गीता गंगा
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मनुष्य-जीवनका उद्देश्य

सप्रेम हरिस्मरण!

मनुष्य-जीवनका एकमात्र उद्देश्य है भगवत्प्राप्ति अथवा भगवत्प्रेमकी प्राप्ति। इस उद्देश्यको निरन्तर सामने रखकर ही हमारे सारे कार्य, सारे व्यवहार, सारे विचार, सारे संकल्प-विकल्प और मनबुद्धि तथा शरीरकी सारी चेष्टाएँ होनी चाहिये। सबकी अबाध गति निरन्तर श्रीभगवान‍्की ओर हो। यही साधन है। भगवान् साध्य हैं और यह जीवन उसका साधन है। इसीमें जीवनकी सार्थकता है। अतएव बुद्धि, मन, प्राण और इन्द्रियाँ—सबको सर्वभावसे श्रीभगवान‍्की ओर अनन्यगतिसे लगा देना चाहिये। हम कुछ भी काम करें, कुछ भी विचार करें—‘भगवान् ही हमारे जीवनके एकमात्र लक्ष्य हैं—यह स्मृति सदा जाग्रत् रहनी चाहिये।’ सभी चेष्टाओंका यह एक ही उद्देश्य होना चाहिये। जो कर्म, जो चेष्टा भगवान‍्की ओर न ले जाय, ‘भगवान् ही जीवनके लक्ष्य हैं’ इसको भुला दे, उस कर्म और उस चेष्टासे हमारा बड़ा अनिष्ट होता है।

सो सुखु करमु धरमु जरि जाऊ।
जहँ न राम पद पंकज भाऊ॥

‘जिनसे श्रीभगवान‍्के चरण-कमलोंमें प्रेम न हो, वे सभी सुख और धर्म-कर्म जल जायँ।’ वह शरीर—वह जीवन भी जल जाय, जो श्रीभगवान‍्का नहीं हो गया—

जरि जाउ सो जीवनु, जानकीनाथ!
जियै जगमें तुम्हरो बिनु ह्वै॥

असलमें जीवन होना चाहिये भगवत्प्रेममय; परंतु भगवत्प्रेम सहज नहीं है। हमारा मन तो दिन-रात भोग्यपदार्थोंकी चिन्तामें लगा है। इसीसे हम जीवनके असली लक्ष्य—भगवत्प्राप्तिको भुलाकर दिन-रात भोगोंका ही चिन्तन और भोगोंका ही अन्वेषण करते हैं तथा भोगोंका ही संरक्षण-संवर्धन करनेके व्यर्थ प्रयासमें लगे रहते हैं। भगवान् हमारे जीवनके लक्ष्य हैं, यह बात कभी याद ही नहीं आती और यदि कभी याद आती है तो ठहरती नहीं। इसीसे दिन-रात चिन्ता-चिताकी भयानक लपटोंमें जलते रहते हैं—क्षणभरके लिये भी शान्तिकी शीतल-सुधाधाराका स्पर्श नहीं होता। श्रीतुलसीदासजी महाराजने बहुत ठीक कहा है—

ताहि कि संपति सगुन सुभ
सपनेहुँ मन बिश्राम।
भूत द्रोह रत मोहबस
राम बिमुख रति काम॥

जो (भोगकामनाओंके लिये) जीवोंके द्रोहमें लगा है, मोहके फंदेमें पड़ा है, रामविमुख है और भोगासक्त है, उसको क्या कभी स्वप्नमें भी सम्पत्ति, शुभ शकुन और चित्तकी शान्ति मिल सकती है? असलमें भगवत्प्राप्तिकी इच्छा एवं भगवान‍्की स्मृति भी बिना भगवत्कृपाके नहीं होती।

तुम्हरिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनंदन।
जानहिं भगत भगत उर चंदन॥

भगवान‍्की ओर लग जाना सर्वथा पुरुषार्थके अधीन ही नहीं है। भरसक पुरुषार्थ तो करना ही चाहिये, परंतु प्रधान अवलम्बन लेना चाहिये भगवत्कृपाका। भगवत्कृपा ही भगवत्प्राप्तिकी इच्छा उत्पन्न होनेका, निरन्तर भगवान‍्की स्मृति होनेका तथा भगवत्प्राप्ति और भगवत्प्रेमकी प्राप्तिका भी प्रधान और एकमात्र उपाय है।

यद्यपि स्वाभाविक कृपामय भगवान‍्की दया सभी जीवोंपर—चाहे कोई कितना ही पापी क्यों न हो—सदा ही बरसती रहती है। उनका कोई द्वेष्य है ही नहीं; बल्कि वे सभीके सहज सुहृद् हैं; तथापि जबतक मनुष्य उनकी कृपाका अनुभव नहीं कर पाता, तबतक उससे वंचित ही रहता है। इसके लिये भगवान‍्से कातर प्रार्थना करनी चाहिये। अत्यन्त दीन और आर्तभावसे उन्हें पुकारना चाहिये। संसारमें एक दीनबन्धुको छोड़कर दीनके लिये और कहीं भी आश्रय नहीं है। जो अत्यन्त अभागा है, सर्वथा शरणहीन, निराश्रय और बिलकुल अनाथ है। एकमात्र अशरण-शरण, अनाथ-नाथ प्रभु ही उसका सुनते हैं। उनकी विशाल भुजाएँ सदा फैली रहती हैं उस दु:ख-दैन्य, रोग-शोक, अभाव-अपमान तथा मोह-अज्ञानसे पीड़ित आर्त प्राणीको अपने पासमें ले लेनेके लिये। उनका विशाल हृदय सदा खुला रहता है सबके द्वारा परित्यक्त, सबके द्वारा उपेक्षित और सबके द्वारा घृणित उस महापातकी आर्त प्राणीको गाढ़भावसे चिपका लेनेके लिये और उनकी गोद सदा ही खाली रहती है पापी-तापी-आर्तको बैठाकर उसे अपनानेके लिये। बस, आर्तभाव होना चाहिये और होना चाहिये विश्वास तथा दृढ़ विश्वाससे युक्त आर्त पुकार। द्रौपदीने जब सब ओरसे निराश हो परम आर्त होकर श्यामसुन्दर श्रीकृष्णको पुकारा, बस, उसी क्षण उनका कृपामय स्वभाव विगलित हो गया। वे अनन्तरूपसे उसकी साड़ी बनकर आ गये। भगवान‍्ने द्रौपदीकी केवल लाज ही नहीं बचायी। द्रौपदीने उनको आर्त होकर कातरभावसे पुकारा था, इसलिये वे उसके कर्जदार हो गये। उन्होंने संजयसे कहा था—

