निन्दनीय कर्मसे डरना चाहिये, न कि निन्दासे
महोदय! आपका कृपापत्र मिला! समाचार जाने। निवेदन यह है कि लोक-निन्दा जैसे एक ओर कर्तव्यपथमें विघ्न है, वैसे ही दूसरी ओर वह जीवन-सुधारका एक सुन्दर साधन भी है। स्तुति सुहावनी होती है और बड़ी मीठी भी लगती है; परंतु वह जीवनको उच्च स्तरपर नहीं ले जाती; मोहजाल फैलाकर उन्नतिके मार्गको रोक देती है। निन्दा बुरी लगती है, पर वह निर्दोष बनानेमें बड़ी सहायता करती है। स्तुति करनेवाला बिना ही हुए गुण सुना-सुनाकर मनुष्यके चित्तमें अहंकारका विष उत्पन्न करके उसे जर्जरित कर डालता है; परंतु निन्दक अपनी तेजधार जीभकी छुरीसे उसके एक-एक सड़े अंगको काट-काटकर उसकी जरा-जरा-सी मवादको निकाल डालनेका सहज प्रयत्न करता है—इसीसे संतोंने निन्दकको निकट रखनेकी सिफारिश की है—‘निंदक नियरे राखिये आँगन कुटी छवाय।’
आपका यह लिखना सत्य है कि ‘निन्दाको सहन करना बड़ा ही कठिन है।’ जब थोड़ी-सी भी निन्दा सहन नहीं होती, तब जहाँ निन्दाका स्रोत सीमा तोड़कर बह निकलता है, वहाँ तो वह असह्य हो जाती है, मनुष्यका मन तिलमिला उठता है और वह विवेकशून्य होकर निन्दकका नाश करनेपर उतारू हो जाता है। उसका कर्तव्यज्ञान नष्ट हो जाता है और वह अपनी सारी शक्ति इसीमें लगाकर अपनेको खो बैठता है! पर यह मनुष्यकी कमजोरी है। वीर-धीर मनुष्य तो वह है, जो निन्दा-स्तुतिकी सीमाको लाँघकर अपने कर्तव्य-पथपर अग्रसर होता है, जो निन्दक और स्तावक दोनोंको पीछे ढकेलकर वीरताके साथ आगे बढ़ जाता है। बुद्धिमान् वही है, जो अपने लाभ-हानिको सोचकर काम करे। आवेशमें या हठमें आकर कुछ भी कर बैठनेवाला तो पछताता ही है।
अतएव आप निन्दासे मत डरिये और न स्तुतिकी चाह कीजिये तथा न स्तुति सुनकर प्रसन्न होइये। संसारमें किसकी निन्दा नहीं होती? दोष देखनेवालोंकी आँखें तथा दोष कथन करनेवालोंकी वाणी ईश्वरतकमें दोष देखती और बतलाती है, फिर अपूर्ण मानव, जो दोषगुणसे युक्त है—की तो बात ही क्या है? साधक पुरुषको तो निन्दामें प्रसन्न होना चाहिये; क्योंकि निन्दाका प्रसार होनेसे लोकसम्मानकी और प्रतिष्ठाकी मीठी बीमारी मिट जाती है और साधक चुपचाप अपनी साधनामें प्रवृत्त रह सकता है। अवश्य ही निन्दनीय कर्म कभी नहीं करना चाहिये, परंतु निन्दा हो तो उसमें अपना परम लाभ ही मानना चाहिये। डर निन्दनीय कार्यसे होना चाहिये, निन्दासे नहीं।