अपनी शक्ति-सामर्थ्यसे सदा सेवा करनी चाहिये
सप्रेम हरिस्मरण। आपका कृपापत्र मिला था। उत्तरमें विलम्ब हो गया, इसके लिये क्षमाप्रार्थी हूँ। आपके प्रश्नके उत्तरमें निवेदन है कि हमलोगोंको जो कुछ भी मिला है, सब वस्तुत: भगवान्की पूजाके लिये ही मिला है—इन्द्रिय-तृप्तिकी इच्छासे भोग करनेके लिये नहीं। जो मनुष्य इस बातको समझकर प्राप्त वस्तुओंको यथायोग्य यथास्थान भगवान्की सेवामें लगाता है और अवशिष्टको प्रसादरूपमें ग्रहण करता है, वह तो मानव-जीवनका कर्तव्य पालन करता है। जो ऐसा न करके अपने भोग-सुखमें ही सब वस्तुओंका उपयोग करता है, वह पापी है और पापका ही सेवन करता है। श्रीभगवान्ने गीतामें कहा है—
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥
(३।१३)
‘यज्ञ (भगवान्की सेवा)-से बचे हुए अन्नको खानेवाले—विश्वरूप भगवान्की सेवामें लगाकर बचे हुए पदार्थोंको अपने काममें लेनेवाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापोंसे छूट जाते हैं; पर जो पापी मनुष्य केवल अपने शरीर-पोषणके लिये, अपने भोग-सुखके लिये पकाते (कमाते) हैं, वे तो पाप ही खाते हैं।’
जिसके पास अन्न, धन, जन, विद्या, बुद्धि, शक्ति-सामर्थ्य जो कुछ भी है, सबको भगवान्की सेवामें लगाना चाहिये। जहाँ अन्नका अभाव है, वहाँ भगवान् अन्नके द्वारा पूजा कराना चाहते हैं; जहाँ जलका अभाव है, वहाँ जल; जहाँ रोग फैला है, वहाँ चिकित्सा, औषध और सेवा; जहाँ वस्त्र नहीं है, वहाँ वस्त्र; जहाँ आश्रय नहीं है, वहाँ आश्रय; जहाँ भय है, वहाँ अभयद शरण; जहाँ अज्ञान है, वहाँ विद्या; जहाँ शक्तिका अभाव है, वहाँ शक्ति; जहाँ मार्गभ्रम है, वहाँ मार्ग-दर्शन; जहाँ दरिद्रता है, वहाँ धन; जहाँ असहाय अवस्था है, वहाँ सहायता और जहाँ प्राणभय है, वहाँ प्राणरक्षा—इस प्रकार भिन्न-भिन्न स्थितियोंमें भगवान् ही भिन्न-भिन्न रूपोंमें प्रकट होकर अपनी सेवा चाहते हैं और चाहते हैं उनसे, जिनके पास सेवाके योग्य पदार्थ या साधन हैं।
समुद्र-मन्थनके समय जब हलाहल विष निकला और उसकी तीव्र ज्वालासे सारा विश्व जलने लगा, तब देवताओंने सबकी रक्षाके लिये भगवान् श्रीशंकरसे प्रार्थना की। भगवान् शंकर ऐसे हैं जो तीव्र-से-तीव्र विषको पीकर भी जगत्की रक्षा करनेमें समर्थ हैं। उस समय लोगोंकी दीनताको देखकर भगवान् शंकरजीने पार्वतीजीसे कहा—
आसां प्राणपरीप्सूनां विधेयमभयं हि मे।
एतावान् हि प्रभोरर्थो यद् दीनपरिपालनम्॥
प्राणै: स्वै: प्राणिन: पान्ति साधव: क्षणभङ्गुरै:।
बद्धवैरेषु भूतेषु मोहितेष्वात्ममायया॥
पुंस: कृपयतो भद्रे सर्वात्मा प्रीयते हरि:।
प्रीते हरौ भगवति प्रीयेऽहं सचराचर:।
तस्मादिदं गरं भुञ्जे प्रजानां स्वस्तिरस्तु मे॥
(श्रीमद्भा० ८।७।३८—४०)
‘हे कल्याणि! ये बेचारे किसी प्रकार अपने प्राणोंकी रक्षा करना चाहते हैं। इस समय मेरे लिये यही कर्तव्य है कि मैं विषपान करके इन्हें निर्भय कर दूँ। जिनके पास शक्ति-सामर्थ्य है, उनके जीवनकी इसीमें सार्थकता है कि वे दीन-दु:खी प्राणियोंकी रक्षा करें। साधुपुरुष अपने क्षणभंगुर प्राणोंकी बलि देकर भी दूसरे प्राणियोंके प्राणोंकी रक्षा करते हैं। अपने ही अज्ञानसे मोहित होकर लोग परस्परमें वैरकी गाँठ बाँधे बैठे हैं। ऐसे प्राणियोंपर जो कृपा करता है, सर्वात्मा भगवान् श्रीहरि उसपर प्रसन्न होते हैं और जब भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं, तब चराचर जगत्के साथ मैं (शंकर) भी प्रसन्न हो जाता हूँ। अतएव इस भयानक विषको भक्षण करता हूँ, जिससे मेरी समस्त प्रजाका कल्याण हो।’
भगवान् शिवजीने ऐसा कहा ही नहीं, वे उस भयानक विषको पी गये। पर इससे उनकी कुछ हानि तो हुई ही नहीं, वरं वह विष उनका एक भूषण बन गया। विषकी ज्वालासे उनका कण्ठ नीला हो गया। वर्णविरहित गौर शरीरमें नीलकण्ठकी विलक्षण शोभा हो गयी। वस्तुत: यह सत्य भी है, जो दूसरोंके हितके लिये जहरका घूँट पी जाता है, उसका परिणाममें अहित कभी नहीं होता। असलमें पर-हित ही सच्चा अमृत है और पराया अहित ही भीषण विष है।
अतएव हमारे पास जो कुछ भी शक्ति-सामर्थ्य है, उसके द्वारा जहाँ जैसी आवश्यकता है—दीन-दु:खित अभावग्रस्त प्राणियोंके रूपमें प्रकट भगवान्की उनका हक समझकर सेवा करनी चाहिये। यह शक्ति-सामर्थ्य भी भगवान्की ही है और उन्हींसे हमें मिली है; अतएव यह अभिमान भी नहीं करना चाहिये कि हम किसीको कुछ दे रहे हैं। भगवान्की वस्तु भगवान्के काममें लग रही है और भगवान्ने इसमें हमें निमित्त बननेका गौरव दिया है, यह उनकी परम कृपा है; यों समझना चाहिये।