॥ श्रीहरि:॥
सत्यकी खोज
शास्त्रोंमें लिखा है कि मनुष्यशरीर कर्मप्रधान है। जब मनुष्यके भीतर कुछ पानेकी इच्छा होती है, तब उसकी कर्म करनेमें प्रवृत्ति होती है। कर्मके दो प्रकार हैं—कर्तव्य और अकर्तव्य। निष्कामभावसे कर्म करना ‘कर्तव्य’ है और सकामभावसे कर्म करना ‘अकर्तव्य’ है। अकर्तव्यका मूल कारण है—संयोगजन्य सुखकी कामना। अपने सुखकी कामना मिटनेपर अकर्तव्य नहीं होता। अकर्तव्य न होनेपर कर्तव्यका पालन अपने-आप होता है। जो साधन अपने-आप होता है, वह असली होता है और जो साधन किया जाता है, वह नकली होता है।
मनुष्यमें यदि कोई कामना पैदा हो जाय तो वह पूरी होगी ही—ऐसा कोई नियम नहीं है। कामना पूरी होती भी है और नहीं भी होती। सब कामनाएँ आजतक किसी एक भी व्यक्तिकी पूरी नहीं हुईं और पूरी हो सकती भी नहीं। अगर कामना पैदा तो हो जाय, पर पूरी न हो तो बड़ा दु:ख होता है! परन्तु मनुष्यकी दशा यह है कि वह कामनाकी अपूर्तिसे दु:खी भी होता रहता है और कामना भी करता रहता है! परिणाम यह होता है कि न तो सब कामनाएँ पूरी होती हैं और न दु:ख ही मिटता है। इसलिये अगर किसीको दु:खसे बचना हो तो इसका उपाय है—कामनाका त्याग। यहाँ शंका हो सकती है कि अगर हम कोई भी कामना न करें तो फिर कर्म करें ही क्यों? इसका समाधान है कि कर्म फलप्राप्तिके लिये भी किया जाता है और फलकी कामनाका त्याग करनेके लिये भी किया जाता है। जो कर्मबन्धनसे मुक्त होना चाहता है, वह फलेच्छाका त्याग करनेके लिये कर्म करता है। यह भी शंका हो सकती है कि अगर हम कोई भी कामना न करें तो हमारा जीवन कैसे चलेगा? जीवन-निर्वाहके लिये तो अन्न-जल आदि चाहिये? इसका समाधान है कि अन्न-जल लेते-लेते इतने वर्ष बीत गये, फिर भी हमारी भूख-प्यास मिटी है क्या? भूख-प्यास तो नहीं मिटी! अन्न-जलके बिना हम मर जायँगे तो क्या अन्न-जल लेते-लेते नहीं मरेंगे? मरना तो पड़ेगा ही। वास्तवमें हमारा जीवन कामना-पूर्तिके अधीन नहीं है। क्या जन्म लेनेके बाद माँका दूध कामना करनेसे मिला था? जीवन-निर्वाह कामना करनेसे नहीं होता, प्रत्युत किसी विधानसे होता है।
सब कामनाएँ कभी किसीकी पूरी नहीं होतीं। कुछ कामनाएँ पूरी होती हैं और कुछ पूरी नहीं होतीं—यह सबका अनुभव है। इसमें विचार करना चाहिये कि कामना पूरी होने अथवा न होनेकी स्थितिमें क्या हमारेमें कोई फर्क पड़ता है? क्या कामना पूरी न होनेपर हम नहीं रहते? विचार करनेसे अनुभव होगा कि कामना पूरी हो अथवा न हो, हमारी सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है। कामना उत्पन्न होनेसे पहले हम जैसे थे, कामनाकी ‘पूर्ति’ होनेपर भी हम वैसे ही रहते हैं, कामनाकी ‘अपूर्ति’ होनेपर भी हम वैसे ही रहते हैं और कामनाकी ‘निवृत्ति’ होनेपर भी हम वैसे ही रहते हैं। इस बातसे एक बल मिलता है कि यदि कामनाकी अपूर्तिसे हमारेमें कोई फर्क नहीं पड़ता तो फिर हम कामना करके क्यों दु:ख पायें!
