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भगवद्भजन सभी साधनोंका प्राण है

सादर हरिस्मरण। आपका कृपापत्र मिला। वर्तमान संकटकी निवृत्तिके लिये आपने संगठनकी आवश्यकता लिखी सो बहुत ठीक है। आपके विचारसे मैं सर्वथा सहमत हूँ। ‘कल्याण’ में जो भगवद्भजनकी आवश्यकता व्यक्त की गयी है, वह तो सभी साधनोंका प्राण है। भगवद्भावहीन साधन सफलता तो प्राप्त करा सकता है, पर उससे सच्ची शान्ति नहीं मिल सकती। बाह्य संगठन अथवा साधनोंसे जो सफलता मिलती है, वह निर्जीव और अस्थायी होती है। उसमें प्रतिस्पर्धा, हिंसा, अभिमान और भोग-लिप्साके रोगाणु विद्यमान रहते हैं, जो समय पाकर सारे संसारकी अशान्तिके कारण बन जाते हैं। इसमें संदेह नहीं कि संगठन और अध्यवसायके बलसे पश्चिमीय देश दिनोदिन उन्नत एवं विजयी हो रहे हैं; किंतु उनकी वह उन्नति दूसरोंको कुचलकर अपनी भोग-लिप्साको बढ़ानेवाली ही है। इससे अपनी और परायी दोनोंकी ही अशान्ति बढ़ रही है। इसीसे जगद्वन्द्य महात्मा गाँधी भी बाह्य साधन-सामग्रीके संचयपर जोर न देकर आन्तरिक दैवी सम्पत् को ही प्रधानता देते हैं। राम-नाम ही उनका भी प्रधान बल है। अत: हमारा संगठन भी तभी सफलता प्राप्त करा सकता है, जब उसके मूलमें श्रीभगवान् हों। तथापि इसमें संदेह नहीं कि विश्वमें विजय प्राप्त करनेके लिये संघ-शक्तिकी भी बड़ी आवश्यकता है और अपने स्थानपर उसे भी अवश्य करना चाहिये। शेष भगवत्कृपा।

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