जो कुछ है सब परमात्मा ही है
प्रश्न—जप हो रहा हो, मन कहीं और हो तो क्या वह जप है?
उत्तर—वह जप ही है, स्मरण या चिन्तन नहीं। वाणीके द्वारा जो होता है वह तो जप है। चिन्तनका जो माहात्म्य है, वह जपका नहीं। मानसिक भजन-ध्यानका विशेष महत्त्व है।
प्रश्न—जपकी संख्याकी क्या आवश्यकता है?
उत्तर—यह इसलिये है कि अधिक जप हो जाय। वैसे भजन करें तो मन जपने नहीं देता।
प्रश्न—चलता-फिरता भजन करे तो क्या हानि है?
उत्तर—यह तो ठीक है। मैं तो कहता हूँ कि मल-मूत्र त्याग करते समय भी भजन करो। इस विषयमें एक कहानी आती है। एक लड़का था। गुरुने कहा कि भजन किया कर; किन्तु शौचके समय मत किया कर। वह सारे दिन भजन करता तो शौचके समय अपने-आप भजन होता। उसने जीभ पकड़नी शुरू कर दी। गुरुके पास किसीने खबर पहुँचा दी। गुरुने कहा यह ठीक नहीं। निरन्तर करनेवालेके लिये उस समय भी छूट है, निरन्तर जप होने लगे तो चलते-फिरते करते रहना चाहिये। गिनती करें या नहीं। गिनकर करना अच्छा है। मल-मूत्र त्याग करते समय यदि जप बन्द कर दें और उस समय मृत्यु आ जाय तो हम तो जानकर मरे। हम तो मल-मूत्र कुछ भी करें, नाम जपते रहते हैं। निरन्तर भजन-ध्यान करनेकी चेष्टा रखनी चाहिये। याद नहीं आये तो भगवान् की इच्छा। निरन्तर भगवान् का भजन करना चाहिये। शरीरसे जो भी कुछ दोष घट जाय, प्रभु उसे क्षमा कर देते हैं। मनुष्यसे खाते-पीते, चलते जीवहत्या होती है। चोरी-व्यभिचार, झूठ-कपट आदि सभी पाप क्षमा कर देते हैं, किन्तु आलस्य और कामचोरीके लिये क्षमा नहीं है। पाप तो भजनसे भस्म हो जाते हैं। पहले खूब पाप कर लूँ, फिर भजनसे भस्म कर डालूँगा, इस उद्देश्यसे किये हुए पाप फिर क्षमा नहीं होते। अपने प्रभु बड़े दयालु हैं। भविष्यके लिये प्रतिज्ञा करे और आगे पाप नहीं करे तो वे क्षमा कर देते हैं। भजन-ध्यान तथा ज्ञानसे भी पाप भस्म हो जाते हैं।
मैं बार-बार बताता हूँ, तुमलोग काममें नहीं लाते हो तो तुम्हारी इच्छा। मैं यह देखता हूँ कि अपनी भी आदत है कहनेकी, इनकी भी आदत है सुननेकी। इस प्रकारसे चक्कर कटने लग जाते हैं। मुझे सुनानेकी आदत और तुम्हें सुननेकी आदत पड़ गयी है। जिस प्रकार किसीकी गेंदका खेल देखनेकी आदत है, किसीकी खेलनेकी, इसी प्रकार मेरी कहनेकी आदत है, तुम्हारी सुननेकी आदत है, काममें लानेकी आदत नहीं। दोनों पात्र हों तो कल्याण हो ही सकता है। एक जोरदार हो तो भी काम हो सकता है। मेरेमें ताकत हो तो भी काम हो सकता है। तुम्हारेमें ताकत हो, श्रद्धा हो तो काम हो सकता है। या तो वक्तामें या श्रोतामें ताकत होनी चाहिये। भगवान् का दिया हुआ अधिकार मुझे हो, फिर तुम्हारेमें श्रद्धाकी कमी हो तो भी कोई बात नहीं। मेरी मुझे आपकी आपको सुलझानी चाहिये। श्रोताके दोषोंको वक्ताको देखना अनुचित है। वक्ताके दोषोंको श्रोताओंको देखना भी अनुचित है। हमारेमें तो श्रद्धा है, महात्मा भला नहीं, यह सफाई देनी खोटी है। वक्ता यह सफाई दे कि यह हमारी बात मानता नहीं तो हम क्या करें, तो मामला गड़बड़ है। अपने ही दोषोंको अपने-आप देखें तो शीघ्र ही काम हो सकता है। यदि यह भगवत्प्राप्तिका कार्य सिद्ध नहीं होगा तो सचमुच ही बड़ी भारी दुर्दशा होगी। श्रद्धाकी कमी नहीं