मनुष्यके सामने दो ही बातें हैं—या तो वह अपनी सभी कामनाएँ पूरी कर ले अथवा उनका त्याग कर दे। वह कामनाओंको पूरी तो कर सकता ही नहीं, फिर उनको छोड़नेमें किस बातका भय! जो हम कर सकते हैं, उसको तो करते नहीं और जो हम नहीं कर सकते, उसको करना चाहते हैं—इसी प्रमादसे हम दु:ख पा रहे हैं।
जो कामनाओंको छोड़ना चाहता है, उसके लिये सबसे पहले यह मानना जरूरी है कि ‘संसारमें मेरा कुछ नहीं है’। जबतक हम शरीरको अथवा किसी भी वस्तुको अपना मानेंगे, तबतक कामनाका सर्वथा त्याग कठिन है। अनन्त ब्रह्माण्डोंमें ऐसी एक भी वस्तु नहीं है, जो मेरी और मेरे लिये हो—इस वास्तविकताको स्वीकार करनेसे कामना स्वत: मिट जाती है; क्योंकि जब मेरा और मेरे लिये कुछ है ही नहीं, तो फिर हम किसकी कामना करें और क्यों करें? कामनाओंका सर्वथा त्याग तब होता है, जब मनुष्यका शरीरसे सम्बन्ध (मैं-मेरापन) नहीं रहता। अत: कामनाओंके सर्वथा त्यागका तात्पर्य हुआ— जीते-जी मर जाना। जैसे, मनुष्य मर जाता है तो वह किसी भी वस्तुको अपना नहीं कहता और कुछ भी नहीं चाहता। उसपर अनुकूलता-प्रतिकूलता, मान-सम्मान, निन्दा-स्तुति आदिका प्रभाव नहीं पड़ता, ऐसे ही कामनाओंका सर्वथा त्याग होनेपर मनुष्यपर अनुकूलता-प्रतिकूलता आदिका प्रभाव तो पड़ता नहीं और जीता रहता है! इसलिये महाराज जनक देहके रहते हुए भी ‘विदेह’ कहलाते थे। जो जीते-जी मर जाता है, वह अमर हो जाता है। इसलिये मनुष्य अगर सर्वथा कामनारहित हो जाय तो वह जीते-जी अमर हो जायगा—
यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिता:।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते॥
(कठ० २। ३। १४; बृहदा० ४। ४। ७)
‘साधकके हृदयमें स्थित सम्पूर्ण कामनाएँ जब समूल नष्ट हो जाती हैं, तब मरणधर्मा मनुष्य अमर हो जाता है और यहीं (मनुष्यशरीरमें ही) ब्रह्मका भलीभाँति अनुभव कर लेता है।’
जब साधकके भीतर कामना-पूर्तिका महत्त्व नहीं रहता, तब उसके द्वारा सभी कर्म स्वत: निष्कामभावसे होने लगते हैं और वह कर्म-बन्धनसे छूट जाता है। सुखकी कामना न रहनेसे उसके सभी दोष नष्ट हो जाते हैं; क्योंकि सम्पूर्ण दोष सुखकी कामनासे ही पैदा होते हैं। साधकका जीवन निर्दोष होना चाहिये। सदोष जीवनवाला साधक नहीं हो सकता।
अब यह विचार करें कि दोष किसमें रहते हैं? संसारमें दो ही वस्तुएँ हैं—सत् और असत्। दोष न तो सत् (अविनाशी)-में रहते हैं और न असत् (विनाशी)-में ही रहते हैं। सत् में दोष नहीं रहते; क्योंकि सत् का कभी अभाव नहीं होता—‘नाभावो विद्यते सत:’ (गीता २। १६)। कामना अभावसे पैदा होती है। जिसका कभी अभाव नहीं होता, उसमें कोई कामना हो ही नहीं सकती और जिसमें कामना नहीं होती, उसमें कोई दोष आ ही नहीं सकता। असत् में भी दोष नहीं रहता; क्योंकि असत् की सत्ता ही नहीं है—‘नासतो विद्यते भाव:’ (गीता २। १६)। जिसकी सत्ता ही नहीं है, उसमें (बिना आधारके) दोष कहाँ रहेगा? असत् की सत्ता न होना ही सबसे बड़ा दोष है, जिसमें दूसरा दोष आनेकी सम्भावना ही नहीं है। सत् और असत् के सम्बन्धमें भी दोष नहीं मान सकते; क्योंकि जैसे प्रकाश और अन्धकारका सम्बन्ध असम्भव है, ऐसे ही सत् और असत् का सम्बन्ध भी असम्भव है। तो फिर दोष किसमें हैं? दोष उसमें हैं, जिसमें कामना है। कारण कि सम्पूर्ण दोष कामनासे ही पैदा होते हैं—‘काम एष..........’ (गीता ३। ३७)। जब मनुष्य वस्तुके द्वारा सुख पानेकी कामना करता है, तब लोभ पैदा होता है। जब वह व्यक्तिके द्वारा सुख पानेकी कामना करता है, तब मोह पैदा होता है। जब वह अवस्थाके द्वारा सुख पानेकी कामना करता है, तब परिच्छिन्नता पैदा होती है। जैसे एक बीजमें मीलोंतकका जंगल विद्यमान है, ऐसे ही एक दोषमें सम्पूर्ण दोष विद्यमान हैं। ऐसा कोई दोष नहीं है, जिसमें सब दोष न हों। इसलिये जबतक एक भी दोष है, तबतक साधकको सन्तोष नहीं करना चाहिये। आंशिक दोष और आंशिक निर्दोषता (गुण) तो प्रत्येक मनुष्यमें रहते हैं। कोई भी मनुष्य सब प्रकारसे, सब समय और सबके लिये दोषी हो सकता ही नहीं; क्योंकि मूलमें वह परमात्माका ही अंश है*।
* ईस्वर अंस जीव अबिनासी।
चेतन अमल सहज सुखरासी॥
(मानस, उत्तर० ११७।१)
अगर साधक सर्वथा निर्दोष होना चाहता है तो उसको संयोगजन्य सुखकी कामनाका सर्वथा त्याग करना होगा।
अब यह विचार करें कि कामना किसमें है? कई लोग ऐसा मानते हैं कि कामना मनमें रहती है। परन्तु वास्तवमें कामना मनमें रहती नहीं है, प्रत्युत मनमें आती है—‘प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्’ (गीता २। ५५)। मन एक करण (अन्त:करण) है। करणमें कोई कामना नहीं होती। क्या कलममें लिखनेकी कामना होती है? मोटरमें चलनेकी कामना होती है? नहीं होती। अगर ऐसा मानें कि कामना मनमें होती है तो फिर कामना-अपूर्तिका दु:ख भी मनको ही होना चाहिये। परन्तु कामना-अपूर्तिका दु:ख कर्ता (स्वयं)-को होता है। अत: वास्तवमें कामना करण (मन-बुद्धि)-में नहीं होती, प्रत्युत कर्तामें होती है। करण कर्ताके अधीन होता है। परन्तु कामनाकी पूर्ति और अपूर्तिसे होनेवाले सुख-दु:खरूप द्वन्द्वमें उलझे रहनेके कारण मनुष्यका विवेक काम नहीं करता और वह परवश होकर कामनाको मनमें होनेवाली मान लेता है।
अब यह विचार करें कि कर्ता कौन है? अगर मन कर्ता होता तो वह बुद्धिके अधीन होकर कार्य नहीं करता। परन्तु यह सबका अनुभव है कि बुद्धि जिस कामको न करनेका निश्चय करती है, मन उसको करनेकी कामना छोड़ देता है और बुद्धि जिसको करनेका निश्चय करती है, मन उसको करनेकी कामना करने लगता है। परन्तु बुद्धि भी स्वतन्त्र कर्ता नहीं है; क्योंकि बुद्धि भी एक करण (अन्त:करण) है। जब मनुष्य किसी कामनाकी पूर्तिका सुख लेता है, तभी बुद्धि उस कामको करनेका निर्णय लेती है। परन्तु सुखभोगका परिणाम दु:ख होता है—ऐसा समझनेवाला मनुष्य कामना-पूर्तिके सुखका त्याग कर देता है तो बुद्धि सुखभोगमें प्रवृत्तिका निर्णय नहीं लेती, प्रत्युत उसका त्याग कर देती है। करण कर्ताके अधीन होता है और क्रियाकी सिद्धिमें अत्यन्त उपकारक होता है—‘साधकतमं करणम्’ (पाणि० अ०१।