भोग-वैराग्य और बुद्धियोग-बुद्धिवाद
आपका कृपापत्र मिला। गीताका वास्तविक तात्पर्य क्या है, यह तो एकमात्र भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ही जानते हैं। भगवान्की वाणी सर्वशास्त्रमयी और सर्वकल्याणकारिणी होती है, अतएव उससे सभीको अपने-अपने अधिकारके अनुसार सत्यकी ओर अग्रसर होनेका मार्ग मिल जाता है; परंतु आपने जिस तरहसे गीतासे अर्थ लिये हैं, वे मेरी तुच्छ सम्मतिमें ठीक नहीं हैं। आपके दोनों विचारोंका उत्तर क्रमश: इस प्रकार है—
(१) आप लिखते हैं—
तस्मात्त्वमुत्तिष्ठ यशो लभस्व
जित्वा शत्रून् भुङ्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।
(गीता ११।३३)
‘इसलिये तू खड़ा हो जा। यशको प्राप्त कर और शत्रुओंको जीतकर समृद्ध राज्यका उपभोग कर।’ इस उपदेशमें भगवान्ने राज्योपभोगकी स्पष्ट आज्ञा दी है। ‘फिर गीता विषयभोगसे हटाती है, यह क्यों माना जाय?’ इसका उत्तर यह है कि यद्यपि गीताने वर्णधर्मके अनुसार अर्जुनको धर्म-युद्ध करने और राज्य भोगनेकी आज्ञा दी है, परंतु साथ ही बार-बार कहा है कि विषय-सुखमें आसक्ति और विषयकामना नहीं रहनी चाहिये। बल्कि उन्होंने स्पष्ट कहा है—
ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:॥
(गीता ५।२२)
‘इन्द्रिय तथा विषयोंके संयोगसे उत्पन्न सब भोग (विषयी पुरुषोंकी दृष्टिमें भ्रमवश सुखरूप भासनेपर भी) निश्चय ही दु:खोंके उत्पत्तिस्थान हैं और आदि-अन्तवाले (अनित्य) हैं, अतएव हे अर्जुन! बुद्धिमान् पुरुष उनमें प्रीति नहीं करता।’
विषयेन्द्रियके संयोगसे उत्पन्न सुखको पहले अमृत-सा लगनेपर भी परिणाममें विषवत् बतलाया है (गीता १८। ३८)। अतएव गीतामें स्वच्छन्द विषयोपभोगका आदेश कहीं नहीं दिया गया है। विषयभोग मनसे सदैव त्याज्य हैं; क्योंकि वे अनित्य और परिणाममें दु:खदायक हैं। भगवान्ने स्पष्ट आज्ञा की है—‘अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥’ (९।३३) ‘इस अनित्य और सुखरहित लोक (शरीर)-को प्राप्त होकर तू (विषयोंमें न फँसकर) मेरा ही भजन कर।’ कर्मयोगपरायण स्थितप्रज्ञ पुरुषका लक्षण बतलाते हुए भगवान् कहते हैं—
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वश:।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥
(गीता २। ६८)
‘महाबाहो! जिस पुरुषकी इन्द्रियाँ समस्त इन्द्रियोंके विषयोंसे निगृहीत की हुई होती हैं, उसीकी प्रज्ञा प्रतिष्ठित होती है।’ इसके सिवा ‘इन्द्रियार्थेषु वैराग्यम्’, ‘विविक्तदेशसेवित्वम्’, ‘अनिकेत:’, ‘शब्दादीन् विषयांस्त्यक्त्वा’, ‘वैराग्यं समुपाश्रित:’ और ‘जन्ममृत्युजराव्याधिदु:खदोषानुदर्शनम्’, ‘असक्तिरनभिष्वङ्ग: पुत्रदारगृहादिषु’ इत्यादिमें स्पष्ट ही वैराग्यका उपदेश है।
(२) आपने लिखा—‘गीता’ में बुद्धियोगकी प्रधानता है—
‘बुद्धियोगमुपाश्रित्य’, ‘ददामि बुद्धियोगम्’, ‘बुद्धियोगाद्धनञ्जय’ इत्यादिसे स्पष्ट है। आजके युगनिर्माणकर्ता भी ‘बुद्धियोगकी ही बात कहते हैं, फिर यह क्यों कहा जाता है कि ‘बुद्धिवाद’ बुरी चीज है। बुद्धिवादका महत्त्व तो गीतासे ही सिद्ध है।
इसका उत्तर यह है कि गीताके बुद्धियोग और आजके बुद्धिवाद (Rationalism)-में उतना ही अन्तर है जितना सूर्य और अन्धकारमें। गीतामें बुद्धियोगका अर्थ है भगवान्के साथ बुद्धिका संयोग अथवा ‘समत्वबुद्धिरूप निष्काम कर्मयोग’ और आजके ‘बुद्धिवाद’ का अर्थ है ‘सर्वत्र सन्देहबुद्धि’; ईश्वर, आत्मा, परलोक, पुनर्जन्म, पाप-पुण्य, शास्त्र और सदाचार—जो त्रिकालज्ञ ऋषियोंकी निर्भ्रान्त बुद्धिके द्वारा अनुभूत तत्त्व हैं—पर अविश्वास; और इन्द्रियसुखभोगमें निरंकुश यथेच्छाचार। ऋषियोंकी तपस्यापूत सत्यदर्शनयुक्त बुद्धिने निश्चय करके बतलाया था—‘ईश्वर एक, सर्वशक्तिमान्, सर्वात्मा और सर्वलोकमहेश्वर हैं, सारी सृष्टि उन्हींके द्वारा हुई है। आत्मा नित्य-सत्-चित्-आनन्दमय है। भले-बुरे कर्मोंके अनुसार शुभाशुभ लोकोंकी प्राप्ति और उत्तम-अधम योनियोंमें जन्म होता है। शास्त्रविहित सदाचार आचरणीय और शास्त्रनिषिद्ध असदाचार त्याज्य है। संसारका सुख अनित्य और असत् है; क्षुद्र विषयसुखकी कामना छोड़कर भगवत्प्राप्तिके लिये यत्न करना ही मनुष्यका परम कर्तव्य है; क्योंकि ‘भगवत्प्राप्तिमें ही जीवनकी पूर्ण परिणति है।’ यदि संसारमें सुखभोग प्राप्त हैं तो उन्हें अनासक्त होकर भगवत्प्रसादके रूपमें ग्रहण करना चाहिये तथा सबके साथ आत्मदृष्टिसे प्रेमका व्यवहार करते हुए सबकी सेवा करते हुए ही भगवत्प्राप्तिकी ओर अग्रसर होना चाहिये। असलमें बुद्धिका ऐसा निश्चय ही असली बुद्धिवाद है और इस बुद्धिसे भगवान्के साथ संयुक्त होकर कर्म करना ही बुद्धियोग है। गीतामें इसी बुद्धियोगका प्रतिपादन है। आजके विकृत बुद्धिवादका कदापि नहीं।