बदला लेनेकी भावना बहुत बुरी है
प्रिय महोदय! आपका कृपापत्र मिला। ‘रोगको मारो, रोगीको नहीं’, ‘कल्याण’ में प्रकाशित इस सिद्धान्तपर आपने अपने विचार प्रकट किये सो आपने जिस दृष्टिसे अपने विचार लिखे हैं वे ठीक ही हैं। यह सत्य है कि स्वयं भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्णने दुष्टोंको मारा है। शास्त्र और कानूनमें भी दण्ड-विधान है, पर जरा खयाल कीजिये—भगवान्के द्वारा दुष्टोंको दण्ड देनेमें या शास्त्र तथा कानूनके दण्ड-विधानमें दुष्टोंके प्रति बदला लेनेकी भावना है या उन्हें अपराधशून्य विशुद्ध बना देनेकी? बदला लेनेकी भावना बहुत ही बुरी है! इस भावनामें विवेक नहीं रहता और विवेकरहित दण्ड-विधान विशुद्ध नहीं होता। उसमें जिसको दण्ड दिया जाता है, उसके अनिष्टकी कामना भरी रहती है। यह मन रहता है कि इसे जितना कष्ट मिले, उतना ही अच्छा यहाँ भी कष्ट भोगे, नरकोंकी अग्निमें भी जले। कभी सुख पावे ही नहीं। इसीसे उसे कष्ट भोगते देखकर प्रसन्नता होती है। भगवान्की मार तो उस माँकी मारके समान होती है, जो भलेके लिये ही मारती है और मारकर स्वयं ही पुचकारती भी है। शास्त्र और न्यायकी भी यही मंशा है कि अपराधीकी अपराधवृत्ति नष्ट हो जाय, वह विशुद्ध होकर शुद्ध जीवन बितावे, जिसमें उसको और उसके द्वारा समाजको भी सुखकी प्राप्ति हो। इसमें भी वस्तुत: रोग-नाशकी भावना है, रोगीके नाशकी नहीं। हाँ, रोगके अनुसार ही दवाकी व्यवस्था होती है। कहीं मीठी दवासे काम चल जाता है तो कहीं बहुत कड़वी दवा देनी पड़ती है और कोई-कोई विशेषज्ञ तो ‘काया-कल्प’ ही करवा देते हैं। पर ऐसे बहुत थोड़े होते हैं। अल्पज्ञ लोग काया-कल्प कराने लगें तो कायाका ही विनाश कर दें। यह सिद्धान्त है। शेष आपका लिखना ठीक है। ‘कल्याण’ के पिछले वर्षोंमें ऐसे उर्दू लेख छपे हैं जिन्हें पढ़नेसे आपका बहुत कुछ समाधान हो सकता है। कृपा बनाये रखें। विशेष भगवत्कृपा।