भगवान् परम गुरु हैं
सप्रेम हरिस्मरण! आपका पत्र यथासमय मिल गया था। कार्यवश उत्तरमें विलम्ब हुआ, कृपया क्षमा करेंगे।
आपका यह निश्चय पढ़कर प्रसन्नता हुई कि ‘इस असार संसारमें भगवान्का भजन ही सार है।’ इसमें सन्देह नहीं कि साधन-मार्गमें सद्गुरुका बहुत बड़ा महत्त्व है। सद्गुरुकी कृपासे साधकको सिद्धितक पहुँचनेमें सुगमता होती है; साधनामें रुचि और उत्साह बढ़ते रहते हैं तथा विघ्नोंके निवारणमें भी पर्याप्त सफलता प्राप्त होती है। गीतामें भी ‘तद्विद्धि प्रणिपातेन’ इत्यादि कहकर गुरुकी उपयोगिता तथा महत्ता बतायी गयी है। अत: किसी भगवत्प्राप्त, श्रेष्ठ, अनुभवी संत-महात्माको गुरु बनाकर उनके शरणागत होकर साधनकी दीक्षा ग्रहण करना बहुत ही उत्तम बात है। गुरुके बिना मनका संशय नहीं जाता और साधनमें भी सुदृढ़ आस्था नहीं होती।
परंतु श्रेष्ठ सद्गुरुकी प्राप्ति भी सरल नहीं है। पहले तो ऐसे गुरुको पहचानना ही कठिन है। यदि दूसरोंके कहनेपर किसीको श्रेष्ठ संत मान भी लिया तो भी सहसा उसके प्रति गौरव-बुद्धि उत्पन्न नहीं होती। हम अपने संशयापन्न मन और बुद्धिके द्वारा कभी संतको भी असंत और असंतको भी संत मान लेते हैं। यह भी सत्य है कि दिव्य जगत्के कुछ सिद्ध महापुरुष अव्यक्तरूपसे जगत्में विचरण करते हैं। और योग्य अधिकारियोंके समक्ष प्रकट हो उन्हें उपदेशसे अनुगृहीत करके सफलतापूर्वक साधनमें लगा देते हैं, उनके आशीर्वादसे साधक शीघ्र ही कृतार्थ हो जाता है। परंतु हममें वह योग्यता या अधिकार है या नहीं, नहीं है तो कबतक होगा और कैसे हो सकेगा, ये सब बातें भी साधकके हृदयको चिन्ताग्रस्त बनाये रखती हैं। जब अकारण करुणा करनेवाले श्रीभगवान् ही कृपापूर्वक किसी संतको गुरुरूपसे भेज दें या स्वयं गुरुके रूपमें दर्शन देकर साधकको कृतार्थ कर दें, तभी साधनमें शीघ्र सफलता मिल सकती है। इसीलिये कहा जाता है कि— ‘बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥’ (सु०७।४)
ऐसी दशामें जबतक मनुष्यके जीवनमें ऐसा शुभ अवसर नहीं आता, योग्य, अनुभवी तथा श्रद्धेय गुरुकी उपलब्धि नहीं होती, तबतक क्या वह चुप बैठा रहे? साधनमें न लगे?—ऐसा सोचना भारी भूल है। अपनेको तो बिना एक क्षणका भी विलम्ब किये भजन-साधनमें लग जाना ही चाहिये। भगवान् पर, उनकी अहैतुकी कृपापर सुदृढ़ भरोसा करके उन्हींको गुरु मानकर साधन आरम्भ कर देना चाहिये। वे गुरुओंके भी परम गुरु हैं, जगद्गुरु हैं। वे ही उचित समझें तो कोई सद्गुरु भेज दें अथवा स्वयं ही गुरुरूपमें आकर अनुगृहीत करें। यह काम उनका है। अपना काम है केवल विश्वासके साथ भजन करना। भजन कभी व्यर्थ नहीं जाता। थोड़ा-सा भजन भी महान् भयसे रक्षा करता है—‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥’ ‘न मे भक्त: प्रणश्यति’—यह भगवान्की प्रतिज्ञा है। ‘देवता जल भी नहीं ग्रहण करते, साधनका कोई फल नहीं होता’ ये सब बातें गुरुकी आवश्यकता बतलानेके लिये ही हैं। सद्गुरुकी प्राप्तिके पहले जो साधन-भजन या पुण्यकर्म किये जाते हैं, वे व्यर्थ होते हैं ऐसा उनका तात्पर्य कदापि नहीं हो सकता।
