Hindu text bookगीता गंगा
होम > सत्संग की मार्मिक बातें > मार्मिक बातें

मार्मिक बातें

प्रवचन—दिनांक १३/१२/१९४०, दोपहर, गोरखपुर

प्रश्न—आप लोगोंको चेष्टा करके सत्संगमें क्यों बुलाते हैं?

उत्तर—दो चीजें हैं—बुद्धि-विवेक, मन-स्वभाव। विवेक-बुद्धि तो कहती है कि चेष्टा नहीं करनी चाहिये, स्वभाव चेष्टा करता है। मन-बुद्धिका झगड़ा है। एक भाई भोजन कर रहा है। स्वभावसे भोजनकी ओर दृष्टि जाती है। विवेकसे कहते हैं नहीं जानी चाहिये। एक भाई किसीकी स्वभावसे निन्दा कर रहा है, उसकी विवेक-बुद्धि कहती है नहीं करनी चाहिये।

लोगोंको बुलानेसे क्या मिलता है? इसका उत्तर यही है—मान, बड़ाई। स्त्री, कंचन, आराम, ईर्ष्या इनका सम्बन्ध तो है नहीं, अब बची मान-बड़ाई। इसके विषयमें यह कहना है कि मिलता है ही। मैं चाहूँ या नहीं, इस विषयमें कुछ नहीं कहता। यदि पूछो कि क्या मिल सकता है तो इसका उत्तर है कि शुद्ध नीयत हो तो जो चाहे सो मिल सकता है। सब कुछ मिल सकता है। भगवान् को चाहे तो वह मिल जायँ। शुद्ध नीयत वही है, जिसमें स्वार्थ न हो। स्वार्थकी कामना हो तो उसकी सिद्धि हो जाय। स्वार्थकी न हो परमार्थकी इच्छा हो तो वह मिल जाय।

कोई कुछ न चाहे तो उसे क्या मिले? इच्छा करे ही नहीं तो भगवत् -इच्छा हो सो मिले। कुछ कहा नहीं जा सकता। यदि कहे कि कुछ नहीं मिले तो फिर उसको घाटा ही पड़ा, माँगना ही अच्छा रहा। बात यह है कि एक अच्छे आदमीके यहाँ कोई नौकरी करे तो वेतन मिल जाता है। वेतन न ले तो अच्छे आदमी उसे ज्यादा-से-ज्यादा जो चीज वह लेता है उसे दे देते हैं। न लेनेसे अधिक मिलेगा, यह भाव भी मनमें न रखे। नरसीजीसे शिवजीने कहा कि माँग। उन्होंने कहा कि आपपर ही भार रहा। आप जिसे सबसे बढ़कर समझें वह दे दें। उन्होंने भगवान‍्से मिला दिया।

सरकारमें बहुत दिन काम करनेके बाद घर बैठे पेंशन मिलती है। लाट साहबको तीन ही वर्षमें पेंशन हो जाती है। छोटे श्रेणीके आदमीको अधिक दिन काम करनेपर पेंशन होती है, पेंशनका अधिकार हो जानेपर—

(१) कई लोग पेंशन लेते हैं—काम भी करते रहते हैं।

(२) कई लोग पेंशन लेते हैं—काम नहीं करते हैं।

(३) कई लोग पेंशन नहीं लेते हैं—काम भी नहीं करते।

(४) कई लोग पेंशन नहीं लेते—काम करते हैं।

ऐसे ही मुक्तिरूपी पेंशन लेते हैं। सरकारका काम लोगोंको मुक्तिमें सहायता करना है। प्रजाका हित ही सरकारका काम है।

(१) वह लोग मुक्ति स्वीकार करके लोकहितका काम भी करते हैं।

(२) कई लोगोंने मुक्ति स्वीकार की—काम कुछ नहीं करते; जंगलमें, पहाड़ोंमें पड़े रहते हैं।

(३) कई लोग मुक्ति नहीं लेते, बस आपकी भक्ति चाहते हैं। भगवान् उनके हकको धरोहररूपमें रख लेते हैं।

(४) सब लोग भगवान् के भक्त बन जायँ। इसके लिये चेष्टा करता है। स्वयं मुक्ति नहीं चाहता। सब आपके भक्त बन जायँ।

भक्तोंकी दो श्रेणी है, ज्ञानियोंकी भी दो श्रेणी है। जो मुक्ति चाहते हैं वे ज्ञानी, जो नहीं चाहते हैं वे भक्त हैं। इनमें भी दो श्रेणी है। चारों ही श्रेष्ठ हैं। भेद हमलोगोंकी दृष्टिसे ही है। परमात्माकी दृष्टिसे भेद नहीं है। हमारी दृष्टिमें ही ये चार भेद परमात्माकी प्राप्तिवाले पुरुषमें हैं।

प्रश्न—भक्त और ज्ञानी दोनोंको वास्तविक स्थिति प्राप्त हो जानेके अनन्तर उनके अन्त:करणमें परमात्माके स्वरूपके निश्चयमें भेद रहता है या एकता?