है, किन्तु यत्नकी कमीके कारण यदि विचलित हो गया तो क्या गति होगी। दुर्गति नहीं होती, अगले जन्ममें परम श्रद्धा होकर फिर भगवान् को प्राप्त हो जाता है। परम श्रद्धा होनेके बाद फिर विलम्बका काम नहीं है। अश्रद्धा ही रसातलमें ले जा रही है, यदि चेष्टा करें तो काम हो सकता है। अश्रद्धा केवल परमात्माके तत्त्व-रहस्यको न जाननेके कारण है। उनका ही श्रवण-मनन करें तो बड़ा ही लाभ हो सकता है। कानोंसे उनकी ही लीलाका श्रवण करे, वाणीसे जप करे तो काम हो सकता है। बहुत-से उपाय हैं, जो कुछ दीखता है सब स्वप्नवत् है, मायामात्र है। इस प्रकार सबका अभाव कर दे। सबका अभाव करनेके बाद अभाव करनेवाली वृत्तिका भी अभाव कर दे। सबका अभाव करनेके बाद भावरूप जो चीज बच जाय, वह परमात्मा है, वह चेतन है, सबमें व्यापक है। वह परमात्माका स्वरूप है।
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(गीता ६।३०)
जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अन्तर्गत देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।
यह भक्तिके मार्गसे भी हो सकता है और ज्ञानमार्गसे भी हो सकता है। सबमें सच्चिदानन्द बुद्धि ही अच्छा साधन है।
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥
(गीता १३।३०)
जिस क्षण यह पुरुष भूतोंके पृथक्-पृथक् भावको एक परमात्मामें ही स्थित तथा उस परमात्मासे ही सम्पूर्ण भूतोंका विस्तार देखता है, उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है।
जो कुछ है सब परमात्मा है। परमात्मा सत्-चित्-आनन्द हैं। जो कुछ सत्ता है सब परमात्माकी ही है। आनन्द ही सबको प्रिय है। कोई-न-कोई किसीको प्रिय है ही। सत्ता सबकी है, किसीका अभाव नहीं, बदल गया, उसका परिवर्तन हो गया। कपड़ा जल गया, सत्ता तो है ही उसका राखके रूपमें परिवर्तन हो गया। रूप ही तो बदला है। किसी-न-किसीको किसी-न-किसी वस्तुसे आनन्द होता ही है। अत: सारा संसार सच्चिदानन्दमय है। जड़ पदार्थोंमें सत्ता अवश्य है। जड़ यह संसार है, उसमें सत्ता तो है ही।
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमस: परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम्॥
(गीता १३।१७)
वह परब्रह्म ज्योतियोंका भी ज्योति एवं मायासे अत्यन्त परे कहा गया है। वह परमात्मा, बोधस्वरूप, जाननेके योग्य एवं तत्त्वज्ञानसे प्राप्त करनेयोग्य है और सबके हृदयमें विशेषरूपसे स्थित है।
वह ज्योतियोंका भी ज्योति है। उसके सिवाय कोई वस्तु है ही नहीं। वह अन्धकारसे अति परे कहा जाता है। इस न्यायसे सब कुछ सच्चिदानन्द ही है। यहाँ यह शंका हो सकती है। सच्चिदानन्दघन तो एकरस है, उससे परिवर्तन विकार नहीं होता। इसका तो परिवर्तन विकार देखा जाता है। अधिक समझो या सुनकर मान लो। दूसरा उपाय यह है—मनुष्य, पशु-पक्षियोंमें चेतनता सत्ता है। प्रत्यक्ष ज्ञान है, सत्ता तो सबमें है ही। मनुष्य, पशु, पक्षीमें आत्माकी सत्ता तो है ही। तीसरी बात यह है कि स्वयं परमात्मा ही जगद्रूपमें स्थित हैं। सब परमात्मा ही परमात्माका स्वरूप है। हमारा संकल्प हमारा स्वरूप है। परमात्माका संकल्प परमात्माका स्वरूप है।
प्रश्न—यह जो दीखता है, इसे दृश्य समझें या भगवान्?
