त्याग, वैराग्य और उपरामता
प्रवचन—दिनांक २५/५/४०, सायंकाल, स्वर्गाश्रम
प्रश्न—भगवत्प्राप्ति हो जानेके बाद उसमें धर्मी नहीं रहता। शरीर किस तरह चलता रहता है? इंजनके दृष्टान्तमें तो इंजन रुकता भी है।
उत्तर—मन-बुद्धि-अहंकारका एकदम अभाव नहीं हो जाता है। वह सबको ब्रह्म समझता है। उसमें अन्त:करण और हृदय होता है। पाँच भूत और मन-बुद्धि भी उसमें रहते हैं। पेट्रोमेक्समें जैसे जली हुई राखकी जाली (मेन्टल) रहती है पर उसमें काम होता रहता है, बल्कि जलनेके बाद जैसा काम बनता है वैसा पहले नहीं होता।
यस्य सर्वे समारम्भा: कामसंकल्पवर्जिता:।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधा:॥
(गीता ४।१९)
जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्पके होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्निके द्वारा भस्म हो गये हैं, उस महापुरुषको ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं।
इस स्थितिको प्राप्त करनेके लिये समता बहुत सहायक है, अत: समताकी उपासना करे। यह समताकी बात कहीं पुस्तकमें भी नहीं देखी है, हो तो पता नहीं। भीतरके भावसे दृष्टि हो जाय और दृष्टिसे भीतरका भाव हो जाय एक ही बात है। जो बाहर समदृष्टि है, वह भीतर समदॄष्टिके भावको तुरन्त ले आता है और भीतरकी दृष्टिसे बाहरकी दृष्टि हो जाती है।
बाहरकी समदृष्टिमें दूसरी चीजें नहीं दीखती हैं। दृष्टि समानभावसे फैली रहती है। कानोंके विषयमें भी ऐसी बात है कि उपेक्षा कर दे तो आवाज भी सुनायी नहीं पड़ती है।
प्रश्न—यदि कहीं हल्ला-गुल्ला हो रहा है तो उधरसे ध्यान हटाकर कैसे ध्यान लगायें?
उत्तर—एक आदमी दूसरी भाषामें बात कर रहा है तो हम उस ओर ध्यान नहीं देते। कोई दो आदमियोंकी बातें समझमें आ रही हैं और हम दो आदमी दूसरी बातें करने लगें, उनकी बातोंकी उपेक्षा करनेसे उनका सुनना छूट सकता है।
यही बात चमड़ीकी भी है, शीत-उष्णकी है। उपेक्षा कर देनेसे पहले कम मालूम होता है और बादमें बिलकुल भी प्रभाव नहीं पड़ता। इसी प्रकार जिह्वाके लिये खट्टे-मीठेकी बात होती है। पता भी लगता है और पता लगनेपर भी स्वादमें राग-द्वेष नहीं होता। इसके कई भेद हैं—त्याग, वैराग्य, उपरामता और संयम (इन्द्रियोंको वशमें रखना)।
उपरामतामें स्वादका ज्ञान भी नहीं रहता और स्वादका ज्ञान हो गया तो भी राग-द्वेष नहीं हुआ, वह वैराग्य है और वशमें होना वह है कि हम चाहें तो देख सकते हैं और नहीं चाहें तो न देखें, नियन्त्रण होता है। राग-द्वेष नहीं होनेपर इन्द्रियाँ शीघ्र वशमें हो जाती हैं।
स्वरूपसे त्याग मामूली चीज है, पर वैराग्य मूल्यवान् है। ऐसा त्याग, वैराग्य, उपरामता और संयम चारों लाभकी चीजें हैं। सबसे नीचा दर्जा त्यागका है। मिथ्याचारीमें और साधकमें बहुत फर्क है। साधक तो चाहता है कि त्याग हो, परन्तु वस्तुएँ बार-बार वापस मनमें आ जाती हैं, पर मिथ्याचारी तो दंभी है। मन और इन्द्रियोंमें बाहरी संयम है, पर उपरामता और वैराग्य नहीं है, दो अलग-अलग चीजें हैं।
सिद्धिके लोभसे मनमें संयम होता है, यह हठकी अपेक्षा तो ठीक है, पर यह उपरामता और वैराग्यसे बहुत नीची चीज है। उपरामता और वैराग्य तो साधनकी चीज है। इनके हो जानेपर नीचेकी छोटी-छोटी चीजें हो जानेमें कोई बुरी बात नहीं है। जैसे विष मारा हुआ साँप क्या कर सकता है? राग ही विष है।
य: सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥
(गीता २। ५७)
जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तुको प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है।
इसमें चैलेंज दे दिया है। विषयोंमें रस सूख जाय तो फिर मनको जीतनेकी माथापच्ची कौन करे। मन तो स्वाभाविक वशमें हो जायगा। नियमोंसे भी बहुत लाभ मिलता है।
जैसे आँखको बंद करते हैं, उसी प्रकार मनको बंद करना समझ ले तो बहुत लाभ है। जैसे वाणीको बंद कर लेनेसे भी वाणी बंद हो जाती है। आँख खोलनेमें और बंद करनेमें क्या जोर आता है। इस तरह संकल्परहित हो जाय। कोई कहे कि फिर संकल्प होवे तो? क्या आँख बंद करनेपर अपने-आप खुल सकती है?