४।४२ परन्तु कर्ता स्वतन्त्र होता है—‘स्वतन्त्र: कर्त्ता’ (पाणि० अ० १। ४। ५४)। स्वरूप भी कर्ता नहीं है; क्योंकि अगर स्वरूपमें कर्तापन होता तो वह कभी मिटता नहीं। इसलिये गीतामें भगवान्ने स्वरूपमें कर्तापनका निषेध किया है—‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’ (गीता १३। ३१)। वास्तवमें जो भोक्ता (सुखी-दु:खी) होता है, वही कर्ता होता है।
अब यह विचार करें कि भोक्ता कौन है? भोक्ता न तो सत् हो सकता है, न असत् हो सकता है; क्योंकि सत् में भोक्तापनका अभाव है और असत् में भोक्तापन सम्भव ही नहीं है। जब साधक विवेकपूर्वक शरीरसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद कर लेता है, जो कि वास्तवमें है, तब न कर्ता रहता है, न भोक्ता रहता है, प्रत्युत एक चिन्मय सत्ता रहती है। इससे सिद्ध होता है कि वास्तवमें कोई कर्ता-भोक्ता नहीं है, केवल माना हुआ है। यहाँ एक बात ध्यान देनेकी है कि ज्ञान होनेपर जब साधकका ‘शरीर’से सम्बन्ध नहीं रहता, तब उसका ‘शरीरी’से भी सम्बन्ध नहीं रहता। कारण कि शरीरके सम्बन्धसे ही चिन्मय सत्ता ‘शरीरी’ कहलाती है। शरीरका सम्बन्ध छूटनेपर चिन्मय सत्ता तो रहती है, पर उसकी ‘शरीरी’ संज्ञा नहीं रहती। चिन्मय सत्तामें सम्पूर्ण शरीरी एक हो जाते हैं। उस चिन्मय सत्ताको ही ‘ब्रह्म’ कहते हैं और उसमें स्वत:सिद्ध स्थितिको ही मुक्ति कहते हैं। मुक्तिमें जीवका ब्रह्मसे साधर्म्य हो जाता है अर्थात् जैसे ब्रह्म सच्चिदानन्दस्वरूप है, ऐसे ही जीव भी सच्चिदानन्दस्वरूप हो जाता है—‘इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागता:’ (गीता १४। २)। साधर्म्य होनेपर जीव जन्म-मरणसे मुक्त हो जाता है—‘सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च’ और वह शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, अजर, अमर तथा स्वाधीन हो जाता है। इसको योगकी प्राप्ति भी कहते हैं—‘तदा योगमवाप्स्यसि’ (गीता २। ५३)।
जहाँ योग है, वहाँ भोग नहीं होता और जहाँ भोग है, वहाँ योग नहीं होता—यह नियम है। परन्तु एक अवस्था ऐसी भी होती है, जिसमें साधकको योगका, ज्ञानका अथवा प्रेमका अभिमान हो जाता है और वह मान लेता है कि मैं योगी हूँ, मैं ज्ञानी हूँ अथवा मैं प्रेमी हूँ। कारण कि अनादिकालसे जीवमें यह आदत पड़ी हुई है कि वह जिसके साथ सम्बन्ध करता है, उसका अभिमान कर लेता है; जैसे—धन मिलनेसे ‘मैं धनी हूँ’ आदि। मैं योगी हूँ—यह वास्तवमें योगका भोग है; क्योंकि इसमें योगका संग है, योगके साथ अहम् मिला हुआ है। मैं ज्ञानी हूँ—यह वास्तवमें ज्ञानका भोग है; क्योंकि इसमें ज्ञानका संग है, ज्ञानके साथ अहम् मिला हुआ है। मैं प्रेमी हूँ—यह वास्तवमें प्रेमका भोग है; क्योंकि इसमें प्रेमका संग है, प्रेमके साथ अहम् मिला हुआ है। भोग न रहनेपर योगी, ज्ञानी और प्रेमी नहीं रहता