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भोग, मोक्ष और प्रेम सभीके लिये भजन ही करना चाहिये

सप्रेम हरिस्मरण। भाई! सबके लिये यही एक नियम तो नहीं है, परन्तु भगवत्कृपाका यह भी एक तरीका अवश्य है। वे जिसपर कृपा करते हैं, उसे दु:खका अमोघ दान दिया करते हैं। उसका धन हरण करते हैं, मान घटा देते हैं एवं बन्धुओं और मित्रोंमें उसके प्रति घृणा या उपेक्षाकी वृत्ति उत्पन्न हो जाती है। असलमें संसारके सुखों और भोगोंकी विशाल इमारतें ज्यों-ज्यों ढहती हैं, त्यों-ही-त्यों वह संसारके बन्धनसे मुक्त होकर प्रभुकी ओर बढ़ता है। अपनी ओर खींचनेके लिये ही प्रभु उसे दु:खका दान दिया करते हैं। एक भक्त बंग-कविने भगवान‍्की सूक्ति कही है—

जे करे आमारि आश।
ताँर करि सर्वनाश॥
तबु जे छाड़े ना आश।
ताँ रे करि दासानुदास॥

‘जो मेरी आशा करता है, मैं उसका सर्वनाश कर देता हूँ। इतनेपर भी जो मेरी आशा नहीं छोड़ता, उसको मैं अपना दासानुदास बना लेता हूँ।’

बात भी ऐसी ही है। जबतक मनुष्य संसारके ‘सर्व’ के पीछे पागल है, तबतक उसे भगवान‍्की मधुर सुधि कैसे आयेगी? और भगवान‍्का स्मरण हुए बिना दु:खोंका आत्यन्तिक नाश सम्भव नहीं है। इसीलिये भगवान् ऐसे मनुष्यके भोगोंका हरण करके उसे अपनी ओर खींचते हैं। भगवान‍्ने कहा है—

यस्याहमनुगृह्णामि हरिष्ये तद्धनं शनै:।
ततोऽधनं त्यजन्त्यस्य स्वजना दु:खदु:खितम्॥
स यदा वितथोद्योगो निर्विण्ण: स्याद् धनेहया।
मत्परै: कृतमैत्रस्य करिष्ये मदनुग्रहम्॥
(श्रीमद्भा०१०। ८८। ८-९)

‘जिसपर मैं कृपा करता हूँ, उसके धनको धीरे-धीरे छीन लेता हूँ। जब वह निर्धन हो जाता है, तब उसके घरके लोग—सगे-सम्बन्धी उसके दु:खाकुल चित्तकी कुछ भी परवा न करके उसे छोड़ देते हैं। उसको कोई पूछतातक नहीं। वह धनके लिये यदि फिर चेष्टा करने लगता है तो मैं अपनी कृपासे उसका वह उद्योग भी निष्फल कर देता हूँ। इस प्रकार बार-बार असफल होनेसे उसका मन धन कमानेसे हट जाता है। उसे दु:खरूप मानकर वह उससे अपना मुँह मोड़ लेता है। और मेरे प्रेमी भक्तोंका आश्रय लेकर उनसे मित्रता करता है (क्योंकि संसारमें असफल और सबके द्वारा परित्यक्त पुरुषको भगवान‍्के भक्त ही आश्रय देते हैं), तब मैं उसपर अपनी अहैतुकी कृपाकी वर्षा करता हूँ (जिससे वह मुझमें लगकर मुझ सच्चिदानन्द ब्रह्मको प्राप्त कर लेता है)।’

इस प्रकार जगत‍्की दृष्टिमें अकिंचन बनाकर भगवान् उसे अपनी भक्ति देते हैं, तदनन्तर उसे आत्मदान करके स्वयं उसके सेवक बन जाते हैं। ऐसा भक्त फिर बाहरसे ही नहीं, भीतरसे भी ‘अकिंचन’ बन जाता है। उसका अपना एक भगवान‍्को छोड़कर और कोई कुछ रहता ही नहीं। ऐसा अकिंचन भक्त भगवान‍्को इतना प्रिय होता है कि भगवान् स्वयं उसकी सेवा करना चाहते हैं। भगवान् भक्तकी आराधना करते हैं। प्रेमास्पद प्रेमी बन जाता है। भगवान‍्ने अपने परमप्रिय भक्त उद्धवसे कहा है—