आँख बन्द करना बाहरकी उपरामता है और मनके विषयोंसे उनको हटाना मनकी उपरामता है। इसमें वैराग्य, विषयोंको बुरा समझकर त्याग देना बहुत सहायक है।
मैं जिस समय उपरामताकी बहुत जोरदार बातें कह जाता हूँ, उस समय गीताके श्लोक और रामायणके दोहे-चौपाई भूल जाता हूँ। खास पहचानके आदमीको भी भूल जाता हूँ।
वैराग्य और उपरामताकी बातें होते-होते जब इनकी विशेषता हो जाती है, तब प्रयत्न करनेपर भी स्फुरणा नहीं होती है। आज नहीं, बहुत वर्षोंसे ऐसा हो जाता है। मेरे लिये ही अनोखी बात है ऐसी बात नहीं, यह दूसरोंको भी हो जाता है।
एक और बात है, वैराग्य-उपरामताकी बात हो रही है। नेत्रोंमें, वाणीमें, मनमें और मुखमुद्रामें उपरामता है। उस समय सुननेवाला आदमी अपनेमें करना चाहे तो उसमें भी वैराग्य और उपरामता हो जायगी। वह यदि नहीं बोले तो जो वैराग्य-उपरामता चाहते हैं, उनपर उनके मौन रहनेपर भी परमाणु पहुँच जाते हैं।
कोई बिलकुल उपरामता और वैराग्यके शब्द भी नहीं समझे तो भी उसपर असर होगा। असर तो कुत्तेपर भी पड़ना चाहिये, युक्ति तो नहीं है। कुत्ता जैसे भौंकता है तो उसमें भौंकनेमें भी उपरामता आनी चाहिये। उपरामताके अन्तर्गत अहिंसा आ ही जाती है।
वैराग्य-उपरामतासे ध्यान ऊँची चीज है। जैसे मैं ध्यानमें बैठा हूँ और वास्तवमें मेरा ध्यान लग गया और तुम भी उसे देख रहे हो, तुम भी ध्यान लगाना चाहो और तुम भी कोशिश करो तो ध्यान लग सकता है। उपरामता और वैराग्य हो जानेपर ध्यान सुगमतासे लग सकता है।
वैराग्य तो हृदयसे पैदा हो तब हो। हर समय वैराग्य और उपरामतामें रहे। हमलोग बात-ही-बात करते हैं। वैराग्य धारण करनेकी चीज है। लोगोंकी व्यवस्था आदिकी जिम्मेवारी रखे ही नहीं, सांसारिक कामोंमें आवश्यकतानुसार सीमित समय ही दे। किसी समय सत्संगकी बात हो गयी, फिर अपना ध्यान करे। सोनेकी, खानेकी, पीनेकी, किसी बातकी परवाह नहीं रखे, जिस तरह हो जाय, साथ ही वैराग्य और उपरामता हो, हर समय वृत्तियाँ संसारसे उपराम रहें, इस प्रकार समय बितावे तो गृहस्थमें ही संन्यास है। आजकल वानप्रस्थ आश्रम तो एक प्रकारसे लुप्त है। गृहस्थ होते हुए ही संन्यास ले ले, यानी गृहस्थ होता हुआ भी विरक्त रहे। वानप्रस्थ आश्रमका धर्म बड़ा कठिन है। इस आश्रममें ही पड़ा रहे। आश्रम बदलकर नियम पालन न करे तो भार है। जिस आश्रममें हो उसीमें अपना काम करे। साधु होकर असाधु हो जाय तो खराब है। साधु न होवे तो कोई बात नहीं है।
श्रीस्वयंज्योतिजी बड़े अच्छे साधु थे। वे किसीको शिष्य नहीं बनाते थे, कहते कि हम लायक नहीं हैं, हमारी सामर्थ्य नहीं है। साधु वैराग्य होनेसे ही शोभायमान होते हैं। चार चीजें हैं—संयम, त्याग, वैराग्य और उपरामता, चारों साधुओंके शोभा देती हैं। जिसमें ये चारों हों, वही साधु है।
त्याग—स्वरूपसे पदार्थोंका त्याग। जैसे संन्यासाश्रममें मान-बड़ाई, कंचन-कामिनीका त्याग।
संयम—इन्द्रिय, मन अपने वशमें रखना, इसका नाम संयम है।
वैराग्य—वस्तुओंमें जिसका राग नहीं है। संयम तो सकामी योगी भी कर सकते हैं। मन, इन्द्रियोंका संयम किये बिना समाधि नहीं होती। संयमका मतलब है वशमें कर लेना। इन्द्रियोंको वशमें कर लेना एक चीज है, विषयोंसे हटाना एक चीज है, उनमें रागका अभाव कर देना एक चीज है। भगवान्ने कहा है—
