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आसक्तिनाशके उपाय

श्रीभगवान‍्में आपका प्रेम तथा श्रद्धा बहुत शीघ्र बढ़ जायँ, आपके सारे दोष तुरन्त मिट जायँ तथा निरन्तर श्रीभगवान‍्का भजन-चिन्तन होने लगे—आपकी यह इच्छा तो बहुत ही सुन्दर, सराहनीय और अनुकरणीय है; परन्तु मेरा पत्र पढ़ते ही ऐसा हो जाय, मैं ऐसी बात लिखूँ—आपका यह भाव सुन्दर होनेपर भी मुझे अपनेमें ऐसी बात नहीं दिखायी देती कि मेरे लिखनेमात्रसे ऐसा हो जाय।

कामिनी, कांचन और भोगोंकी आसक्ति इनमें वैराग्य होनेसे या भगवान‍्के ऐश्वर्य, माधुर्य और सुहृद्पनमें विश्वास होनेसे मिट सकती है। भोगोंमें सुख नहीं है, सुखका भ्रम है। भगवान‍्को छोड़कर भोग तो दु:खमय ही हैं। जैसे अफीम और संखिया जहर है, यह हमारा दृढ़ विश्वास है; इसीलिये लालच देनेपर भी, बहुत मीठी और सुन्दर मिठाईमें मिलाकर देनेपर भी, कोई जान-बूझकर इन्हें नहीं खाते। जानते हैं कि इन्हें खानेसे हम मर जायँगे। इसी प्रकार भोगोंका विषमय परिणाम निश्चय हो जानेपर उनमें कोई रमेगा नहीं। भगवान‍्ने तो गीतामें स्पष्ट ही कहा है कि भोगोंसे मिलनेवाला सुख आरम्भमें अमृत-सा मालूम होता है, परन्तु परिणाममें जहर-सा है। यह बात हम पढ़ते-सुनते हैं, परन्तु विश्वास नहीं करते। और यह भी विश्वास नहीं करते कि यदि हमें धन, भोग आदिमें ही सुख मिलता है तो ये भी सबसे बढ़कर श्रीभगवान‍्में ही हैं। जगत‍्में जितने भोग-सुख-ऐश्वर्य हैं सभी अनित्य हैं, विनाशी हैं और जो हैं सो भी अत्यन्त ही अल्प हैं। जगत‍्में सारे भोग-सुख-ऐश्वर्य एक स्थानमें एकत्र कर लिये जायँ तो वे सब मिलकर भी भगवान‍्के भोग-ऐश्वर्यके करोड़वें हिस्सेकी छायाकी भी तुलना नहीं कर सकते। ‘भगवान्’ शब्दका अर्थ ही है—जिसमें सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सम्पूर्ण धर्म, सम्पूर्ण यश, सम्पूर्ण श्री, सम्पूर्ण ज्ञान और सम्पूर्ण वैराग्य—ये छ: सदा एकरस, अनन्त एवं असीमरूपसे निवास करते हैं।

