भगवच्चिन्तनमें ही सुख है
सप्रेम हरिस्मरण। आपका पत्र मिला। आपने जो कुछ लिखा सो आपकी दृष्टिसे ठीक है; परंतु यथार्थ बात तो यह है कि जबतक आपका यह विश्वास है कि जागतिक पदार्थोंमें—भोगोंमें सुख है और जबतक उनके संग्रहको ही आप सुखका साधन मानते रहेंगे, तबतक आपको सच्चे सुखके दर्शन कदापि नहीं होंगे। अमुक-अमुक विषयोंकी प्राप्तिसे; अमुक प्रकारकी परिस्थितिसे मुझको सुख हो जायगा। यह बहुत बड़ा भ्रम है। इसी भ्रमके कारण मनुष्य दिन-रात विषय-चिन्तनमें लगा रहता है। आपको यह सत्य सदा याद रखना चाहिये कि समस्त पापोंका मूल विषय-चिन्तन है। श्रीमद्भगवद्गीतामें अर्जुनने भगवान्से पूछा था कि ‘इच्छा न रहनेपर भी ऐसा कौन है, जिसकी प्रेरणासे मनुष्य मानो बलपूर्वक लगाया हुआ-सा पाप करता है’ (३। ३६)। श्रीभगवान्ने इसके उत्तरमें स्पष्ट बतलाया कि ‘काम (कामना) ही वह वैरी है, जो महाशन है—जिसकी कभी तृप्ति होती ही नहीं और जो महान् पापी है; यह काम ही क्रोध बनता है और इस कामकी उत्पत्ति होती है रजोगुणसे।’ रजोगुण रागात्मक है। अर्थात् आसक्ति ही रजोगुणका स्वरूप है। इस आसक्तिसे ही कामकी उत्पत्ति होती है और आसक्ति होती है विषयोंके चिन्तनसे, विषय-चिन्तनमें मनुष्यका मन जहाँ रम जाता है, वहाँ एकके बाद दूसरा क्रमश: सारे दोष उत्पन्न हो जाते हैं और अन्तमें उसका सर्वनाश होकर रहता है। भगवान्ने कहा है—
ध्यायतो विषयान् पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते।
संगात् सञ्जायते काम: कामात् क्रोधोऽभिजायते॥
क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥
(गीता २।६२-६३)
‘मनुष्य मनसे विषयोंका चिन्तन करता है, विषय-चिन्तनसे उसकी विषयोंमें आसक्ति होती है, आसक्तिसे उनको प्राप्त करनेकी कामना उत्पन्न होती है, कामनामें विघ्न पड़नेपर क्रोध [कामनाके सफल होनेपर लोभ] उत्पन्न होता है, क्रोध [या लोभ]-से मूढ़ता आती है, मूढ़भावसे स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है, स्मृतिके भ्रंश होनेपर बुद्धि मारी जाती है और बुद्धिके नाश हो जानेसे मनुष्यका पतन या सर्वनाश हो जाता है।’
इससे सिद्ध है कि समस्त पापोंका और सर्वनाशका मूल विषय-चिन्तन है। यह विषय-चिन्तन तबतक नहीं छूटता, जबतक विषयोंमें सुखकी प्राप्तिका भ्रम है। भगवान् तो कहते हैं—
ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:॥
(गीता ५।२२)
‘इन्द्रिय तथा विषयोंके संयोगसे उत्पन्न जितने भी भोग हैं, वे सब निश्चय ही दु:खयोनि हैं—दु:खोंकी उत्पत्तिके स्थान हैं और आदि-अन्तवाले—अनित्य हैं, अतएव हे अर्जुन! बुद्धिमान् पुरुष इनमें नहीं रमता—सुख नहीं मानता।’ सच्चे अक्षय सुखका उपभोग तो उस भगवत्-रूप योगमें युक्त पुरुषको प्राप्त होता है, जिसका अन्त:करण बाह्य जागतिक विषय-भोगोंमें आसक्त नहीं है और जो अन्त:करणके ध्यानजनित सुखको प्राप्त है। (गीता ५। २१)