न तथा मे प्रियतम आत्मयोनिर्न शङ्कर:।
न च सङ्कर्षणो न श्रीर्नैवात्मा च यथा भवान्॥
निरपेक्षं मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम्।
अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यङ्घ्रिरेणुभि:॥
(श्रीमद्भा० ११।१४।१५-१६)

‘उद्धव! मुझे तुम-जैसे प्रेमी भक्त जितने प्रिय हैं, उतने प्रिय मेरे पुत्र ब्रह्मा, आत्मरूप शंकर, सगे बड़े भाई बलरामजी और नित्य अर्द्धांगिनी श्रीलक्ष्मीजी भी नहीं हैं। यहाँतक कि मेरा आत्मा भी उतना प्रिय नहीं है जितने मेरे प्रेमी भक्त मुझे प्यारे हैं। उद्धवजी! जो किसी चीजकी बाट नहीं देखते, निरन्तर मेरे मननमें ही लगे रहते हैं, सर्वथा शान्त रहते हैं, किसीसे वैर नहीं रखते और सबमें समभावसे केवल मुझको ही देखते हैं। इस प्रकारके भक्तके पीछे-पीछे मैं निरन्तर इसलिये घूमा करता हूँ कि उसके चरणोंकी रज उड़कर मुझपर पड़ जाय और मैं पवित्र हो जाऊँ।’

भक्त भगवान‍्के भजनमें निरन्तर सब कुछ भूला रहता है तो भगवान् उस भक्तका भजन करते हैं—

भरत सरिस को राम सनेही।
जगु जप राम रामु जप जेही॥

हाँ, भक्त यह कभी नहीं सोचता कि मैं इसलिये भक्ति करूँ कि भगवान् मेरे सेवक बन जायँ। सच्चा भक्त तो भगवान‍्का भजन केवल इसीलिये करता है कि उससे भजन किये बिना रहा ही नहीं जाता। उसका भजन, बस, भजनके लिये ही होता है। उसे न भुक्तिका पता है, न मुक्तिका। उसका चित्त सहज ही निरन्तर भजनमें रमता है, उसे उसीमें मजा आता है। इसलिये वह उसीमें सन्तुष्ट और मस्त रहता है। भगवान् अपने जिस कृपापात्र लौकिक धनी-मानी भक्तको वैभवके मायाजालसे छुड़ाकर आत्मदान करना चाहते हैं, उसीपर इस तरीकेसे कृपा किया करते हैं।

संसारकी धन-सम्पत्ति—जो प्राय: नरकोंमें ले जानेवाली ही होती है—नष्ट हो जाय और उसके बदलेमें यह परम धन मिल जाय तो इससे बढ़कर और कौन-सा लाभ हो सकता है? और इससे बढ़कर मानव-जीवनकी सफलता भी और क्या हो सकती है?

इससे कोई यह न समझे कि भगवान् सभी भक्तोंका धन-मान हरण करते हैं या किसीको भी धनैश्वर्य नहीं देते। वे धनैश्वर्य भी देते हैं, और प्रचुर परिमाणमें देते हैं—सुदामाको दिया, विभीषणको दिया, सुग्रीवको दिया, ध्रुवको दिया, उग्रसेनको दिया और भी न मालूम कितनोंको दिया। पर यह सब देकर भी उनको अभिमान नहीं दिया। वे भगवत्कृपासे सदा जलमें कमलपत्रकी भाँति धनमें रहकर भी धनसे अलग ही रहे। इधर बेचारे नारदजीको विवाह नहीं करने दिया। बलिका प्राप्त किया हुआ स्वर्गराज्य छीन लिया! अवस्थाके अनुसार ही व्यवस्था हुआ करती है। चतुर चिकित्सक रोगका निदान करके वही दवा देता है, जिससे रोगी रोगसे मुक्त हो जाय। फिर भगवान‍्की दी हुई तो कड़वी दवा भी—भगवान‍्का परिचय मिलनेपर मीठी ही मालूम होती है। बलिने स्वयं कृतज्ञता प्रकट करते हुए भगवान‍्से कहा है—

अहो प्रणामाय कृत: समुद्यम:
प्रपन्नभक्तार्थविधौ समाहित:।
यल्लोकपालैस्त्वदनुग्रहोऽमरै-
रलब्धपूर्वोऽपसदेऽसुरेऽर्पित:॥
(श्रीमद्भा० ८।२३।२)

‘अहो प्रभो! मैंने आपको पूरा प्रणाम भी नहीं किया, प्रणाम करनेकी चेष्टामात्र की। इसीसे मुझे वह फल मिला, जो आपके चरणोंके शरणागत भक्तोंको मिला करता है। बड़े-बड़े लोकपाल और देवताओंपर आपने जो कृपा कभी नहीं की, वह मुझ-जैसे नीच असुरको सहज ही प्राप्त हो गयी।’

