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निष्कामभावकी महिमा

प्रवचन—दिनांक १/५/४०, सायंकाल, स्वर्गाश्रम

मुझे तो वैराग्यकी बातें अच्छी लगती हैं। वैराग्य चाहे मत हो, किन्तु बात वैराग्यकी अच्छी लगती है। मनमें ऐसी बात आनी चाहिये कि सारा समय वैराग्यमें ही बितावें। बात उलटी हो रही है। अच्छे-अच्छे आदमियोंकी प्रवृत्तिमें रुचि हो रही है। जब-जब वैराग्य होता है तब स्वत: ही ध्यान होने लगता है, यह मेरे अनुभवकी बात है। लोग कहें कि हमारा ध्यान नहीं लगता है। उनकी बात सुनकर मुझे हँसी आती है। मैं तो कहता हूँ कि वैराग्यका नशा रहना चाहिये, फिर किसी युक्तिकी आवश्यकता नहीं। वैराग्य न हो तो सौ युक्ति लड़ाओ, कोई युक्ति काम नहीं आयेगी। एकदम ध्यानमें मस्त रहे, बोले तो ध्यानमें, चले तो ध्यानमें, ध्यानके बराबर कोई आनन्द नहीं है। जप करो तो ध्यानके लिये, और तो सब साधन हैं, ध्यान साध्य है। औरोंके लिये तो ध्यान साधन है मेरे लिये ध्यान साध्य है। ध्यान ही निरन्तर रहे। ध्यानमें कोई बाधा नहीं आनी चाहिये। जबतक ध्यान करनेकी चेष्टा है, तबतक साधन है, जब ध्यान अपने-आप ही हो जाय तब साध्य है। परमात्माका ध्यान ऐसे हो जाय कि छुटाये न छूटे, वही साध्य है। गोला बरसे, पत्थर बरसे, बरसता रहे, ध्यानमें मस्त रहे।

ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रित:॥
(गीता १८। ५२)

दृढ़ वैराग्यका आश्रय लेनेवाला तथा निरन्तर ध्यानयोगके परायण रहनेवाला पुरुष सच्चिदानन्द ब्रह्ममें अभिन्नभावसे स्थित होनेका पात्र होता है।

नित्य ध्यान करे, वैराग्य और उपरामता ध्यानके लिये आसरा है। वैराग्यका मतलब है रागका अभाव।

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(गीता ६।३०)

जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अन्तर्गत देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।

इतना ही पर्याप्त है। कैसी स्वाभाविक शान्ति है।

प्रश्न—बारहवें अध्यायमें ध्यानसे कर्मफलके त्यागको श्रेष्ठ कैसे कहा?

उत्तर—अपने-अपने स्थानमें सब बड़े हैं। बड़ा तो कर्मफलका त्याग ही है। अपनी रुचि ध्यानमें है, भगवान् तो सब प्रकारकी बात कहते हैं।

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥
(गीता १३।२४)

उस परमात्माको कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिसे ध्यानके द्वारा हृदयमें देखते हैं; अन्य कितने ही ज्ञानयोगके द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोगके द्वारा देखते हैं अर्थात् प्राप्त करते हैं।

भगवान् यह भी बताते हैं—

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:॥
(गीता ६।४७)

सम्पूर्ण योगियोंमें भी जो श्रद्धावान् योगी मुझमें लगे हुए अन्तरात्मासे मुझको निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है।

स्वार्थरहित क्रिया है, उसमें जो त्याग है वही श्रेष्ठ है। ध्यानमें त्याग नहीं है, इसलिये ध्यानसे कर्मफलका त्याग श्रेष्ठ बतलाया है। छोटे-से-छोटा कर्म है, उसमें यदि फलका त्याग है तो वह बड़ी-से-बड़ी क्रिया, जिसमें फलका त्याग नहीं है, उससे ऊँची है। फलको नहीं चाहता हुआ कर्म करता है, वही संन्यासी और योगी है।

योगदर्शनमें बतलाया है—ध्यानसे सिद्धियोंकी प्राप्ति होती है तथा समाधि होती है। सभी काम ध्यानसे होते हैं।

निष्कामभावसे की हुई खेती भी ऊँची-से-ऊँची है और भजन-ध्यान यदि निष्काम नहीं है तो उस खेती आदिसे नीचा है। कोई भी कर्म करे, फलत्यागसहित करे। कर्मफलका त्याग ध्यानसे श्रेष्ठ है। एक ओर तो क्रिया है और एक ओर भाव है, इनमें भाव ऊँचा है। क्रिया छोटी-से-छोटी उसमें स्वार्थके त्यागका भाव है तो वह ऊँची है। कर्म ध्यानसे बड़ा नहीं है। उसमें जो त्याग है वह श्रेष्ठ है।

एक सद्गुण-सम्पन्न ब्राह्मण है, किन्तु उसमें भगवान् की भक्ति नहीं है, एक चाण्डाल है उसमें भक्ति है तो वह ब्राह्मणसे श्रेष्ठ है। यह बात भागवतमें बतलायी है।

निष्कामकर्मके दो भेद हैं—भगवदर्थ, फलासक्तिका त्याग। फल दोनोंका एक ही है। चारों ही निष्काम हैं—

  1. मय्येव मन आधत्स्व, २. अभ्यासयोगेन, ३. मदर्थ, ४. सर्वकर्मफलत्याग।

सारे योगियोंमें तो वह श्रेष्ठ है जो भगवान‍्में मन लगाता है, चारों ही निष्कामकर्मके भेद हैं।

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