उत्तर—धर्मी (शरीरसे तादात्म्य माननेवाला) दोनोंमें नहीं रहता। अन्त:करणकी स्थितिमें भेद रहता है। जिस प्रकारकी प्रणालीसे वह चला है, इसी प्रकारकी चेष्टा उसके द्वारा होती है। प्रारब्ध, भोग, क्रिया, स्वभाव सब भिन्न-भिन्न हैं।

प्रश्न—साधनकाल और प्राप्तिके बादके अन्त:करणके निश्चयमें किस तरहका अन्तर होता है?

उत्तर—एक महात्माका लेख पढ़कर उनके बारेमें निश्चय किया। उनके स्वभाव, बर्ताव आदिके बारेमें धारणा करके निश्चय किया। उसके बाद वह साक्षात् मिला। उस मिलनेके समयका ज्ञान एकदम अपरोक्ष है। पहलेवाला परोक्ष है, इसी प्रकारका अन्त:करणका अन्तर है।

जिस पुरुषको भगवान् विशेष अधिकार दे देते हैं, वह सब कुछ कर सकता है। वह सब प्रकारका मार्ग, प्रणाली ठीक तरहसे बना सकता है। अधिकारपत्र देनेके बाद सेवक सेठको बेच भी सकता है। जितना सेठका अधिकार है, उतना ही सेवकका हो गया। सेठका जन्मसिद्ध है, सेवकको दिया हुआ है। न दे तो उसका साधारण सेवकका अधिकार है ही। आवश्यकता होनेपर ही दिया जाता है। अधिकारपत्रमें भी भेद होता है। जीवन्मुक्त पुरुषोंके अधिकार भी अलग-अलग होते हैं। यह सब जनताकी दृष्टिसे ही है। जनताके ही लाभ-हानिके विचारसे है। अपने लिये तो अपनेको जो अधिक लाभ पहुँचावे, वही बड़ा है। बच्चेके लिये तो भगवान‍्से भी बढ़कर ‘माँ’ है।

श्रद्धेय और श्रद्धालु दोनोंमें एकमें भी कमी हो तो विलम्ब होता है। श्रद्धा दोनों प्रकारसे होती है। होते-होते शनै:-शनै: भी होती है और एकदम पहाड़को लाँघनेके समान तुरन्त हो सकती है। साधारण आदमीकी भी हो सकती है। एक क्षणमें सारे पापोंका नाश होकर हो जाती है। किसी समयमें ऐसी बात हो जाती है। दस दिन सत्संग करनेसे जो लाभ नहीं हुआ, एक दिनमें, एक क्षणमें एकदम वह लाभ हो जाता है। मानो आँख खुल गयी है।

दो आदमी चौंधिया गये। प्रयत्न कर रहे हैं। एक आदमीकी चौंध झट खुल गयी। दूसरेको बराबर प्रयत्न करनेपर भी बहुत देरमें खुली। कोई-कोई तो आयु बीत जाय, बीस वर्ष बीत जाय, उसी जगहपर वह चौंध वैसे ही है। सामान्य चालसे चलनेका मार्ग तो है ही। यह मार्ग भी है, तुरन्त लाभ हो जाता है। महत्कृपा, भगवत्कृपा कारण है।

परमात्माकी प्राप्तिके निकट पहुँच रहा है, पर दीखता नहीं है। दूसरा पहुँच रहा है, उसको दीखता भी है, दुनियाको भी दीखता है। कुँआ खोदनेमें एकमें पत्थर आ गया, एकमें बालू आ गयी, एकमें गीली मिट्टी आ गयी। तीनोंमें दस हाथ नीचे जाता है। पत्थरवाला डेढ़ हाथ खोदनेपर भी उसे कुछ पता नहीं कि कितनी दूर है। बालूसे तो जल अब छ: इंच ही रहा है, पर वह निराश हो रहा है। जानकार लोग कहते हैं—निराश मत हो, जल निकट है। वह सोचता है, न मालूम कितने हाथ नीचे है और कितना खोदना पड़ेगा। वह फिर विश्वास करके खोदता है। छ: इंच खुदते ही, बस, एकदम जोरसे पानी निकलने लगा, पाताल फूट गया। जैसे किसी रंकको अथाह धन मिल गया, आनन्द हो गया। कहने लगा, आपकी कृपासे यह हो गया। छोड़ देता तो सब बरबाद हो जाता। मिट्टीवाला बिचला है।

