सेवा और संयमसे सफलता
सादर हरिस्मरण। आपका कृपापत्र यथासमय मिल गया था। उत्तरमें बहुत देरी हो गयी, कृपया क्षमा करें। आपने अपनी जो पारिवारिक परिस्थिति लिखी है, वह अवश्य बहुत शोचनीय है। जिस अबलाको ससुराल और मैके दोनों ही जगह कलहका सामना करना पड़े, उसके आधार तो दीनदु:खहारी श्रीहरि ही हो सकते हैं। आपको उन्हींका आश्रय लेना चाहिये। अपने पूर्व प्रारब्धके दोषसे ही जीवको ऐसी परिस्थितियोंका सामना करना पड़ता है। प्रारब्धका क्षय भोगसे ही होता है। अत: श्रीभगवान्का चिन्तन करते हुए इन सबको सहन करना चाहिये। व्यवहारमें तो सेवा और त्यागके सिवा इसका कोई और उपाय नहीं है; किंतु त्याग वही कर सकता है, जिसे श्रीभगवान्के सिवा धन, जन, बल आदि किसी भी बाह्य वस्तुकी सहायता अपेक्षित न हो। जबतक संसारके किसी भी सहारेकी आशा है, तबतक त्यागका मार्ग ग्रहण नहीं किया जा सकता। अत: सेवा और संयमका ही आश्रय लेना चाहिये। अत: सास, पति एवं माताजीके व्यवहारपर दृष्टि न देकर आप अपनी ओरसे उन्हें उत्तेजित होनेका कोई अवसर न दें, अपने सौजन्यसे उनमें आत्मीयताकी भावना जाग्रत् कर दें तथा उनके रुष्ट होनेपर संयमसे काम लें तो आपकी यह आपत्ति बहुत कुछ टल सकती है। सच्चा प्रेम सब प्रकारकी कुटिलताओंकी अचूक ओषधि है। श्रीभगवान् घट-घट व्यापी हैं। जो लोग आपको तरह-तरहसे कष्ट पहुँचाते हैं, उनके अन्त:करणोंमें भी प्रेरकरूपसे श्रीभगवान् ही विराजमान हैं। इन कुटिलताओंके द्वारा वे आपके धैर्य और संयमकी परीक्षा कर रहे हैं। यदि इनमें भी आप उनके मंगलमय विधानकी झाँकी करके उनके प्रति आन्तरिक प्रेम और श्रद्धामें कमी न आने दें और उत्साहपूर्वक उनकी यथोचित सेवा-शुश्रूषामें तत्पर रह सकें तो एक दिन वे अवश्य आपके प्रति अपने करुणापूर्ण भण्डारका द्वार खोल देंगे और आप उनकी अपार अनुकम्पासे अनुगृहीत होकर अपनेको कृतकृत्य हुई देखेंगी।
और अधिक क्या लिखा जाय। इस विषयमें तो भगवत्कृपासे प्राप्त हुई अवसरोचित बुद्धि ही आपकी विशेष सहायता कर सकती है। अत: आप श्रीभगवान्का ही आश्रय लें।
आप विपत्तिनाशके लिये जहाँतक याद रहे, दिन-रात मन-ही-मन ‘हरि: शरणम्’ इस मन्त्रका जप करती रहें और श्रीभगवान्से यह प्रार्थना करें कि जिससे सबकी बुद्धि निर्मल हो और सब परस्पर एक-दूसरेको सुख पहुँचावें।