उत्तर—भगवद्रूप दृश्य समझे। भगवान् ही दृश्यरूप होकर दीख रहे हैं। जो कुछ भी दीखता है चाहे यों मान लें कुछ भी नहीं है। चाहे भगवान् का स्वरूप मान लो। ये जो नाशवान् मिथ्या है, सबका बाध कर दिया, बाध करनेवाली वृत्तिका भी बाध कर दिया। सब कुछ मेरा ही स्वरूप है। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ मेरे सिवाय और कोई भी नहीं है। स्वप्न भी मेरा ही स्वरूप है। मेरा ही यह संसार है। वह निराकार शरीर भी मेरा ही है। मेरेसे भिन्न वस्तु कुछ भी नहीं है।
१.जो कुछ दृश्यमात्र है। है ही नहीं। उस जगह ब्रह्म ही है।
२.सबका अत्यन्त अभाव होनेपर जो शेष रहता है वह ब्रह्म ही है।
३.सारी जगह भगवान्-ही-भगवान् हैं।
४.सब कुछ मेरी आत्मा ही है।
ये सब बातें गीतामें भी हैं। जो कुछ है सब ब्रह्म ही है।
यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमनुपश्यति।
तत एव च विस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा॥
(गीता १३।३०)
जिस क्षण यह पुरुष भूतोंके पृथक्-पृथक् भावको एकपरमात्मामें ही स्थित तथा उस परमात्मासे ही सम्पूर्ण भूतोंका विस्तार देखता है, उसी क्षण वह सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है।
बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च।
सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत्॥
(गीता १३।१५)
वह चराचर सब भूतोंके बाहर-भीतर परिपूर्ण है और चर-अचररूप भी वही है और वह सूक्ष्म होनेसे अविज्ञेय है तथा अति समीपमें और दूरमें भी स्थित वही है।
अवान्तर भेद बहुत हैं। मुख्य बात ध्यानको लेकर चार प्रक्रिया है। गीता ७। १७, १३। ३०में सब कुछ परमात्मा-ही-परमात्मा है। ‘यो मां पश्यति’ ६। ३० भूतोंके बाहर-भीतर सब कुछ मैं ही हूँ। सब मेरा ही स्वरूप है। संसार है ही नहीं, परमात्मा-ही-परमात्मा है।
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति॥
(गीता १३।२७)
जो पुरुष नष्ट होते हुए सब चराचर भूतोंमें परमेश्वरको नाशरहित और समभावसे स्थित देखता है वही यथार्थ देखता है।
परमात्मा ही सारे भूतोंमें समभावसे स्थित हैं। सबके नाश होनेपर भी उनका नाश नहीं होता। सब कुछका अभाव एवं परमात्माका ही भाव है।
परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यक्तोऽव्यक्तात्सनातन:।
य: स सर्वेषु भूतेषु नश्यत्सु न विनश्यति॥
(गीता ८। २०)
उस अव्यक्तसे भी अति परे दूसरा अर्थात् विलक्षण जो सनातन अव्यक्तभाव है, वह परम दिव्य पुरुष सब भूतोंके नष्ट होनेपर भी नष्ट नहीं होता।
इस अव्यक्तसे सनातन अव्यक्त श्रेष्ठ है। सबका नाश होनेपर भी उस अव्यक्तका नाश नहीं होता। सबमें एक आत्मा है।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शन:॥
(गीता ६।२९)
जो सबको अपनेमें और अपनेको सबमें देखता है वह योगयुक्तात्मा सर्वत्र सम देखनेवाला है।
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति॥
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥
(गीता२।१७-१८)
नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत् —दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है।
इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्माके ये सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं। इसलिये हे भरतवंशी अर्जुन! तू युद्ध कर।
न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
(गीता २।२०)
यह आत्मा किसी कालमें भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।
न जीता है न मरता है। न होकर होनेवाला है। अज है। नित्य है। यह शाश्वत है, पुराण है। आत्मा नित्य है।
‘न किञ्चिदपि चिन्तयेत्’
(गीता ६। २५)
इसके सिवाय और किसीका भी चिन्तन न करें। सब कुछ परमात्मा-ही-परमात्मा है। चार प्रकारकी प्रक्रिया बतायी। श्लोक भी गीताके बताये।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम्॥
(गीता १३।३४)
शरीर क्षेत्र है, परमात्मा क्षेत्रज्ञ है, इसके अन्तरको जो जानता है, वह ही जानता है, आत्मा नित्य है, शरीर अनित्य है, जो इस प्रकारसे भेदको जान जाता है, वह परमात्माको प्राप्त हो जाता है।
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापर:।
ब्रह्म सत्य है और सब जगत् मिथ्या है। ब्रह्म एक ही है। भगवान्ने दो निष्ठाएँ कही हैं—
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥
(गीता ३।३)
हे निष्पाप! इस लोकमें दो प्रकारकी निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गयी है। उनमेंसे सांख्ययोगियोंकी निष्ठा तो ज्ञानयोगसे और योगियोंकी निष्ठा कर्मयोगसे होती है।