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॥ श्रीहरि:॥

भगवान‍्के भजनकी महिमा

प्रिय महोदय! सप्रेम हरिस्मरण। आपका पत्र मिला। आप लिखते हैं कि ‘मैं सोते-बैठते, चलते-फिरते, खाते-पीते सदा श्रीभगवान‍्का स्मरण करता हुआ उनकी प्रार्थना करता रहता हूँ। मैंने भगवान‍्को आत्मसमर्पण कर दिया है और मुझे भगवान् पर पूरा विश्वास भी है; तथापि अभीतक भगवान‍्ने मेरी प्रार्थना नहीं सुनी है। इसलिये मुझे निराशा हो रही है, कृपया बताइये इसमें क्या कारण है?’ वास्तविक कारण तो भगवान् ही जानते हैं; परंतु महात्माओंका ऐसा अनुभव है और शास्त्र भी कहते हैं कि भगवान‍्में पूर्ण विश्वास करके जो पुरुष सदा भगवान‍्का स्मरण करता हुआ प्रार्थना करता है, उसकी प्रार्थना भगवान् अवश्य सुनते हैं। पर आपके प्रसंगमें ऐसा क्यों हुआ, सो पता नहीं है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि भगवान‍्ने कहीं भूल की हो, सो बात नहीं है। कहीं-न-कहीं आपकी ही भूल है और वह भूल यों तो प्रत्यक्ष ही है। आप यदि सदा उनका स्मरण ही करते रहते तो फिर दूसरे चिन्तनके लिये अवकाश ही क्यों मिलता। यदि भगवान‍्के लिये ही प्रार्थना करते हैं तो भगवान‍्का नित्य चिन्तन होनेसे बढ़कर और लाभ ही कौन-सा है और वह आपके कथनानुसार आपको मिल ही रहा है। यदि आप स्मरणके अतिरिक्त भगवत्साक्षात्कार आदिके लिये प्रार्थना करते हैं तो फिर उसमें निराशा कैसी? जहाँ पूर्ण विश्वास है, वहाँ तो निराशाको स्थान ही नहीं है। और जो आत्मसमर्पण कर चुकता है, वह तो अपनी स्वतन्त्र इच्छासे किसी वस्तु या स्थितिकी प्रार्थना ही कैसे कर सकता है। इन सब बातोंपर विचार करनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि आपके ‘निरन्तर स्मरण’, ‘नित्य प्रार्थना’, ‘आत्मसमर्पण’ और ‘पूर्ण विश्वास’ में ही त्रुटि है। भगवान‍्से आपकी प्रार्थना यदि किसी सांसारिक विषयके लिये होती रही है, तब तो विश्वास, आत्मसमर्पण और नित्य स्मरणमें बड़ी त्रुटि है—

जहाँ राम तहाँ काम नहिं
जहाँ काम नहिं राम।
तुलसी कबहुँ कि रहि सकैं
रबि रजनी एक ठाम॥

‘जहाँ विषयासक्ति तथा भोग-कामनारूपी अन्धकार है, वहाँ भगवद्विश्वास और भगवान‍्के प्रति आत्मसमर्पणरूप सूर्यका प्रकाश कहाँ है? और जहाँ भगवान‍्का सूर्य उगा है, वहाँ भोगासक्तिरूप अन्धकार कहाँ है। सूर्य और रात्रि दोनों एक जगह एक साथ प्रकट नहीं रह सकते।’ अतएव आप गहराईके साथ अपने मनके भावों तथा साधनाके स्वरूपपर विचार कीजिये। और जहाँ-जहाँ अपनेमें त्रुटि दिखायी दे वहाँ-वहाँ उसे सावधानीके साथ पूरा कीजिये।