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिन:।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते॥
(गीता २।५९)
इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंको ग्रहण न करनेवाले पुरुषके भी केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, परंतु उनमें रहनेवाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती। इस स्थितप्रज्ञ पुरुषकी आसक्ति भी परमात्माका साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है।
उपरामता—जैसे कसाईकी दुकानकी ओर हमारी वृत्ति जाती ही नहीं, इस प्रकारकी वृत्तिका नाम उपरामता है। हम स्वरूपसे विषयोंका त्याग कर देते हैं। वह त्याग है किन्तु विषयोंमें राग होनेके कारण उपरामता नहीं है। जिसके साथ रागका अभाव होकर स्वत: उपरति होती है, वह उपरामता है। रागका अभाव हो वह उपरति है, वैराग्ययुक्त उपरति है, वही उपरामता है।
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वश:।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥
(गीता २। ५८)
कछुआ सब ओरसे अपने अंगोंको जैसे समेट लेता है, वैसे ही जब यह पुरुष इन्द्रियोंके विषयोंसे इन्द्रियोंको सब प्रकारसे हटा लेता है, तब उसकी बुद्धि स्थिर है, ऐसा समझना चाहिये।
जिसके भीतर वैराग्य-उपरति दोनों हैं, त्याग उसके अन्तर्गत है, संयम होनेसे त्याग सहज हो सकता है, परन्तु उपरति दूसरी चीज है, त्यागसे ऊँची श्रेणी संयमकी है, इनसे ऊँची श्रेणी वैराग्यकी है। वैराग्यसे ऊँची श्रेणी उपरतिकी है। चारों ही उत्तम हैं।
स्थिर बुद्धिवाले पुरुषमें संयम और वैराग्य दोनों ही हैं। ये दो चीजें साथमें हो जायँगी तो उपरति चाहे जब कर लो। जैसे मेरी आँख खुली है, बंद करनेमें क्या देर लगी। जिसकी इन्द्रियाँ वशमें हैं, उसके लिये संयम क्या कठिन है। जिस तरह संसारमें वृत्तियाँ फिर रही हैं, बाँधनी है, उसके लिये एक मिनटका ही काम नहीं है। आँख खोली और मीची।
प्रश्न—वैराग्य-उपरामतामें बहुत अंतर है?
उत्तर—पदार्थसे रागका अभाव हो जानेका नाम वैराग्य है। उपरामता होनेसे वृत्तियाँ उस पदार्थमें जाती ही नहीं।
विषयोंमें सुखबुद्धि अज्ञानसे है, वास्तवमें सुख नहीं है। सुन्दरता तो मनकी मानी हुई है। कोई भी चीज सुन्दर नहीं है। अपनी-अपनी पसन्द है। बालोंमें, वस्त्रोंमें सभी चीजोंमें अपनी-अपनी कल्पना है। सबकी अलग-अलग पसन्द है। इससे सिद्ध हुआ कि सुख कल्पनामें है, वास्तवमें नहीं है। वास्तवमें सुख तो परमात्मामें है। आगे जाकर उसका बहुत उत्तम फल है। जितने सांसारिक पदार्थ हैं, उनसे उस ज्ञानसागरके सुखकी एक बूँदके समान भी सुख नहीं है। चित्त उसमें टिक जाय, फिर असली वस्तु तो उसके बाद मिलती है।
प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते॥
(गीता २।६५)
अन्त:करणकी प्रसन्नता होनेपर इसके सम्पूर्ण दु:खोंका अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्तवाले कर्मयोगीकी बुद्धि शीघ्र ही सब ओरसे हटकर एक परमात्मामें ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है।
प्रश्न—उपरामतामें द्वेषका असर रहता है क्या?
