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जीव भजन क्यों नहीं करता?

प्रिय महोदय! सादर सप्रेम हरिस्मरण। कृपापत्र मिला, धन्यवाद।

(१) इसमें संदेह नहीं है कि श्रीभगवान् ही जीवमात्रके सच्चे सुहृद् और परम आत्मीय सम्बन्धी हैं। वे ही परम सुख और शान्ति देनेवाले हैं। वे जीव-जगत‍्के आधार हैं। जीवात्मा उन्हींका सनातन अंश है। अत: जीवका भगवान‍्के प्रति सहज एवं अटूट प्रेम होना चाहिये। जो जीव अपने और भगवान‍्के इस सहज सम्बन्धकी घनिष्ठताका अनुभव करता है, उसका भगवान‍्के प्रति स्वाभाविक अटूट प्रेम होता ही है; परंतु न जाने कब किस कारणसे जीव उस करुणामय सुहृद्से बिछुड़ गया। जीव और भगवान‍्के बीच एक आवरण-सा पड़ गया। अनादिकालसे और अज्ञात कारणवश जीव प्रभुसे अलग है। अलग होकर यह कभी सुख-शान्ति न पा सका। फिर भी मार्ग भूल जानेके कारण वह प्रभुतक पहुँच भी नहीं पाता। बिछुड़नेके बादसे अबतक इसने अपने मनमें इतने विरोधी संस्कार संचित कर लिये हैं कि उनसे प्रभावित रहनेके कारण इसे अपने प्रेमास्पद प्रभुकी सत्तापर भी यथावत् विश्वास नहीं हो पाता। शास्त्र-श्रवण अथवा सत्संगका अवसर सब जीवोंको तो प्राप्त होता ही नहीं। थोड़े-से लोगोंको यह अवसर अवश्य मिलता है। तथापि उनमें भी अधिकांश जनोंका मन विरोधी संस्कारोंके कारण संशयापन्न रहता है; अत: शीघ्र ही शास्त्रोपदेश या सत्संगका उसपर भी यथार्थ असर नहीं हो पाता। हाँ, अधिक कालतक शास्त्रानुशीलन और सत्संग करनेसे धीरे-धीरे विरोधी संस्कार दूर एवं दुर्बल होने लगते हैं; फिर दीर्घकालके बाद जब अन्त:करण शुद्ध हो जाता है, तब प्रभुके साथका अपना सम्बन्ध स्मरण हो आता है। फिर तो पिछली पहचान जाग उठती है और महान्-से-महान् बाधाकी भी परवा न करके प्रेमी जीव अपने प्रियतम प्रभुके पास पहुँचनेके लिये प्रेमके पन्थपर दौड़ पड़ता है। जीव कब बिछुड़ा, क्यों बिछुड़ा? माया क्यों आवरण डालती है? इन सब प्रश्नोंमें उलझनेसे आज कोई लाभ होनेवाला नहीं है। जीव जहाँ है, वहींसे उसको अपने प्रभुकी ओर बढ़ना है। कारण और समय कोई भी क्यों न रहा हो, आज जीव अपनेको भगवान‍्से अलग देखता है। प्रभुसे अपनेको बिछुड़ा हुआ पाता है। यह बिलगाव, यह बिछुड़न दूर होनी चाहिये। यही इस विरही जीवकी जन्म-जन्मकी साध है। जब प्रभुके पास था, उनके चरणोंकी सेवामें था, तब इसे सुख था, शान्ति थी, आराम था, आनन्द था और प्रभुके मधुरातिमधुर प्रेम-रसका समास्वादन प्राप्त होता था। आज जब यह जीव प्रभुसे पृथक् हो गया है, तब भी यह उन्हीं वस्तुओंको चाहता है। पर लक्ष्यभ्रष्ट होनेके कारण यह भौतिक, नाशवान् एवं दु:खमय जगत् में, यहाँके विषय-भोगोंमें उस सुख, शान्ति, आराम, आनन्द और मधुर प्रेम-रसास्वादनका लाभ लेना चाहता है। मरु-मरीचिकामें हिरन कितनी ही चौकड़ी क्यों न भरे, वहाँ शीतल जल नहीं मिल सकता। इसी प्रकार भौतिक जगत‍्के भोगोंमें शाश्वत सुख-शान्तिकी प्राप्ति कभी नहीं हो सकती। भगवान‍्की दयासे जो जीव वस्तुत: इस सत्यको समझ लेता है, वह सब कुछ छोड़कर एकमात्र प्रभु-चरणारविन्दोंका चिन्तन करनेवाला चंचरीक बन जाता है। जबतक प्रभु-प्राप्तिके सुखकी विलक्षणता अनुभवमें नहीं आती, तबतक विषयसुख ही श्रेष्ठ एवं स्पृहणीय प्रतीत होते हैं। उस दशामें भजन, साधन, पूजा, पाठ और आराधना आदि भी इस विषय-सुख-सामग्रीका संचय करनेके लिये ही किये जाते हैं। इनकी प्राप्तिमें ही उन साधनोंकी भी सार्थकता दिखायी देती है। सत्कर्म, सत्संग तथा सत्-शास्त्र-चिन्तनके प्रभावसे जो प्रभुकी महत्ता समझ गये हैं, उन्हें भगवत्कृपाका ही आश्रय लेकर, भगवान‍्की प्राप्तिको ही चरम लक्ष्य बनाकर प्रत्येक साधन अथवा सत्कर्म करना चाहिये। विघ्न, बाधा और विक्षेप आते हैं तो आयें, इस दु:खमय जगत‍्में और है ही क्या, जो आयेंगे। जब अपने साथ भगवत्कृपाका बल है, तब किसी भी विघ्न-बाधासे अपनी क्या हानि हो सकती है। विक्षेप आदिका भय भी भगवान‍्के प्रति अथवा उनकी अकारण करुणाके प्रति अविश्वासका ही सूचक है। भगवद्विश्वासीकी दृष्टिमें भगवान‍्के सिवा और कुछ आना ही नहीं चाहिये। सत्य यही है कि सब कुछ भगवान् ही हैं। विघ्न-बाधा-विक्षेप भी भगवान‍्से भिन्न नहीं; तब भगवद्भक्तको किसीसे भी भय क्यों होना चाहिये। निर्भरता और निश्चिन्तता तो भगवद्भक्तका स्वाभाविक गुण है।