ऋणमेतं प्रवृद्धं मे हृदयान्नापसर्पति।
यं गोविन्देति चुक्रोश कृष्णा मां दूरवासिनम्॥

‘‘संजय! द्रौपदीने बहुत ही व्याकुल होकर ‘हा गोविन्द! मेरी रक्षा करो’ कहकर मुझे पुकारा था। मैं दूर था, इससे आ नहीं सका। द्रौपदीकी उस पुकारने मुझे उसका ऋणी बना रखा है और वह ऋण चक्रवृद्धि व्याजसे बहुत ही बढ़ा जा रहा है। मैं जबतक इस ऋणको चुका न दूँ, तबतक यह बात मेरे हृदयसे निकलती ही नहीं।’’ क्या ही आत्मीयताके सुन्दर भाव हैं। अतएव यदि हम आर्तभावसे ठीक पुकारनेकी तरह उन्हें पुकारेंगे, हमारा रोना दिखावटी नहीं, सच्चा होगा तो वे हमारी आर्त पुकार उसी क्षण सुनेंगे।

‘भगवान‍्की स्मृति नहीं होती—जीवन भगवान‍्की ओर नहीं लगता—जीवनका एकमात्र उद्देश्य भगवत्प्राप्ति या भगवत्प्रेमकी प्राप्ति नहीं बन जाता।’ इस दु:खसे दु:खी होकर जो अत्यन्त दीनभावसे भगवान‍्को पुकारता है, उसपर तो भगवान‍्की कृपा बहुत ही शीघ्र होती है। वे उस समय यह नहीं देखते कि इसके अबतकके आचरण कैसे रहे हैं। वे देखते हैं केवल उस समयका भाव। वह भाव यदि सच्चा हुआ तो तत्काल उसे अपनी कृपाका आश्रय प्रदान करके निष्पाप और साधु-स्वभाव बनाकर अपनी भक्तिका दुर्लभ दान दे देते हैं। इस तरह सबको छोड़कर भगवान‍्को चाहना निष्काम ही है। इससे तो भगवान् रीझते ही हैं। पर कोई सकामभावसे भी उन्हें आर्त होकर पुकारे तो उसको भी वे अवश्य अपना लेते हैं। निष्काम या सकाम किसी भी भावसे भगवत्संस्पर्श होना चाहिये। जीवके लिये भगवत्संस्पर्शसे बढ़कर और कोई सौभाग्य नहीं है। कैसे भी हो, एक बार उसका मन भगवान‍्का स्पर्श तो कर ले। अग्निका स्पर्श होनेपर जलनेमें क्या देर लगती है। भगवत्संस्पर्शरूप अग्निके स्पर्शमात्रसे सारे पाप-ताप तत्काल जल जाते हैं—

सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥

अतएव जहाँतक हो—किसी भी भावसे भगवान‍्को आर्त होकर पुकारिये। इससे भगवान‍्की कृपाके दर्शन प्राप्त होंगे। उस कृपासे सारे विघ्नोंका स्वत: ही नाश हो जायगा और सारी सुविधाएँ अपने-आप प्राप्त हो जायँगी।

गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।
गोपद सिंधु अनल सितलाई॥

साथ ही जहाँतक बन सके, भगवान‍्के पवित्र नामोंका जप-कीर्तन तथा उनके दिव्यातिदिव्य गुणसमूहोंका गायन-चिन्तन करते रहिये। भगवान‍्के पवित्र नाम-गुण-गानसे सारे पाप-प्रतिबन्धक तथा सारे दोष तुरंत जलकर खाक हो जायँगे।

अज्ञानादथवा ज्ञानादुत्तमश्लोकनाम यत्।
सङ्कीर्तितमघं पुंसो दहेदेधो यथानल:॥
(श्रीमद्भा० ६।२।१८)

‘उत्तमश्लोक भगवान‍्का नाम चाहे कोई मनुष्य जानकर ले या अनजानमें ले, उसके सारे पाप वैसे ही जलकर खाक हो जाते हैं, जैसे आगमें ईंधन जल जाता है।’

कुपथ कुतरक कुचालि कलि
कपट दंभ पाषंड।
दहत राम गुन ग्राम जिमि
इंधन अनल प्रचंड॥

‘भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके गुणसमूह कुमार्ग, कुतर्क, कुचाल और कलियुगके कपट, दम्भ तथा पाखण्डको वैसे ही जला देते हैं, जैसे ईंधनको प्रचण्ड अग्नि।’

इन सब बातोंपर विचार करके विश्वासपूर्वक लग जाना चाहिये और जीवनके परम उद्देश्यको सर्वथा और सर्वदा सामने रखकर उसीकी पूर्तिके लिये जीवनके समस्त कर्म करनेकी चेष्टा करनी चाहिये। इसीमें जीवनकी सार्थकता है। विशेष भगवत्कृपा।

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