इस प्रसंगमें भगवान‍्ने धनादिके हरणका जो कारण बतलाया है, उसे तुम भैया! श्रीमद्भागवतके आठवें स्कन्धके २२ वें अध्यायमें जरूर पढ़ना। कितने दयालु हैं भगवान् और जीवोंको किस तरह दु:खार्णवसे निकालकर नित्य सुख-समुद्र अपने चरणोंकी ओर खींचते हैं।

पता नहीं, तुम्हारे उन मित्रपर भी भगवान् इसी प्रकार कृपा करना चाहते हों। उन्हें घबराना नहीं चाहिये और भगवान‍्के मंगल-विधानके कल्याणमय परिणामपर विश्वास करके भगवान‍्का स्मरण करते हुए यथायोग्य चेष्टा करनी चाहिये।

यदि घबराहट ही हो और अपनी इसी वैभवकी स्थितिमें रहनेका मोह हो तो भी सर्वलोकमहेश्वर अनन्त ऐश्वर्य-सागर भगवान‍्से ही प्रार्थना करनी चाहिये। जब जाँचना ही है तो उन्हींको क्यों न जाँचा जाय! जो सर्वसमर्थ, सर्वज्ञ, सर्वैश्वर्यसम्पन्न होनेके साथ ही स्वभावसे ही परम उदार और सबके परम सुहृद् भी हैं। उनसे याचना करनेपर उनकी कृपा होगी तो याचनाकी वस्तु भी मिल जायगी और फिर माँगनेकी वृत्ति—कामना-वासना भी सदाके लिये नष्ट हो जायगी।

जग जाचिअ कोउ न, जाचिअ जौं
जियँ जाचिअ जानकीजानहि रे।
जेहि जाचत जाचकता जरि जाइ,
जो जारति जोर जहानहि रे॥

कदाचित् उन सर्वज्ञ प्रभुने अकल्याण समझकर माँगी हुई वस्तु नहीं दी तो उसके बदलेमें वे ऐसे विलक्षण शान्तिके और सन्तोषके अत्युच्च स्तरपर चढ़ा देंगे कि फिर अभाव-बोध होगा ही नहीं, प्रतिकूलताके दर्शन किसी भी स्थितिमें होंगे ही नहीं और सहज ही दु:ख-बीजका नाश हो जायगा।

किसी भी इच्छासे—अनिच्छासे, लौकिक या पारलौकिक किसी भी लाभके लिये एकमात्र भगवान‍्को ही पुकारना चाहिये। भोगी और त्यागी जो वस्तुएँ चाहते हैं, उन सबका इन छ:में समावेश हो जाता है—ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य। ये छहों चीजें एक जगह कहीं नहीं मिलतीं। और कहीं कोई-सी मिलती भी है तो वह अपूर्णरूपमें। फिर जिसके पास है, उसकी इच्छा है वह दे या न दे; परंतु भगवान् ऐसे हैं कि उनमें ये छहों वस्तुएँ समग्ररूपसे हैं—अनन्त हैं।*

* ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशस: श्रिय:।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा॥
ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजांस्यशेषत: ।
भगवच्छब्दवाच्यानि विना हेयैर्गुणादिभि:॥
(वि० पु० ६।५।७४,७९)
‘परिपूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य—इन छ: प्रकारकी महान् शक्तियोंका नाम भग है। हेय गुण अर्थात् प्राकृत गुणोंके लेशसे रहित परिपूर्ण ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य और तेज—ये भगवत्-शब्दवाच्य हैं।’ ऐश्वर्यादि छ: प्रकारकी महाशक्तियोंसे सम्पन्न सच्चिदानन्दघनविग्रह ही श्रीभगवान् हैं।

और वे इतने उदार हैं कि माँगनेपर चाहे सो दे भी देते हैं। देनेमें उनका कोई नुकसान भी नहीं होता; क्योंकि उनकी पूर्णता ही ऐसी है जो सब कुछ दे देनेपर भी उतनी ही बनी रहती है—

ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

यह उनका स्वरूप है। अतएव सभी तरहसे एकमात्र भगवान‍्को ही सर्वसमर्थ, सर्वत: परिपूर्ण और अपना अहैतुक मित्र मानकर उन्हींका आश्रय ग्रहण करना चाहिये। इसीमें कल्याण है।

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