मुक्तिका सुगम उपाय
प्रभु-कृपासे जो यह मनुष्यजन्म मिला है, इसको हमें सफल करना है। अगर पशुओंकी तरह खाने-पीने, सोने-जागने आदिमें ही समय बरबाद कर दिया तो मनुष्यजन्म सफल नहीं हुआ। मनुष्यजन्म तभी सफल होगा, जब भगवान्का भजन किया जाय। भजनके बिना मनुष्य मुर्देकी तरह है—‘रामदास कहे जीव जगतमें मुर्दा-सा फिरता!’ केवल प्राणोंके चलनेसे ही जीना नहीं होता। लुहारकी धौंकनी भी फू-फा, फू-फा करती है, पर वह जीना नहीं कहलाता। अत: केवल श्वास लेने-छोड़नेसे हमारा जीना सिद्ध नहीं होगा। जीना तभी सिद्ध होगा, जब हम मनुष्यके योग्य काम करें। चाहे मनुष्य कहो, चाहे भगवत्प्राप्तिका अधिकारी कहो, एक ही बात है। भगवत्प्राप्ति मनुष्यजन्ममें ही हो सकती है और बड़ी सुगमतासे हो सकती है।
हम सब साक्षात् भगवान्के अंश हैं। भगवान् स्वयं कहते हैं—‘ममैवांशो जीवलोके’ (गीता १५। ७), ‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए’ (मानस, उत्तर० ८६। २)। हम सब भगवान्के ही उत्पन्न किये हुए उनके प्यारे अंश हैं। ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है, जो भगवान्का प्यारा न हो। हमें यहाँ भगवान्ने ही जन्म दिया है। कोई भी व्यक्ति यह नहीं बता सकता कि मैंने अपनी मरजीसे यहाँ जन्म लिया है। पालन-पोषण भी भगवान् ही करते हैं। रक्षा भी भगवान् ही करते हैं। किसीमें यह कहनेकी हिम्मत नहीं है कि मैं इतने वर्ष ही जीऊँगा, इतने वर्ष ही यहाँ रहूँगा। तात्पर्य है कि हम भगवान्की मरजीसे यहाँ आये हैं, भगवान्की मरजीसे जी रहे हैं और भगवान्की मरजीसे जायँगे। इसलिये हम भगवान्के ही हैं। एक सन्तसे किसीने पूछा कि किधर जाओगे? तो वे बोले कि फुटबालको क्या पता कि वह किधर जायगा? खिलाड़ी जिधर ठोकर लगायेगा, वहीं जायगा। इसी तरह भगवान् जहाँ भेजेंगे, वहीं जायँगे; जैसा रखेंगे, वैसे रहेंगे—ऐसा विचार करके निश्चिन्त हो जायँ। अपनी कोई इच्छा न रखें; न जीनेकी, न मरनेकी। भगवान् चाहे नरकोंमें भेजें, चाहे स्वर्गमें भेजें, चाहे वैकुण्ठमें भेजें, चाहे मनुष्यलोकमें भेजें, जैसी उनकी मरजी; हम उनके भरोसे निश्चिन्त हो जायँ। अपनी अलग कोई इच्छा न रखकर भगवान्की इच्छामें अपनी इच्छा मिला दें। केवल इतनेसे ही हमारा जीवन सफल हो जायगा, लम्बी-चौड़ी बात ही नहीं है। बैठे हैं तो भगवान्की मरजीसे, जाते हैं तो भगवान्की मरजीसे। हमें कोई दु:ख नहीं, कोई सन्ताप नहीं। अगर अभी मर जायँ तो क्या हर्ज है? हमारेको संसारसे कुछ लेना ही नहीं है। जीयें तो भी आनन्द है, मर जायँ तो भी आनन्द है। कोई खिलाना चाहे तो खा लें, सुनना चाहे तो सुना दें और मिलना चाहे तो मिल लें। अपना काम कोई है ही नहीं। खानेमें इतना ध्यान रखना है कि वह वस्तु शास्त्रविरुद्ध और शरीरविरुद्ध (कुपथ्य) न हो। कोई न खिलाये अथवा कम खिलाये या ज्यादा खिलाये तो उसकी मरजी। अपनी कोई चिन्ता नहीं। कोई कहे कि हम सुनना नहीं चाहते, चुप हो जाओ तो चुप हो जायँ। कोई मिलना नहीं चाहे तो हमारेको मिलना है ही नहीं।
एक सन्त थे। उनको एक आदमीने निमन्त्रण दिया कि महाराज, कल आप हमारे यहाँ भिक्षा लें। सन्तने कहा—अच्छी बात है। दूसरे दिन सन्त उसके घर पहुँचे। वहाँ खड़े एक दूसरे आदमीने देखा तो बोला कि कैसे आये यहाँपर? निकल जाओ, नहीं तो मारेंगे! सन्त चले गये। दूसरे दिन वह आदमी पुन: उनके पास गया और बोला कि महाराज, कल आप आये नहीं? सन्त बोले कि भाई, आया तो था, पर वहाँ खड़े एक आदमीने कह दिया कि चले जाओ तो वापस आ गया। वह बोला कि महाराज, कल आप जरूर पधारो। दूसरे दिन फिर वे सन्त गये। उनको देखकर वहाँ खड़ा आदमी फिर बोला कि तेरेको शर्म नहीं आती? कल कहा था न कि मत आना, फिर आ गया! शर्म है ही नहीं। जाओ, निकलो यहाँसे! सन्त वापस चले आये। दूसरे दिन फिर उसने जाकर कहा कि महाराज, कल पधारे नहीं? वे बोले कि भाई, आया तो था। वहाँ ना मिल गयी तो चला गया। वह बोला कि महाराज, मैं वहाँ था नहीं, मेरेसे बड़ी भूल हुई, कृपा करके कल आप जरूर पधारो। वे सन्त फिर गये। उस आदमीने बड़ा सम्मान किया और बोला कि महाराज, आपने आकर बड़ी कृपा की! भोजन कीजिये। भोजन करानेके बाद वह बोला कि महाराज, आप बहुत बड़े सन्त हो! आपका कितना तिरस्कार हुआ, फिर भी आप आ गये! वे सन्त बोले—इसमें बड़प्पन क्या है? कुत्तेको भी तु-तु करो, पुचकारो तो वह आ जाता है और दुत्कारो तो वह चला जाता है। यह बात तो कुत्तेकी है, मनुष्यकी थोड़े ही है! ऐसा भाव हमारेमें भी होना चाहिये।
कोई सुनना चाहे तो सुना दें। वह बोले कि क्यों बकता है, चुप रह तो चुप रह जायँ। वह बोले कि रामायण सुनाओ, गीता सुनाओ तो जो जानते हैं, वह सुना दें। वह बोले कि बाइबिल सुनाओ, कुरान शरीफ सुनाओ तो कह दें कि भाई, यह हमें आता नहीं, कैसे सुनायें? ऐसे ही कोई मिलना चाहे तो मिल लें। कोई मिलना नहीं चाहे तो बड़ी अच्छी बात है, आनन्दसे बैठे रहें। ऐसा करनेमें क्या कठिनता है? इसमें कोई तपस्या नहीं करनी पड़ती, कहीं जाना नहीं पड़ता, कोई पढ़ाई नहीं करनी पड़ती, कोई शास्त्र नहीं पढ़ना पड़ता, कोई गुरु नहीं बनाना पड़ता, कोई दीक्षा नहीं लेनी पड़ती। दूसरा जैसे राजी हो, वैसे कर दिया। हमारी न खानेकी मरजी है, न सुनानेकी मरजी है, न मिलनेकी मरजी है। कोई खिलाना चाहे तो खा लिया, सुनना चाहे तो सुना दिया और मिलना चाहे तो मिल लिया। कितनी सुगम बात है! इसमें हमारा क्या खर्च हुआ?
एक सन्तने लिखा है कि हमारेसे दुनिया राजी नहीं हुई तो हमने विचार किया कि वह राजी क्यों नहीं हुई? विचार आया कि हम दुनियाके काम नहीं आये। अगर हम दुनियाके काम आते तो दुनिया राजी हो जाती। दुनियाके काम वही आता है, जो कुछ नहीं चाहता। कुछ भी चाहनेवाला सबके काम नहीं आ सकता। ऐसा विचार करके हमने इच्छा छोड़ दी। इच्छा छोड़ते ही मनमें आया कि अगर हम दुनियाके काम नहीं आये तो दुनिया भी हमारे काम नहीं आयी। दोनोंमें समता हो गयी। न दुनियाका दोष, न हमारा दोष। अब जिस तरहसे भगवान् रखेंगे, उसी तरहसे हम रहेंगे। हमें खाना ही नहीं है, बात सुनानी ही नहीं है, किसीसे मिलना ही नहीं है। कोई कहे खाओ तो खा लिया। कोई कहे सुनाओ तो सुना दिया। कोई कहे मिलो तो मिल लिया। कोई न खिलाये तो मौज, न सुनना चाहे तो मौज, न मिलना चाहे तो मौज! इतनी-सी बातसे परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी! परमात्माकी प्राप्ति जितनी सरल है, उतना सरल कोई काम है ही नहीं।
जो हमारे बिना रह सकता है, उसके बिना हम बड़े आनन्दसे रह सकते हैं। एक सन्तने कहा कि हमारी आँखें चली गयीं तो दु:ख हुआ। फिर विचार आया कि हमारे बिना आँखें रह सकती हैं तो हम भी आँखोंके बिना रह सकते हैं। जब आँखोंको हमारी जरूरत नहीं तो फिर हमारेको भी आँखोंकी जरूरत नहीं। अब मनमें ही नहीं आती कि आँखोंसे देखें। ऐसे ही हमारे बिना आप रह सकते हैं तो आपके बिना हम भी मौजसे रह सकते हैं। कितनी ऊँची बात है और कितनी सीधी-सरल है! अपनी कोई इच्छा हो ही नहीं। न खानेकी इच्छा हो, न सुनानेकी इच्छा हो, न मिलनेकी इच्छा हो। इससे सुगम बात और क्या होगी? इसमें न जप है, न ध्यान है, न स्वाध्याय है! संसारके साथ यह सम्बन्ध रहे कि कोई जैसा खिलाये, वैसा खा ले। जैसा पिलाये, वैसा पी ले। मिलना चाहे तो मिल ले। इस तरह संसारमें हम बड़े आनन्दसे रह सकते हैं! गीतामें आया है—