यह सब होनेपर भी आप जो कुछ कर रहे हैं, वह बहुत ही सराहनीय है। आपने अपने साधनको कुछ अधिक समझ लिया; इतनी-सी आपकी भूल है; पर साधन तो होता ही है। आप अपनी समझसे विश्वास भी करते हैं, स्मरण-प्रार्थना भी करते हैं और आत्मसमर्पण भी कर चुके हैं। यह सब, इस युगमें कम नहीं है। आपका बड़ा सौभाग्य है कि आप ऐसा कर पाते हैं। भगवान‍्की बड़ी कृपा समझिये जो आपकी ऐसी बुद्धि है। आप किसी प्रकारसे निराश न होइये। आप यदि भगवान‍्को सकामभावसे भजते हैं तो भी परिणाममें आपका कल्याण ही होगा। निष्कामभाव सर्वोत्तम है। प्रेम उससे भी ऊँचा है; परंतु सकामभावसे किया हुआ भजन भी अन्तमें भगवत्प्राप्ति करा देता है। भगवान‍्का सकाम भजन किसी फलको देकर नष्ट नहीं हो जाता, वह जीवको भगवान‍्तक पहुँचाकर ही छोड़ता है। किसी प्रकार भी कोई भगवान‍्को भजे—उनके साथ किसी भी इन्द्रियका, मनका, बुद्धिका किसी हेतुसे भी एक बार सम्बन्ध हो जाना चाहिये। वह भगवत्सम्बन्ध—वह ब्रह्मसंस्पर्श भगवान‍्की प्राप्ति करा ही देगा। काम-क्रोध और वैरसे सम्पर्क करनेवाले भी जब भगवान‍्को पा जाते हैं*, तब विश्वासके साथ सकामभावसे भजन करनेवाले अन्तमें भगवान‍्को पा जायँ, इसमें क्या आश्चर्य है? श्रीभगवान‍्ने आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी—चार प्रकारके भक्तोंका वर्णन करते और उनकी महत्ता बतलाते हुए अन्तमें कहा है—‘मद्भक्ता यान्ति मामपि’ (गीता ७। २३)—मेरे भक्त मुझको ही प्राप्त होते हैं।

* कामाद् द्वेषाद् भयात् स्नेहाद् यथा भक्त्येश्वरे मन:।
आवेश्य तदघं हित्वा बहवस्तद‍्गतिं गता:॥
(श्रीमद्भा० ७। १। २९)
‘काम, द्वेष, भय, स्नेह और भक्तिके द्वारा ईश्वरमें मन लगाकर बहुत-से लोग अपने-अपने पापोंका नाशकर भगवान‍्को प्राप्त हो गये हैं।’

हाँ, कामनाकी पूर्ति होना-न-होना भगवान‍्के मंगलमय संकल्पपर अवलम्बित है। वे जिस बातमें हमारा कल्याण समझते हैं, वही करते हैं। कहीं कामनाकी विलक्षण पूर्ति कर देते हैं तो कहीं कामनाको सफल होने ही नहीं देते। हाँ, भजन करनेवालेकी लौकिक कामना अन्तमें मिट अवश्य जाती है—चाहे पूर्ण होकर और चाहे नष्ट होकर। यह याद रखना चाहिये कि वस्तुत: कामनाकी पूर्तिसे कामना नहीं मिटती। उससे तो वह उत्तरोत्तर वैसे ही बढ़ती है, जैसे घी-ईंधन पड़नेसे अग्नि—

‘बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ,
बिषय-भोग बहु घी ते॥’

भगवान् जब कृपा करके जीवके हृदयमें अपनी मधुर झाँकी कराते हैं, तब अन्य सारी कामनाएँ अपने-आप ही मिट जाती हैं। फिर न तो सांसारिक पदार्थोंकी प्रचुरता रहनेपर भी उनमें ममतासक्ति रह जाती है, न निपट दरिद्रता और दु:खमय स्थिति होनेपर भी उससे त्राण पानेकी उत्कट अभिलाषा होती है।

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते॥
(गीता ६।२२)

‘जिस लाभको प्राप्त होनेपर साधक उससे बढ़कर दूसरा कोई लाभ नहीं मानता और जिस स्थितिमें स्थित होकर वह बड़े भारी दु:खमें भी स्थितिसे विचलित नहीं होता।’ भजन करनेवालेकी अन्तमें यही स्थिति होती है, जिससे उसकी कामनाका बीज ही दग्ध हो जाता है। इसलिये किसी भी हेतुसे भजन करना चाहिये। आप भजन करते हैं—यह आपका परम सौभाग्य है—

‘भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥’

भजनमें यथाशक्ति निष्काम तथा प्रेमका भाव बढ़ाइये। अपनी भूलोंको देखते रहिये तथा भगवान‍्की असीम कृपाका अनुभव करते हुए भजनमें संलग्न रहिये। भजन अपने-आप ही सब काम कर देगा। शेष भगवत्कृपा।

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