भोगत्यागसे ही इन्द्रियसंयम सम्भव है
प्रिय श्री....सप्रेम हरिस्मरण! आपका पत्र मिले कई दिन हो गये। विलम्बके लिये क्षमा करें। आपने लिखा कि ‘इन्द्रियोंको रोकनेकी अपेक्षा उन्हें यथेष्ट भोग भोगने देना कहीं अच्छा मालूम होता है। जब भोगोंको खूब भोगकर ये तृप्त हो जायँगी, तब आप ही भोगोंसे हटकर भगवान्में लग जायँगी।’ मेरी समझसे आपकी समझ गलत है। भोगोंके भोगते रहनेसे शरीरकी शक्ति अवश्य क्षीण हो जायगी, परन्तु भोग-लालसा कभी नहीं मिटेगी। एक तो, इन्द्रियोंको भगवान्ने रचा ही है बहिर्मुखी बनाकर—
पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयम्भू-
स्तस्मात् पराङ्पश्यति नान्तरात्मन्।
कश्चिद्धीर: प्रत्यगात्मानमैक्ष-
दावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्॥
(कठ० २।१।१)
‘स्वाधीन परमेश्वरने इन्द्रियोंको बहिर्मुखी—बाह्य पदार्थोंका ग्रहण करनेवाली—निर्माण किया है। इसलिये वे शब्दादि बाह्य विषयोंको ही देखती हैं, अन्तरात्माको—अन्तरमें स्थित भगवान् को—नहीं देखतीं। कोई-कोई विवेकी पुरुष अमृतत्व—मोक्षकी इच्छासे चक्षु आदि इन्द्रियोंको उनके विषयोंसे लौटाकर अन्तरात्माके दर्शन करते हैं।’
फिर इन्हें यदि भोगोंमें ही लगाये रखा जाय तो इससे भोगतृष्णाका कभी नाश नहीं होगा। भोगाभ्याससे स्वाभाविक ही भोगानुराग एवं भोगविषयक पटुताकी ही वृद्धि होगी। जैसे आगमें ईंधन और घी डालनेसे आग बढ़ती है, बुझती नहीं—इसी प्रकार भोगोंकी आहुतिसे कामाग्नि भी बढ़ती ही रहती है—
‘बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ,
बिषय-भोग बहु घी ते॥’
महाराज ययातिने पुत्रसे जवानी लेकर विषयोंका उपभोग किया, परन्तु इससे भोग-कामना मिटी नहीं, बढ़ती ही गयी। तब हारकर यही कहा—
न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते॥
‘मनुष्यकी कामनाका मनचाहे भोगोंके भोगसे कभी शमन नहीं होता, परन्तु अग्निमें घृतकी आहुति देनेपर जैसे अग्नि न बुझकर उलटी अधिक बढ़ती है, वैसे ही विषयभोगोंके सेवनसे कामना भी बढ़ती ही है।
इन्द्रियोंको यथेष्ट भोग भोगने देनेकी बात वस्तुत: हमारी कमजोरीकी ही सूचना देती है। हमारी भोगासक्ति ही हमसे ऐसा कहलवाती है। हमें ऐसा निश्चय है कि इन्द्रियके द्वारा विषयका संस्पर्श होनेपर सुख मिलेगा। यह सुखकी भ्रमपूर्ण लालसा ही हमें इन्द्रियभोगमें प्रवृत्त करती है। भगवान्ने तो कहा है कि यहाँ इसमें कोई सुख है ही नहीं—यह सब तो ‘अनित्य और असुख’ है। असलमें कोई भी विषय पूर्ण और नित्य नहीं है। अपूर्ण और अनित्यसे मनुष्यको कभी स्थायी सुख नहीं मिल सकता, बल्कि अनित्य और अपूर्ण सुख परिणाममें दु:खदायी ही हुआ करता है। भगवान्ने कहा है—
ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:॥
(गीता ५। २२)
‘इन्द्रिय और विषयोंके संसर्गसे उत्पन्न होनेवाले जो ये भोग हैं, ये विषयी पुरुषोंको सुखरूप प्रतीत होनेपर भी वस्तुत: हैं दु:खके ही हेतु और हैं ये आदि-अन्तवाले अनित्य। अतएव अर्जुन! बुद्धिमान् पुरुष इनमें प्रीति नहीं करते।’ अतएव यह सिद्ध है कि भोगाभ्यासके द्वारा इन्द्रियोंकी भोगकामनाका नाश असम्भव है। जीवन बहुत थोड़ा है, इसलिये बड़ी सावधानीके साथ इन्द्रियोंको बाह्य भोगोंसे बलपूर्वक, परंतु विवेकके साथ रोकनेका अभ्यास सिद्ध करके उन्हें भगवद्विषयक शुभ साधनोंमें लगाना चाहिये। उन्हें यथेच्छ भोग न भोगने देकर—जिससे वे अन्तर्मुखी हो सकें ऐसे—अन्तरतम भगवान्से सम्बन्ध रखनेवाले कार्योंमें सर्वदा संलग्न कर देना चाहिये। भगवत्सम्बन्धी कार्योंसे ही मनुष्यके मनुष्यत्व, महत्त्व और विवेकयुत धर्मपरत्वका प्रकाश होता है। इन्द्रियोंके सामने भोगोंकी क्षणभंगुरता, नश्वरता और दु:खरूपताके चित्र बार-बार लाकर उन्हें भोगोंसे हटाने तथा भगवान्की नित्यता, समता और सुखरूपताके दर्शन कराकर उन्हें भगवान्में लगानेका प्रयत्न करते रहना चाहिये। जितेन्द्रिय वही है जिसकी इन्द्रियाँ बाह्य विषयोंका संस्पर्श पाकर भी उनसे उदासीन रहें—
श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च दृष्ट्वा च भुक्त्वा घ्रात्वा च यो नर:।
न हृष्यति ग्लायति वा स विज्ञेयो जितेन्द्रिय:॥
(मनु० २।९८)
‘जो मनुष्य कानसे सुनकर, स्पर्शेन्द्रियसे छूकर, आँखोंसे देखकर, जीभसे खाकर और नाकसे सूँघकर भी न तो अनुकूलतामें प्रसन्न होता है और न प्रतिकूलतामें उदास होता है—उसे अनुकूलता-प्रतिकूलतासे मतलब ही नहीं रहता, तभी उसे जितेन्द्रिय जानना चाहिये।’ यह तभी होगा जब अनुपम सौन्दर्य-माधुर्य-ऐश्वर्यके समुद्र भगवान्में हमारा मन लगेगा—और भगवान्के ही प्रत्येक विषयका हमारी इन्द्रियाँ सतत उपभोग करेंगी।
कानन दूसरो नाम सुनें नहिं
एकहि रंग रँगो यह डोरो।
धोखेहु दूसरो नाम कढ़े
रसना मुख डारि हलाहल बोरो॥
ठाकुरप्रीतिकी रीति यही
हम सपनेहु टेक तजैं नहिं भोरो।
बावरी वे अँखियाँ जरि जायँ
जो साँवरो छाँड़ि निहारति गोरो॥
अतएव मनके धोखेमें न पड़िये, स्वच्छन्द अनर्गल भोगोंमें इन्द्रियोंको न रमने दीजिये, विलास-सामग्रीसे उन्हें बचाइये; गंदे नाच-गान और सिनेमामें रुचि न पैदा होने दीजिये; सावधान रहिये, जीवनका कोई भी क्षण व्यर्थ तथा अनर्थकारी विषय-सेवनमें कदापि न लगे!