उत्तर—उपरामतामें द्वेष नहीं रहता। मार्गमें चल रहे हैं, तिनके पड़े हैं, पत्थर पड़े हैं, उनसे राग-द्वेष नहीं है। वृत्तियाँ उस ओर बिना प्रयोजन नहीं गयीं, उसका नाम उपरामता है। ऐसे ही वह संसारके पदार्थोंको व्यर्थ समझ लेता है, इसलिये एक क्षण भी उसका मन उनकी ओर नहीं जाता।
राग-द्वेषरहित उन महात्माओंका विचरण तो एक खेल है। वैराग्यकी जितनी कमी है, वह उपरामता मूल्यवान् नहीं है। एक रागका अभाव होकर जो विस्मृति है, वही ऊँची श्रेणीकी उपरामता है। एक-एकका फल परमात्माकी प्राप्ति बताया है। सबको बलि देकर बचा हुआ भोजन अमृत भोजन है—
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥
(गीता ३। १३)
यज्ञसे बचे हुए अन्नको खानेवाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं और जो पापीलोग अपना शरीर-पोषण करनेके लिये ही अन्न पकाते हैं, वे तो पापको ही खाते हैं।
प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धि: पर्यवतिष्ठते॥
(गीता २।६५)
अन्त:करणकी प्रसन्नता होनेपर इसके सम्पूर्ण दु:खोंका अभाव हो जाता है और उस प्रसन्न चित्तवाले कर्मयोगीकी बुद्धि शीघ्र ही सब ओरसे हटकर एक परमात्मामें ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है।
चित्तकी प्रसन्नता प्रसाद है। यज्ञसे बचा हुआ है वह प्रसाद है। खूब समझ लेना चाहिये—इन्द्रियाँ अग्नि हैं, विषय आहुति है। जो मनुष्य इस प्रकारका यज्ञ करते हैं, इन्द्रियोंके साथ विषयोंका संयोग तो होता है, परन्तु रागरहित होता है, वह इन्द्रियोंमें विषयोंकी आहुति है।
पाँचों इन्द्रियोंका संयोग तो है, किन्तु उनमें राग नहीं है। इस प्रकार जिसकी इन्द्रियाँ रागरहित विचरती हैं, वह रागरहित विचरना प्रसादको प्राप्त होना है। ऐसा जो वैराग्य है, वह यज्ञ है। कैसे करें—
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥
(गीता २।६४)
परन्तु अपने अधीन किये हुए अन्त:करणवाला साधक अपने वशमें की हुई, राग-द्वेषसे रहित इन्द्रियोंद्वारा विषयोंमें विचरण करता हुआ अन्त:करणकी प्रसन्नताको प्राप्त होता है।
यह यज्ञका विधि-विधान बता दिया। विषयोंके बीचमें अपनी जो आसक्ति है, वह भस्म हो जाती है। संयमरूपी अग्निमें इन्द्रियोंके हवनका तात्पर्य संयम लेना ही ठीक है।
कछुआवाला जो उदाहरण है वह इन्द्रियोंसे इन्द्रियोंकी वृत्तिको समेटकर बैठना है। विषयोंसे इन्द्रियोंकी वृत्तियोंको समेटना यह उपरति हुई, इन्द्रियोंमें इन्द्रियोंका हवन नहीं है। इन्द्रियोंसे बाहरका ज्ञान नहीं होना यह इन्द्रियोंका हवन है। मनके द्वारा इन्द्रियोंको सब ओरसे समेटना उपरति है।
वह तीन प्रकारसे होता है—हठ, दम्भ और साधन।
दम्भ तो नरकमें ले जानेवाला है। हठपूर्वक त्याग करना बीचकी चीज है, वैराग्यपूर्वक त्याग श्रेष्ठ है। यह स्थिति साधकके लिये साधन है, महात्माओंमें स्वाभाविक होती है।
मान-बड़ाईमें द्वेषबुद्धि साधनमें सहायक है, आखिरमें घृणाबुद्धि है वह भी हटानी है। पुण्योंको हटानेकी आवश्यकता नहीं है, पापोंको हटानेकी आवश्यकता है। पुण्योंका हटाना तो एक मिनटका काम है, कठिनता नहीं है।
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते।
त्यागी सत्त्वसमाविष्टो मेधावी छिन्नसंशय:॥
(गीता १८। १०)
जो मनुष्य अकुशल कर्मसे तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्ममें आसक्त नहीं होता—वह शुद्ध सत्त्वगुणसे युक्त पुरुष संशयरहित, बुद्धिमान् और सच्चा त्यागी है।
अकुशल कर्ममें द्वेष न करनेवाला बनना है, कुशलमें आसक्ति है वह भी हटानी है, अकुशलमें द्वेष है वह भी हटाना है।