बालूवालेको खोदते-खोदते ही आनन्द मिलता जाता है। गीली बालू निकलती जाती है। पानीके दर्शन भी होते जाते हैं। तीनों ही तरहकी बात है। पानीके निकट सभी जा रहे हैं, इससे भी विलक्षण बात है—साधनमें। सौ फुट खोदना है, पचास फुट खोदनेमें दो महीने लगे हैं और शेष पचास फुट खुद गया दो मिनटमें। विलक्षण बात हो जाती है। यह विशेष कृपाकी बात है। कुएँकी मिट्टी निकालते हैं, पचास फुटमें दो महीने लगे। शेष पचास फुट और है, पानी निकलनेमें दो महीनेकी देर है, कहते हैं कि अभी निकाल दें। पाइप बैठायी, शामको पानी आ गया। खोदना है तो तुम्हारी खुशी, खोदो। काम तो चल गया। पानी पीओ। पाइप बैठानेवालेकी कृपासे यह बात हो गयी। इस प्रकारसे साधनमें भी हो सकता है। इससे भी और विलक्षण बात है। इतनी विलक्षण है, कुछ बतलाया नहीं जा सकता। कैसा भी पापी हो, उसे भी भगवत्कृपासे एक क्षणमें भगवत्प्राप्ति हो जाय। जितने भी उदाहरण हैं सब अल्प शक्तिके हैं। उस विशेष शक्तिके साथ इनकी क्या तुलना है।

अड़ियल आदमी होता है, कहता है—रखो तुम्हारा पाइप, हम तो खोदेंगे ही। वह कहता है, अच्छा तुम्हारी इच्छा।

श्रद्धा होनेसे सब कुछ होता है। श्रद्धा भी क्षणभरमें हो सकती है। अनन्य चिन्तनसे सब होता है और अनन्य चिन्तन भी महत्कृपासे क्षणभरमें हो सकता है। साधारण आदमीके लिये तो स्वर्गकी प्राप्ति ही कठिन है। ईश्वरकी कृपा और महत्कृपाके आगे कोई वस्तु कठिन नहीं है। हमको कठिन क्यों लगती है? हमारी अश्रद्धासे हमने कठिन मान रखा है। वस्तुत: तो कठिन है नहीं, हमने कठिन बना रखा है।

प्रश्न—ग्यारहवें अध्यायके दर्शनके बाद अर्जुनने ‘करिष्ये वचनं तव’ क्यों नहीं कहा?

उत्तर—दर्शन होनेपर भी तत्त्व जानना और बाकी रह जाता है। भगवान् कहते हैं—‘मा ते व्यथा मा च विमूढभाव:’ फिर चतुर्भुजरूप दिखलाते हैं। जबतक भगवान् का तत्त्व नहीं जाना जाता है, तबतक जाननेकी आवश्यकता है। इसको जनानेके लिये भगवान् बाध्य हैं, जनाना ही पड़ेगा। भगवान‍्ने जना दिया। आशीर्वाद दिया—‘व्यपेतभी:’—अनन्य भक्तिका प्रकरण है। सबके लिये बाध्य नहीं हैं। मूढके लिये तो भगवान् कहते हैं—

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतस:।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिता:॥
(गीता ९। ११-१२)

मेरे परमभावको न जाननेवाले मूढ लोग मनुष्यका शरीर धारण करनेवाले मुझ सम्पूर्ण भूतोंके महान् ईश्वरको तुच्छ समझते हैं, अर्थात् अपनी योगमायासे संसारके उद्धारके लिये मनुष्यमात्रमें विचरते हुए मुझ परमेश्वरको साधारण मनुष्य मानते हैं।

वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञानवाले विक्षिप्तचित्त अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृतिको ही धारण किये रहते हैं।

नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत:।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्॥
(गीता ७। २५)

अपनी योगमायासे छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिये यह अज्ञानी जनसमुदाय मुझ जन्मरहित अविनाशीपरमेश्वरको नहीं जानता, अर्थात् मुझको जन्मने-मरनेवाला समझता है।

व्यर्थ आशा, कर्म, ज्ञान क्यों कहे, इसका फल नरक होना चाहिये, किन्तु किसी प्रकार भी भगवान‍्से सम्बन्ध हो गया, इसलिये नरक नहीं हो सकता।

श्रद्धाका प्रकरण चल रहा था। वास्तवमें श्रद्धा पुस्तकोंमें ही देखी जाती है, प्रत्यक्ष देखनेमें नहीं आती। हमलोग श्रद्धाकी छायाके किसी भागके आसपास घूम रहे हैं। श्रद्धालु तो श्रद्धेयकी बिना आज्ञा, बिना बतलाये, बिना कहे उसके उद्देश्यसे एक तिल भी बाहर नहीं जाता—न संकेत, न आज्ञा, कुछ नहीं है। श्रद्धेयके लक्ष्य और ध्येयके अनुसार ही श्रद्धालुकी क्रिया होती है। कठपुतलीकी कोई भी क्रिया सूत्रधारके संकेतके विरुद्ध नहीं होती, हो ही नहीं सकती। विपरीतका तो नाम-निशान ही नहीं है।

