघ्र भगवान् मिल जायँ। कथामें जो आनन्द आता है, उसकी अपेक्षा पिताकी सेवा करना अच्छी बात है।
मालिककी रुचिमें रुचि मुक्तिको देनेवाली है, अपनी रुचि नहीं। उसकी रुचिके अनुसार करनेवालेको प्रत्यक्षमें आनन्द होता है। कर्तव्यपालन ही धर्म है और इसीमें आनन्द आ सकता है।
साक्षात् भगवान् आ जायँ, उनकी सेवामें हमें कितना आनन्द होगा, जिसकी कोई सीमा नहीं। वही भाव स्त्री पतिमें, पुत्र पिता- माताकी सेवामें कर ले। श्रद्धा होनेपर वही आनन्द होना चाहिये।
जो बात अर्जुनके मनके विपरीत होती, उसे ही भगवान् कहते। उन्होंने अर्जुनको भीष्मपितामहको मारनेके लिये कहा, अर्जुनने उन्हें मार दिया।