अर्थात् व्यक्तित्व सर्वथा मिट जाता है। कारण कि योग, ज्ञान या प्रेम मिलनेसे मनुष्य उनके साथ एक हो जाता है अर्थात् वह योगस्वरूप, ज्ञानस्वरूप या प्रेमस्वरूप हो जाता है, इसलिये उनका अभिमान नहीं होता। जबतक व्यक्तित्व रहता है, तबतक पतनकी सम्भावना रहती है। इसलिये जो योगका अभिमानी है, वह कभी भोगमें भी फँस सकता है; जो ज्ञानका अभिमानी है, वह कभी अज्ञानमें भी फँस सकता है; जो मुक्तिका अभिमानी है, वह कभी बन्धनमें भी फँस सकता है*; जो प्रेमका अभिमानी है, वह कभी रागमें भी फँस सकता है।
* येऽन्येऽरविन्दाक्ष विमुक्तमानिन-
स्त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धय:।
आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं तत:
पतन्त्यधोऽनादृतयुष्मदङ्घ्रय:॥
(श्रीमद्भा० १०।२।३२)
‘हे कमलनयन! जो लोग आपके चरणोंकी शरण नहीं लेते और आपकी भक्तिसे रहित होनेके कारण जिनकी बुद्धि भी शुद्ध नहीं है, वे अपनेको मुक्त तो मानते हैं, पर वास्तवमें वे बद्ध ही हैं। वे यदि कष्टपूर्वक साधन करके ऊँचे-से-ऊँचे पदपर भी पहुँच जायँ, तो भी वहाँसे नीचे गिर जाते हैं।’
जब योग, ज्ञान और प्रेमका अभिमान (भोग) नहीं रहता, तब साधक मुक्त हो जाता है। मुक्त होनेपर भी साधकने जिस मत (प्रणाली)को मुख्यता दी है, उसका एक सूक्ष्म संस्कार रह जाता है, जिसको अभिमानशून्य अहम् कहते हैं। जैसे भुने हुए चने खेतीके काम तो नहीं आते, पर खानेके काम आते हैं, ऐसे ही वह अभिमानशून्य अहम् जन्म-मरण देनेवाला तो नहीं होता, पर (अपने मतका संस्कार रहनेसे) अन्य दार्शनिकोंसे मतभेद करनेवाला होता है। तात्पर्य है कि उस सूक्ष्म अहम्के कारण मुक्त पुरुषको अपने मतमें सन्तोष हो जाता है। जबतक अपने मतमें सन्तोष है, अपनी मान्यताका आदर है, तबतक दूसरे दार्शनिकोंके साथ एकता नहीं होती। साधन तो अलग-अलग होते हैं, पर साधन-तत्त्व एक होता है अर्थात् कर्मयोग, ज्ञानयोग आदि सभी साधन मिलकर साधन-तत्त्व होता है। मुक्त पुरुषका मत साधन-तत्त्व होता है। परन्तु वह साधन-तत्त्वको ही साध्य मानकर उसमें सन्तोष कर लेता है।
जीव ईश्वरका अंश है, इसलिये वह जिस मतको पकड़ लेता है, वही उसको सत्य दीखने लग जाता है। अत: साधकको चाहिये कि वह अपने मतका अनुसरण तो करे, पर उसको पकड़े नहीं अर्थात् उसका आग्रह न रखे। न ज्ञानका आग्रह रखे, न प्रेमका। वह अपने मतको श्रेष्ठ और दूसरे मतको निकृष्ट न समझे, प्रत्युत सबका समानरूपसे आदर करे। गीताके अनुसार जैसे ‘मोहकलिल’का त्याग करना आवश्यक है, ऐसे ही ‘श्रुतिविप्रतिपत्ति’का भी त्याग करना आवश्यक है (गीता—दूसरे अध्यायका बावनवाँ-तिरपनवाँ श्लोक); क्योंकि ये दोनों ही साधकको अटकानेवाले हैं। इसलिये साधकको जबतक अपनेमें दार्शनिक मतभेद दीखे, सम्पूर्ण मतोंमें समान आदरभाव न दीखे, तबतक उसको सन्तोष नहीं करना चाहिये। अपनेमें मतभेद दीखनेपर वह साधन-तत्त्वतक तो पहुँच सकता है, पर साध्यतक नहीं पहुँच सकता। साध्यतक पहुँचनेपर अपने मतका आग्रह नहीं रहता और सभी मत समान दीखते हैं—
