गीता गंगा
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आत्मविसर्जनमें आत्मरक्षा

भैया! हृदयकी सच्ची बात तो यह है कि जो पुरुष किसी बाह्य वस्तुविशेषमें आत्मभावना करके ‘आत्मरक्षा’ के लिये व्याकुल है, वह असलमें अभी पवित्र प्रेम-राज्यमें प्रवेश ही नहीं कर पाया है। भगवत्कृपासे जिसके जीवनमें सच्चे भगवत्प्रेमका आभास भी आ जाता है, उसका जीवन और उसके जीवनकी क्रिया अत्यन्त विलक्षण हो जाती है। जगत‍्के साधारण लोगोंकी दृष्टिमें वह पागल होता है या होता है कर्तव्यसे पतित। वे उसकी चेष्टाओंको देखकर उनका अपने तराजूसे जो माप-तौल करते हैं सो सर्वथा भ्रमपूर्ण होता है। परंतु वे बेचारे क्या करें? उनके पास तौलनेका साधन जो वही अपनी स्थितिका तराजू है, जिसमें वे स्थित हैं। प्रेमी पुरुष अपने लिये वस्तुत: कुछ चाहते ही नहीं। उनका आत्मा किसी क्षेत्र या वस्तुविशेषमें सीमाबद्ध नहीं होता। वह मुक्त और सर्वव्यापी होता है। अतएव वे अपने लिये व्यक्तिगत रूपसे न तो आत्मरक्षाकी कल्पना करते हैं और न वे ऐश्वर्य, स्वर्ग या मोक्ष ही चाहते हैं। वे तो निरन्तर खुले हाथों अपने-आपको वितरण करनेमें ही लगे रहते हैं। वे अपने हृदयकी मधुर प्रेमसुधा-सरिताकी प्रत्येक बूँदको अखिल विश्वचराचरके क्षुद्रतम परमाणुतकमें बाँटकर सबको अमृतमय बनानेके लिये व्याकुल रहते हैं और जब प्रेमसुधासे परिपूर्ण उनके मधुर हृदयमें अमृत-रसकी बाढ़ आ जाती है, तब वे उसे किसी तरह रोक नहीं सकते और इसीलिये वह समस्त बन्धनोंको तोड़कर अखिल विश्वके प्राणियोंको आप्यायित करनेके लिये जोरोंसे बह निकलती है। उस समय उसके लिये मेरा-तेरा या अपना-पराया कुछ नहीं रह जाता। वस्तुत: इस ‘आत्मविसर्जन’ में ही सच्ची ‘आत्मरक्षा’ है। पृथक् सुखकी इच्छा न रहकर सबके सुखके लिये जो आत्मविसर्जन होता है—अपने समस्त सुखोंका त्याग होता है, उससे जिस महान् सुखकी प्राप्ति होती है, वह अतुलनीय है। असलमें आत्मविसर्जन ही असीम सुखकी प्राप्तिका एक प्रधान साधन है। यह बात सहज ही सबकी समझमें नहीं आती।

जिस आत्मरक्षामें विश्वात्माके किसी अंगपर सचमुच प्रहार सम्भव हो, वह आत्मरक्षा कैसी? वह तो प्रत्यक्ष ही आत्मापर आघात है—आत्मघात है।

यद्यपि मैं आवश्यकतावश इस विषयमें कभी-कभी दूसरी दृष्टिसे भी लिखता और बोलता हूँ। वह भी धर्मसम्मत होता है एवं उसका भी विशेष प्रयोजन है तथापि जहाँतक मेरी दृष्टि है, मैं यह कह सकता हूँ कि मेरी अधिष्ठानभूमि वही है, वह न बदली है और न उसके बदलनेकी सम्भावना ही है। असलमें भगवान् जब जो कराते हैं, हमें वही करना चाहिये और उस समयके लिये वही ठीक भी होता है। हमें तो उनके हाथका यन्त्र बने रहना है। हाँ, इतनी सावधानी अवश्य रहनी चाहिये कि कहीं भगवान‍्की जगह धोखेसे अहंकार अपनी प्रभुता न जमा ले। भगवान‍्से प्रार्थना है कि वे इस धोखेसे बचावें और वे बचावेंगे ही। अधिक क्या लिखूँ।

तुम्हारा इस समय क्या कर्तव्य है, इसका उत्तर मैं क्या दूँ। हृदयमें द्वेष तो जरा भी नहीं रहना चाहिये। फिर प्रभु जो प्रेरणा करें, वही ठीक है।

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