यदृच्छालाभसन्तुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सर:।
सम: सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥
(४।२२)
‘जो फलकी इच्छाके बिना अपने-आप जो कुछ मिल जाय, उसमें सन्तुष्ट रहता है और ईर्ष्यासे रहित, द्वन्द्वोंसे रहित तथा सिद्धि और असिद्धिमें सम है, वह कर्म करते हुए भी उससे नहीं बँधता।’
सन्तोंने कहा है—
जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिये,
सीताराम सीताराम सीताराम कहिये।
कहहु भगति पथ कवन प्रयासा।
जोग न मख जप तप उपवासा॥
(मानस, उत्तर० ४६। १)
बीमारी आ गयी तो बहुत ठीक है, बीमारी चली गयी तो बहुत ठीक है। किसीने अपमान कर दिया तो बहुत ठीक है, किसीने सम्मान कर दिया तो बहुत ठीक है। कोई मान करे, कोई अपमान करे। कोई भोजन दे, कोई भोजन न दे। कोई सुनना चाहे, कोई सुनना न चाहे। कोई मिलना चाहे, कोई मिलना न चाहे। अपना उससे क्या मतलब? अपनी कोई जरूरत नहीं। कोई परवाह नहीं। हमारा न जीनेसे मतलब है, न मरनेसे मतलब है। न किसीके आनेसे मतलब है, न किसीके जानेसे मतलब है। न मिलनेसे मतलब है, न नहीं मिलनेसे मतलब है। न करनेसे मतलब है, न नहीं करनेसे मतलब है।
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय:॥
(गीता ३।१८)
‘उस महापुरुषका इस संसारमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है और न कर्म न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें किसी भी प्राणीके साथ इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता।’
सब काम भगवान्के लिये ही करना है। अपने लिये कुछ करना है ही नहीं। न कहीं जाना है, न आना है, न रहना है। फिर सब झंझट मिट जायगी। निरन्तर आनन्द रहेगा, मौज रहेगी। हमारी कोई जरूरत नहीं, न भोजनकी जरूरत, न व्याख्यानकी जरूरत, न मिलनेकी जरूरत। कोई खिलाना चाहे तो खायेंगे, सुनना चाहे तो सुनायेंगे, मिलना चाहे तो मिलेंगे। इतनेसे ही जन्म सफल हो जायगा! कोई शास्त्रीय अनुष्ठान करनेकी जरूरत नहीं। कहीं जाना नहीं, कहीं आना नहीं। कहीं देना नहीं, कहीं लेना नहीं। अमुक जगह जाना है, उनसे मिलना है—यह है ही नहीं। हमारी कोई मरजी है ही नहीं। इससे मुक्ति नहीं होगी तो और क्या होगा?
भगवान्ने कृपा करके मानव-जन्म दिया है। उस मानवजन्मको सफल कर लेना मनुष्यका कर्तव्य है। वह मानवजन्म इस बातसे सफल हो जायगा कि मेरा कुछ नहीं है, मेरेको कुछ नहीं चाहिये और मेरेको अपने लिये कुछ नहीं करना है। कोई ठीक करे या बेठीक करे, मरजी आये सो करे, हमें किसीसे कुछ नहीं कहना है। कभी मनमें आ जाय तो कह दे कि भाई, ऐसा मत करो। वह कहे कि ‘जा-जा, तेरी बात नहीं मानता’ तो बहुत ठीक है, मौज हो गयी। इसमें क्या कठिनता है?
सदा दीवाली सन्तके आठों पहर आनन्द।
आठों पहर आनन्द-ही-आनन्द, मौज-ही-मौज है। कोई पूछे कि आपको कहीं जाना है तो कहे कि ना, हमारेको न जाना है, न आना है। कोई कहे ‘बैठ जाओ’ तो बैठ जाय, ‘सो जाओ’ तो सो जाय, ‘चलो’ तो चलो, ‘नहीं चलो’ तो नहीं चलो। कितनी सुगम बात है! ‘जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये।’ यह सबको सुख देनेवाली, आनन्द देनेवाली बात है। कोई भोजन कराना चाहे तो अच्छी बात, नहीं कराना चाहे तो अच्छी बात। कोई सुनना चाहे तो अच्छी बात, नहीं सुनना चाहे तो अच्छी बात। कोई मिलना चाहे तो अच्छी बात, नहीं मिलना चाहे तो अच्छी बात। अपने मस्तीसे भजन करो, कीर्तन करो, नामजप करो। इसीसे मनुष्यजन्म सफल हो जायगा।