(२) भगवान् तो सत्य, सुन्दर, सुखस्वरूप हैं ही। उनके नाम, रूप, लीला, धाम सब वैसे ही हैं। जो भगवान‍्को वस्तुत: इस रूपमें समझ सके हैं, उनका सहज आकर्षण उनकी ओर होता ही है। जिनका सहज आकर्षण उनकी ओर नहीं है, वे भगवान‍्के सत्य, सुन्दर, सुखस्वरूपको नहीं जानते। संसारी वस्तुओंकी ओर आकर्षण इसीलिये है कि वे उनसे सुख पानेकी आशा रखते हैं; यदि उनके हृदयमें वस्तुत: यह विश्वास, यह अनुभव हो जाय कि भगवान् ही सुख, शान्ति, सौन्दर्य, माधुर्य, प्रेम और आनन्द-सुधाके सागर हैं तो वे विषय-सुखको तिनकेकी भाँति त्यागकर उस ओर दौड़ पड़ेंगे।

(३) जप-कीर्तनादिमें कमजोरी होनेकी बात लिखी, सो मालूम हुई। हृदय, वाणी, कण्ठ तथा मस्तिष्क एवं मेधाको शक्ति प्राप्त हो, ऐसा प्रयोग किसी सद्वैद्यसे पूछकर करना चाहिये। सात्त्विक आहार, संयम, कुपथ्यसे परहेज तथा स्वास्थ्यकर वस्तुओंका सेवन एवं ब्रह्मचर्यपालनपर भी ध्यान देना चाहिये।

(४) शारीरिक दुर्बलताके कारण भी आलस्य-प्रमाद आदि घेरते हैं; मनकी एकाग्रता भी नहीं हो पाती। अत: शरीरको स्वस्थ बनाये रखनेकी चेष्टाके साथ-साथ एकाग्र ध्यानका भी अभ्यास धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिये। मनको एकाग्र करनेका उपाय भगवान‍्ने ही बता दिया है—अभ्यास और वैराग्य। यही पातंजलयोगदर्शनका भी मत है। अभ्यास-वैराग्यके स्वरूप और महत्त्वसे आप परिचित होंगे ही। अत: अभ्यास बढ़ानेकी चेष्टा करते रहें।