अतएव हमें यदि सुखकी—सच्चे सुखकी चाह है तो चित्तके द्वारा निरन्तर भगवान्का चिन्तन—ध्यान करनेका प्रयत्न करना पड़ेगा। भगवान्ने श्रीमद्भागवतमें कहा है—
विषयान् ध्यायतश्चित्तं विषयेषु विषज्जते।
मामनुस्मरतश्चित्तं मय्येव प्रविलीयते॥
(११। १४। २७)
‘जो मनुष्य निरन्तर विषय-चिन्तन करता है, उसका चित्त विषयोंमें आसक्त हो जाता है और जो मेरा (भगवान् का) स्मरण करता है, उसका चित्त मुझमें (श्रीभगवान् में) तल्लीन हो जाता है।’
एवं भगवान्के चित्तमें आते ही भगवत्-कृपासे चित्तगत समस्त अशुभों, दोषों और पापोंका नाश हो जाता है। श्रीमद्भागवतमें कहा है—
पुंसां कलिकृतान् दोषान् द्रव्यदेशात्मसम्भवान्।
सर्वान् हरति चित्तस्थो भगवान् पुरुषोत्तम:॥
यथा हेम्नि स्थितो वह्निर्दुर्वर्णं हन्ति धातुजम्।
एवमात्मगतो विष्णुर्योगिनामशुभाशयम्॥
(१२।३।४५,४७)
‘कलियुगके कारण मनुष्यके वस्तु, स्थान, अन्त:करण सभीमें दोष उत्पन्न हो जाते हैं, परंतु जब पुरुषोत्तम श्रीहरि चित्तमें आ जाते हैं, तब वे सारे दोष नष्ट हो जाते हैं। जैसे स्वर्णके साथ संयुक्त होकर अग्नि उसकी धातुसम्बन्धी मलिनता आदि दोषोंको नष्ट कर डालती है, वैसे ही हृदयमें आये हुए भगवान् विष्णु उसके समस्त अशुभ संस्कारोंको नष्ट कर देते हैं।’
परंतु भगवान्का चिन्तन तभी होगा, जब ‘विषयोंमें सुख है’—यह भ्रम हमारे मनसे सर्वथा निकल जायगा और जब यह निश्चय हो जायगा कि सुख तो एकमात्र श्रीभगवान्में ही है। किसी वस्तुका यथार्थ त्याग मनुष्य तभी करता है, जब वह समझ लेता है कि यह वस्तु सुख नहीं वरं नित्य नये-नये दु:ख ही देनेवाली है। और यह दोष वैसे ही प्रत्यक्ष निश्चयके रूपमें आ जाना चाहिये, जैसे हमारा यह निश्चय है कि संखिया या अफीम खानेसे हमारी मृत्यु हो जायगी। बहुत बड़े धनका लालच देनेपर भी मनुष्य अफीम या संखिया नहीं खाता; क्योंकि वह समझता है, इसके खाते ही मैं मर जाऊँगा। ऐसी ही विषबुद्धि विषयोंमें होनी चाहिये। अष्टावक्रजीने कहा है—‘विषयोंका विषके समान त्याग कर दो’—‘विषयान् विषवत् त्यज।’
जबतक विषयोंमें निश्चित दु:खबुद्धि नहीं होती और भगवान्में निश्चित सुखबुद्धि नहीं होती, तबतक न तो विषयोंसे मन हटेगा और न भगवान्में लगेगा। और इसीलिये तबतक न तो दु:खका नाश होगा और न सुखकी प्राप्ति होगी; क्योंकि भगवान्से अलग विषयोंमें सुख है ही नहीं। इसलिये मेरी आपसे प्रार्थना है कि आप इस विषयपर गम्भीरतासे विचार करें, विषयोंके स्वरूपको समझें और उनमें दु:ख-दोष देखकर उनसे चित्तको हटायें तथा परम सुखरूप भगवान्में लगायें। फिर देखें, आपको उत्तरोत्तर अधिक-से-अधिक सुख मिलता है या नहीं।