ब्राह्मणके लिये अथवा किसीके लिये भी गृहस्थ या विरक्त गुरुका प्रश्न नहीं उठता। गुरु साधनपथके अनुभवी, परमार्थरत, भगवत्प्राप्त तथा परम दयालु होने चाहिये। फिर वे गृहस्थ हों या विरक्त, सर्वथा वन्दनीय हैं। वसिष्ठजी गृहस्थ थे, परंतु उन्होंने कितनोंको भवबन्धनसे मुक्त किया। राजा जनक गृहस्थ थे, किंतु उनके पास उपदेश लेनेके लिये विरक्तशिरोमणि शुकदेवजी भी गये थे। राजा परीक्षित् ने विरक्तगुरु श्रीशुकदेवजीसे उपदेश प्राप्त किया था।
२-उपासना केवल अपने इष्टदेवकी ही की जा सकती है। उनके साथ उनके पार्षद भी रहें तो अच्छा है। पंचदेवोपासनाक्रमसे भी अपने इष्टदेवको मध्यमें स्थापित करके उनकी पूजा की जा सकती है। श्रीविष्णुपंचायतनमें भी श्रीविष्णुको ही स्थापित करना चाहिये। श्रीराम या श्रीकृष्ण आदि अन्य स्वरूपोंकी पूजा करनी हो तो उनके साथ उनके अन्तरंग पार्षदोंका पूजन करना अधिक उपयुक्त होगा। भगवान्के प्रतीकरूपमें श्रीशालग्रामशिला, धातुनिर्मित प्रतिमा अथवा चित्र आदि जो भी हो, उसमें प्राणप्रतिष्ठापूर्वक पूजन करना अधिक उत्तम है। भगवान्को सर्वत्र व्यापक देखनेवाला या शास्त्रविधिसे अनभिज्ञ श्रद्धालु साधक बिना प्राणप्रतिष्ठाके भी भगवत्स्वरूप मानकर ही उन प्रतीकोंपर पूजन कर सकता है।
३-भगवान् श्रीकृष्णके प्रतिपादक किसी भी मन्त्रको आप जप सकते हैं। किसी विद्वान्से उसके न्यास आदिकी विधि जान लें तो और भी अच्छा है।
४-‘हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥’—इस मन्त्रमें प्रणव न होनेपर भी इसका महत्त्व कम नहीं है। ‘हरि’ शब्दका सम्बोधनरूप ही ‘हरे’ पद है, ‘हरा’ का नहीं, यही विद्वानोंका निर्णय है। इस मन्त्रका भी, राम-कृष्ण आदि अपने इष्टदेवका चिन्तन करते हुए जप कर सकते हैं। केवल ‘राम-राम’ या ‘कृष्ण-कृष्ण’ आदि इष्ट नामको भी मन्त्र मानकर जप करनेमें कोई बाधा नहीं है। ‘हरे राम’ षोडश नाममें या केवल ‘नाम-मन्त्र’ में न्यासका नियम नहीं है। जप आरम्भ करनेसे पूर्व अपने इष्टदेवका ध्यान करके जप करना चाहिये। संख्या और समयका एक नियम बना लें। प्रतिदिन अमुक समयसे अमुक समयतक और इतना जप करना है, ऐसा नियम बनाकर वैसा ही प्रतिदिन करना अच्छा है।
आप प्रतिदिन प्रात:काल सन्ध्योपासना और एक माला गायत्रीमंत्रका जप करते हैं, यह ठीक है। नित्य सायंकाल भी यही नियम ले लें तो अच्छा है। कभी पर्व आदिके अवसरपर विशेषरूपसे विधिवत् अधिक जप करनेकी बात लिखी, सो यह भी ठीक है। अधिक जप होना तो अच्छा ही है। नित्य जितना करते हैं उससे कम नहीं होना चाहिये। यदि किसी अनिवार्य कारणवश किसी दिन कम जप हुआ तो उसकी पूर्ति दूसरे दिन अधिक जप करके कर लेनी चाहिये।
५-भगवत्प्रीत्यर्थ एकादशीव्रतका आरम्भ करना चाहते हैं, यह बड़ी उत्तम बात है। यहाँसे प्रकाशित संक्षिप्त पद्मपुराणांकमें एकादशीव्रतकी विस्तृत विधि दी हुई है। उसे देख लें तो सब बातें ज्ञात हो जायँगी। एकादशीका विशेष नियम है—दिनमें उपवास और रातमें जागरण। भगवच्चर्चामें ही समय बीते। उत्साहपूर्वक भगवान्का पूजन किया जाय। मन और इन्द्रियोंका संयम आवश्यक है।
६-आसुरी सम्पत्तिके विनाश और दैवी सम्पत्तिके उदयके लिये प्रार्थना करना, सकाम होते हुए भी निष्कामके ही तुल्य है। अत: ऐसा करना उत्तम है। शेष सब भगवान्की दया है।