प्रसन्नता-प्राप्तिका उपाय
सप्रेम हरिस्मरण! संसारमें रहते हुए ही चित्तकी प्रसन्नताका उपाय पूछा, सो इसका उपाय भगवान्ने श्रीमद्भगवद्गीतामें बतलाया है—
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥
(२। ६४)
‘वशमें किये हुए शरीर, इन्द्रिय और मनसे जो पुरुष राग-द्वेषसे मुक्त होकर विषयोंका सेवन करता है, उसे प्रसाद (प्रसन्नता)-की प्राप्ति होती है।’ और इस प्रसाद (प्रसन्नता)-से सारे दु:खोंका नाश हो जाता है—
‘प्रसादे सर्वदु:खानां हानिरस्योपजायते।’
(गीता २।६५)
जबतक मनुष्य राग-द्वेषके वशमें है और जबतक मन-इन्द्रियोंका गुलाम है, तबतक उसके शरीर, इन्द्रिय और मनसे ऐसे कार्य होते ही रहते हैं, जो उसकी सारी प्रसन्नताका नाश करके उसका पतन कर देते हैं।
विषयोंमें रागी (विषयासक्त) मनुष्य जिह्वाके स्वादवश गुरुपाक पदार्थोंका अधिक भोजन कर लेता है अथवा राजस-तामस पदार्थोंको खा लेता है, जिससे शरीरमें विकार होते हैं और प्रसाद (प्रसन्नता)-का नाश होता है।
राग-द्वेषयुक्त मनुष्य लोगोंके दोष देखने और उनकी स्तुति-निन्दा करनेमें रसका अनुभव करता है; अत: उसके द्वारा व्यर्थ, कटु, असत्य, अहितकर भाषण होता रहता है। फलस्वरूप उसके प्रसादका नाश होता है।
राग-द्वेषयुक्त मनुष्य घर-द्वार, परिवार-परिजन, धन-सम्पत्ति, यश-कीर्ति और शरीरके आराम-भोग आदिमें राग करके चोरी, जुआ, दुराचार, असत्य, अनाचार, दुर्व्यसन, कुसंग और कुप्रवृत्तिमें प्रवृत्त हो जाता है और इससे उसके प्रसादका नाश हो जाता है।
राग-द्वेषके कारण मनुष्य अपने स्वार्थमें बाधक समझकर लोगोंसे वाद-विवाद, वैर-विरोध, मामले-मुकदमें, उनका अपमान-तिरस्कार, उन्हें दु:ख तथा हानि पहुँचानेकी चेष्टा और दु:ख तथा हानि होनेपर प्रसन्नताका अनुभव करता है तथा दूसरोंके स्वत्व, धन, जमीन, स्त्री, मान, यश तथा अधिकारपर मन चलाता है एवं उन्हें हथियानेका प्रयत्न करता है। इससे उसके प्रसादका नाश होता है।
बुद्धिमान् मनुष्य वही है, जो राग-द्वेषके वशमें नहीं होता तथा इन्द्रियोंको एवं मनको अपने वशमें रखकर शास्त्रविहित विषयोंका भगवान्की प्रीतिके लिये सेवन करता है।
शरीरको वशमें रखकर उसके द्वारा प्राणिमात्रकी सेवा, भगवान्, संत तथा गुरुजनोंकी यथायोग्य वन्दना, पूजा और सेवा करनी चाहिये।
वाणीको वशमें रखकर उसके द्वारा घबराहट उत्पन्न न करनेवाले सत्य, प्रिय और हितकर वचन बोलने चाहिये तथा भगवान्के नाम, रूप, गुण, लीला, धाम, रहस्य, प्रेम आदिका यथायोग्य कथन तथा जप-कीर्तन करना चाहिये।
मनको वशमें रखकर उसके द्वारा शुभचिन्तन, भगवच्चिन्तन करना चाहिये। उसमें दया, प्रेम, सौहार्द, समता, तितिक्षा, अहिंसा, प्रसन्नता, कोमलता, मननशीलता, पवित्रता आदि भावोंका विकास, संरक्षण तथा संवर्द्धन करना चाहिये।
इस प्रकार तन, वचन और मनको नित्य-निरन्तर शुभके साथ जोड़े रखना चाहिये तथा यह सब भी करना चाहिये निष्कामभावसे केवल श्रीभगवान्की प्रीतिके लिये ही। एवं यही चाहना चाहिये कि इस तरह विशुद्ध भगवत्-प्रीतिके लिये तन, वचन तथा मनसे सेवन-भजन करनेमें उत्तरोत्तर उल्लास, उत्साहपूर्वक प्रवृत्ति बढ़ती रहे। प्रसन्नता या सच्चे प्रसादका यही लक्षण है कि उसमें मन-बुद्धि सर्वथा भगवान्के अर्पण हुए रहते हैं। इन्द्रियाँ और शरीर भगवान्की सेवाके लिये अपनेको समर्पण कर देते हैं। अशुभका सर्वथा परित्याग हो जाता है। परंतु जबतक मनुष्य राग-द्वेषरूपी लुटेरोंके वशमें हुआ रहता है, तबतक वह शुभके साथ पूर्णरूपसे संयुक्त नहीं हो सकता—भगवान्में चित्तको सर्वथा संलग्न नहीं कर सकता।
परंतु राग-द्वेषके छूटनेका उपाय भी भगवान्का भजन ही है। भगवद्भजनसे ही, भगवान्के नित्य अपराभूत अपरिमित बलसे ही मनुष्य राग-द्वेषरूपी प्रबल डाकुओंसे छुटकारा पा सकता है।
अतएव मनुष्यको चाहिये कि वह भगवान्के नाम, रूप, लीला, गुण, धाम आदिमें राग करे। उनके असीम सौन्दर्य, माधुर्य और ऐश्वर्य-सागरमें बार-बार डुबकी लगाना आरम्भ कर दे और भगवद्विरोधी—भगवान्से हटानेवाले विषयोंमें द्वेष करे। परिणाम यह होगा कि उसके राग-द्वेषका नाश हो जायगा। फिर न तो उसके हृदयमें द्वेष रहेगा और न उस द्वेषका प्रतिद्वन्द्वी राग ही रहेगा। उस समय भगवान्में उसकी सर्वत्र द्वेषहीन विशुद्ध अनुरक्ति हो जायगी—उन्हींमें अनन्य अनुराग हो जायगा। इसी ‘संग’ का नाम ‘भगवत्प्रेम’ है। इसीकी प्राप्तिके लिये भक्तजन सदा लालायित रहा करते हैं। भगवत्प्रेमके सामने महापुरुष मुक्तिको भी तुच्छ समझकर सदा इसके सेवनमें लगे रहते हैं—
‘मुक्ति निरादर भगति लुभाने॥’