(५) श्रीकृष्णचैतन्यमहाप्रभुको बाह्य जगत‍्का भान बहुत कम रहता था; वे नित्य ही श्रीकृष्णकी सन्निधिमें रहते थे। उनके लिये सर्वत्र वृन्दावन ही था। उनके भक्तगण ही उनकी सँभाल रखते थे। वृन्दावनकी प्रत्येक वस्तु उनके विरहभावको उद्दीपित करनेवाली थी। अत: वे बार-बार मूर्च्छित हो जाते थे। कभी-कभी यमुनामें कूदकर देरतक डूबे रह जाते। उस दशामें उनके इस शरीरकी रक्षा कठिन जान पड़ने लगी; अतएव भक्तगण इन्हें जगन्नाथपुरी ले गये। प्रभु भक्तपरवश थे। भक्तोंकी इच्छा देखकर ही करुणावश उनके साथ वृन्दावनसे चले गये।

(६) ‘निरखि सखि! चार चंद्र इक ठोर’ वाले पदका संक्षिप्त अर्थ इस प्रकार जान पड़ता है—प्रिया-प्रियतम दोनों यमुनाजीके तटपर बैठकर उनकी चंचल लहरोंकी शोभा देख रहे हैं। उस समय कोई सखी दूसरी सखीसे उस झाँकीका वर्णन कर रही है। प्रिया-प्रियतमकी परछाहीं भी जलमें दिखायी पड़ती है, अत: वे दोसे चार हो गये हैं। शब्दार्थ इस प्रकार है—

‘सखी! देखो तो सही, एक ही स्थानपर चार चन्द्रमा एकत्र हो गये हैं। प्रियतम श्यामसुन्दर और प्रियतमा श्रीकिशोरीजी दोनों बैठे हैं और सूर्यनन्दिनी यमुनाकी ओर देख रहे हैं। चारमेंसे दो चन्द्रमा तो श्यामघनकी भाँति नील वर्णके हैं (एक श्यामसुन्दर और दूसरा उनका प्रतिबिम्ब है) तथा दो चन्द्रमाओंकी झाँकी गौर वर्णकी है। (किशोरीजी और उनका प्रतिबिम्ब—ये दो गोरे हैं) इन चारों चन्द्रमाओंके बीच चार शुक शोभा पा रहे हैं। इनकी नासिका ही शुकके समान प्रतीत होती है। केवल किशोरीजी ही अपनी नासिकामें मुक्ताफल धारण करती हैं; अत: वह उन्हींके प्रतिबिम्बमें भी लक्षित होता है। इस प्रकार चार शुकोंके बीच दो ही फल हैं। चारोंके आठ नेत्र ही आठ चकोर हैं। प्रत्येक चन्द्रमा (मुखचन्द्र)-के साथ प्रवाल है, कुन्द है और भ्रमर भी है। यहाँ अधर ही प्रवाल हैं, दन्तपंक्ति ही कुन्द है और भ्रूलता ही भ्रमरावलि है। ऐसे शोभामय चन्द्र-ब्रह्ममें मेरा मन उलझ गया है। सूरदासजी कहते हैं, मेरे दोनों ही प्रभु रूपकी निधि हैं, इन युगल-किशोरकी झाँकीपर बलिहारी है! बलिहारी है!’*

* निरखि सखि! चार चंद्र इक ठोर।
निरखति बैठि बिलंबिनि पिय सँग
सूर-सुताकी ओर॥
द्वै ससि स्याम नवल-घन सुंदर
द्वै कीन्हें बिधि गोर।
तिनकें मध्य चार सुक राजत
द्वै फल आठ चकोर॥
ससी सुअंग प्रबाल कुंद अलि
अरुझि रह्यो मन मोर।
सूरदास प्रभु अति रति नागर
बलि-बलि जुगल-किसोर॥

(७) आप तो प्रभुकी लीला-कथाके गायक हैं। उनका निरन्तर चिन्तन करते रहते हैं। प्रभुके रूप, रस, लीला, धाम और नामकी माधुरीमें मनको डुबाये रखें; फिर उनका विशुद्ध प्रेम या अनुराग तो प्रभु स्वयं ही दया करके देंगे। वह किसी साधनका फल नहीं, प्रभुकी कृपाकी देन है। शेष भगवत्कृपा।

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