गायको मारना हमलोग कितना पाप समझते हैं। हमसे गाय काटनेकी क्रिया कभी स्वप्नमें भी नहीं हो सकती। क्या बात है? हमारा हाथ क्यों रुकता है? गायपर श्रद्धा है, गाय माता है। कहाँ गौपर श्रद्धा, कहाँ महात्माकी श्रद्धा। गौपर श्रद्धा शास्त्रसे ही तो हुई। हमारे द्वारा गाय कटे तो नरक होगा। महात्माकी आज्ञाकी अवहेलना होगी तो परमात्माकी प्राप्तिसे वंचित रहना पड़ेगा। नरक तो लाखों बार हुआ है, एक बार और सही, पर परमात्माकी प्राप्तिसे वंचित होना कितनी बड़ी हानि है।

भगवान् के मनका पता कैसे लगे? श्रद्धालुको लगता है। पतिव्रताको पतिके मनका पता लगता है। पुराने नौकरको मालिककी सारी आवश्यकताओंका पता रहता है। आज्ञा करनेसे पहले ही मिट्टी, पानी, आसन, पूजाका बरतन सब चीजें तैयार हैं। आर्थिक दृष्टिसे नौकरी करनेवालेमें यह बात आ जाती है तो फिर श्रद्धावान‍्में क्या बात आ जायगी, कल्पना करो। इतनी दूर नहीं पहुँचे तो हाव-भाव, कटाक्षसे पता लग जाय, फिर तो बस, अपना विचार कुछ भी रहा हो, उसके संकेतके अनुसार बहुत प्रसन्नतापूर्वक काम करता है। एक आदमी लड़केको दवा देने लगा, पासमें विषकी शीशी पड़ी थी, भूलसे उसे उठा लिया। दूरसे दूसरेने कहा—विष है। उसका हाथ रुक गया। उसे कितनी प्रसन्नता हुई, अहो! आपने ही जीवनदान दिया। इसी प्रकार श्रद्धेयकी आज्ञाके पालनमें प्रसन्नता होती है।

इससे भी आगे सिद्धान्त बतलाना—उससे भी आगे यह कहना है कि मेरा तो यह सिद्धान्त है, अब तू जैसा ठीक समझे वैसा कर—‘यथेच्छसि तथा कुरु’। जैसे यह घड़ी है, घरकी दीवालपर टँगी हुई है। उसके भीतर मणि है। मणिका प्रकाश दीवालपर पड़ता है, दूरका एक आदमी है, उसे घड़ी नहीं दीखती, मणि भी नहीं दीखती, पर प्रकाशको खोजता हुआ घड़ीतक आ गया।

रोते हुए करना—यह श्रद्धाकी सबसे घटिया स्थिति है, पर इसकी भी प्रशंसा ही की गयी है। करता जाय, करते-करते रोना मिट जायगा। घरवालोंके दबावसे ही पढ़े। पढ़ते-पढ़ते श्रद्धा हो जायगी। श्रद्धा नहीं हो तो भी बात मानकर ही करता रहे। यज्ञ, दान, तप भी न करनेकी अपेक्षा बिना श्रद्धासे ही करना अच्छा है, फिर ईश्वरकी भक्तिकी तो बात ही क्या है। बिना श्रद्धा ही औषध खाओ, रोग तो मिटेगा ही। वस्तुका भी तो कुछ फल है।

प्रश्न—एक क्षणमें होनेवाली वह श्रद्धा कैसे हो? जिसमें पापी-से-पापीका क्षणभरमें परिवर्तन हो जाय। एकदम विलक्षण स्थिति कैसे हो जाती है।

उत्तर—विषयपर विचार होता है, पर बुद्धिकी बात मनमें आनी कठिन है, उससे कठिन वाणीमें, उससे कठिन लेखनीमें और उससे भी कठिन क्रियामें आती है। मनकी बड़ी भारी शक्ति है। मनरूपी ह्रदका लाखवाँ हिस्सा भी वाणीमें आना कठिन है। एक क्षणमें मनमें सातों काण्ड रामायणकी स्मृति आ जाती है। इतने भाव मनमें आ जाते हैं कि हजार मुखसे कहनेपर भी कहे नहीं जा सकते। इसी प्रकार जहाँसे मनमें यह विचार आता है, उस स्थानपर भी अगाध समुद्र भरा पड़ा है। वैराग्य, भक्ति, ज्ञान, कोई भी विषय स्मरणमें आते ही कितनी ही बातें याद आ जाती हैं? उन्हें कैसे कहा जाय।

अगला लेख  > क्षणमें स्थिति कैसे बदले?