संसारमें बस, छ: ही प्रधान वस्तुएँ हैं, जिनकी संसारी और साधक-लोग कामना करते हैं—ऐश्वर्य, धर्म, यश (कीर्ति, मान, बड़ाई, प्रशंसा आदि), श्री (धन, दौलत, तेज, स्वास्थ्य, सौन्दर्य, स्त्री-पुत्रादिसे सम्पन्नता आदि), ज्ञान (लौकिक और पारमार्थिक ज्ञान) और वैराग्य; इनमेंसे कोई किसीको चाहता है, कोई किसीको। परन्तु खेद तो यह है कि चाहनेवाला चाहता है उससे, जिसके पास इनमेंसे कोई भी चीज पूरी नहीं है। चाहता है वैसी चीज जो नाश होनेवाली है; चाहता है उससे जो दे या न दे, अथवा जिसमें देनेकी शक्ति ही नहीं हो, और चाहता है ऐसी अवस्थामें कि जिसमें यदि कुछ मिल जाय तो रखनेको ठौर नहीं। सबको मिलती भी नहीं, मिलती तो अधूरी और दोषयुक्त ही मिलती है, एक जगह तो किसीको अधूरी भी प्राय: नहीं मिलती। ये छहों वस्तुएँ पूरी-की-पूरी—इतनी कि जिसकी सीमा ही न हो—एक साथ, एक समय, चाहे जितनी और चाहे जिसको एक श्रीभगवान‍्में मिल सकती हैं। और भगवान‍्में ये सब वस्तुएँ उस परमोच्च स्तरकी, सबसे बढ़िया—ऐसी क्वालिटीकी हैं कि जिसकी तुलना ही नहीं हो सकती। भगवान् हैं—हमारे सुहृद्! वे हमसे अकारण ही प्रेम करते हैं। वे देनेको तैयार हैं—अपने भण्डारकी चाभी। देर इतनी ही है कि हम विषयोंके तुच्छ मोहको छोड़कर उन्हींपर निर्भर हो जायँ और अपनी कोई भी रुचि या इच्छा न रखकर उन्हींकी मर्जीपर अपनेको छोड़ दें। बस, भगवच्चरणोंमें अपनेको सर्वभावसे डाल दें। वे मारें या बचावें, उनकी इच्छा। और करें क्या— ‘तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलता।’ सब कुछ उन्हें सौंपकर निश्चिन्त होकर उनका स्मरण करें। जगत‍्में कुछ भी हो जाय, हमारा कुछ भी हो जाय, हमें कोई चिन्ता न हो, कुछ भी उद्वेग न हो, जरा भी हम न घबरायें। उद्वेग—व्याकुलता हो तब, जब एक-आधे पलके लिये भी हम उन्हें भूल जायँ। उनका भूलना हमें सहन न हो! उस समय उससे भी अधिक तड़प हमारे मनमें हो, जो जलसे निकालनेपर मछलीको होती है। सुखके लिये हम चाह ही न करें। सुखकी चाह, सुखके लिये चिन्ता और व्याकुलता तो दु:खको बुलानेका साधन है। बस, चाह हो ही नहीं; हो तो एक यही कि उनका चिन्तन एक-आधे क्षणके लिये भी न छूटे। प्रार्थना हो तो यही कि ‘भगवन्! तुम्हारे स्मरण बिना यह जीवन न रहे। एक क्षण भी तुम्हारा विस्मरण इस जीवनको न सुहावे। तुम कहीं रखो इसे, यह अपने कर्मवश कहीं जाय बस, तुम्हारी स्मृति बनी रहे और तुम अपना कल्याणमय हाथ स्मृतिरूपमें सदा इसपर रखे रहो।

चहौं न सुगति, सुमति, संपति कछु,
रिधि-सिधि बिपुल बड़ाई।
हेतु-रहित अनुराग राम-पद
बढ़ै अनुदिन अधिकाई॥

बस, तुम्हारे चरणोंमें प्रेम बढ़ता रहे, जिससे स्मरण आनन्दमय हो जाय। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा, भोगवासना और कामिनी-कांचनका मोह तथा पाप-ताप सब बह जायँगे—भगवत्कृपाकी एक वर्षासे। अमोघ शक्ति है भगवत्कृपामें। उस भगवत्कृपापर विश्वास कीजिये। फिर शान्ति, समता, सर्वत्र भगवद‍्बुद्धि, सब कुछ भगवान‍्से ही होता है—यह विश्वास आदि सब अपने-आप ही आ जायँगे आपमें—जैसे राजाके पीछे उसकी सारी सेना आ जाती है। ये सब तो भगवत्कृपाके साथमें हैं। जहाँ भगवत्कृपाकी दृष्टि हुई कि सब काम बना। कृपा तो है ही, विश्वास कीजिये।

अन्तमें—और कुछ न हो, तो तीन बातोंपर ध्यान रखिये— (१) पापोंका त्याग, (२) दैवी सम्पत्तिकी कमाई और (३) श्रीभगवन्नामका नियमित जप।

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