पहुँचे पहुँचे एक मत, अनपहुँचे मत और।
‘संतदास’ घड़ी अरठकी, ढुरे एक ही ठौर॥
नारायण अरु नगरके, ‘रज्जब’ राह अनेक।
कोई आवौ कहीं दिसि, आगे अस्थल एक॥
मतभेदको लेकर आचार्योंमें लड़ाई नहीं होती, प्रत्युत उनके अनुयायियोंमें लड़ाई होती है। कारण कि अनुयायियोंको मुक्तावस्थाका अनुभव तो हुआ नहीं, पर मतका आग्रह (पक्षपात) रह गया, जबकि आचार्योंको अनुभव हो चुका है! आचार्योंके मतभेदसे अनुयायियोंमें अपने मतके प्रति राग और दूसरे मतके प्रति द्वेष पैदा हो जाता है। राग-द्वेष होनेसे सत्यकी खोजमें बड़ी भारी बाधा लग जाती है। परन्तु राग-द्वेष न होनेपर साधक सत्यकी खोज करता है कि जब वास्तविक तत्त्व एक ही है तो फिर मतभेद क्यों है? इसलिये वह मुक्तिमें भी सन्तोष नहीं करता। सत्यकी खोज करते-करते वह खुद खो जाता है और ‘वासुदेव: सर्वम्’ शेष रह जाता है!
जिस साधकमें पहले भक्तिके संस्कार रहे हैं, उसको मुक्तिमें सन्तोष नहीं होता। इसलिये जब उसको मुक्तिका रस भी फीका लगने लगता है, तब उसको प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है। भक्ति साधन भी है और साध्य भी—‘भक्त्या संजातया भक्त्या’ (श्रीमद्भा० ११। ३। ३१)। साधन-भक्तिमें साधन और साध्य दोनों भगवान् होनेसे अपने मतका आग्रह सुगमतासे छूट जाता है और साध्य-भक्ति अर्थात् प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमकी प्राप्ति स्वत: हो जाती है। प्रेमकी प्राप्ति होनेपर ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’—ऐसे भगवान्के समग्र स्वरूपका साक्षात् अनुभव हो जाता है और साध्यमें अगाध प्रियता जाग्रत् हो जाती है। प्रियता जाग्रत् होनेपर किसी एक मतमें आग्रह नहीं रहता, सभी मतभेद गलकर एक हो जाते हैं। मुक्तिमें तो अखण्डरस, एकरस मिलता है, पर भक्तिमें अनन्तरस, प्रतिक्षण वर्धमान रस मिलता है। प्रेम सम्पूर्ण साधनोंका अन्तिम फल अर्थात् साध्य है। प्रत्येक साधकको अपने-अपने साधनके द्वारा इसी साध्यकी प्राप्ति करनी है। इसलिये मनुष्ययोनि वास्तवमें साधनयोनि अथवा प्रेमयोनि है; क्योंकि मनुष्यजन्म परमात्मप्राप्तिके लिये ही हुआ है और परमात्मप्रेमकी प्राप्तिमें ही मनुष्यजन्मकी सफलता है।
मनुष्य और साधक पर्याय हैं। जो साधक नहीं है, वह वास्तवमें मनुष्य भी नहीं है। जो साधक है, वही वास्तवमें मनुष्य है। मनुष्यका खास कर्तव्य है—सत्यको स्वीकार करना। परमात्मा हैं—यह सत्य है और संसार नहीं है—यह भी सत्य है। सत्यको सत्य मानना भी सत्यको स्वीकार करना है और असत्यको असत्य मानना भी सत्यको स्वीकार करना है। जिसके साथ हमारा सम्बन्ध है, उसके साथ सम्बन्ध मानना भी सत्यको स्वीकार करना है और जिसके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है, उसके साथ सम्बन्ध न मानना भी सत्यको स्वीकार करना है। मूलमें एक ही सत्य है। वह यह है कि एक समग्र भगवान्के सिवाय और कुछ है ही नहीं—‘वासुदेव: सर्वम्।’