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भगवान‍्के लिये अभिमान छोड़ो

प्रिय महोदय! सप्रेम हरिस्मरण। आपका पत्र मिला। आपको भगवान‍्के न मिलनेका दु:ख है, यह तो बड़ी अच्छी बात है; पर आप जो उनपर नाराज हैं और यह सोचते हैं कि ‘इतना चाहनेपर भी वे नहीं सुनते तो फिर कोई उन्हें क्यों भजे?’ यह ठीक नहीं है। सच बताइये, क्या आपके मनमें केवल उन्हींकी चाह है? क्या अन्यान्य वस्तुओंकी वासना रात-दिन आपके मनमें नहीं लहरा रही है? यदि है तो फिर आप उन्हें कैसे दोष दे सकते हैं? संसारकी भी कोई दुर्लभ चीज तबतक नहीं मिलती, जबतक उसके लिये अनन्य नहीं तो, कम-से-कम मुख्यभावसे प्रयत्न नहीं किया जाता। फिर भगवान् तो सर्वलोकमहेश्वर हैं। सर्वशिरोमणि हैं। पर इनके लिये अनन्यभाव तो दूर रहा, मुख्यभाव भी तो नहीं है। हम तो इन्हें वैसे ही चाहते हैं, जैसे घरमें और भी बहुत-सी छोटी-बड़ी चीजोंको चाहते हैं। बताइये, यह सच है या नहीं? दूसरा कोई होता तो शायद आपकी बात सच भी मानता; मैं तो जानता हूँ कि आप रात-दिन संसारके विभिन्न पदार्थोंके पीछे परेशान रहते हैं। शायद एक मिनटको भी आपका मन भोगपदार्थोंकी स्मृतिको नहीं छोड़ता। फिर आप कैसे यह कह सकते हैं कि आपके इतना चाहनेपर भी भगवान् आपकी नहीं सुनते? मैं तो समझता हूँ, वे आपकी बहुत सुनते हैं। न सुनते होते तो भोग-जगत‍्में रचे-पचे रहनेपर भी आपके चित्तमें जो कभी-कभी भगवान‍्की स्मृति होती है और उन्हें पानेकी मन्दतम भी कामना जाग्रत् होती है, सो कैसे होती? आपसे यही अनुरोध है कि आप भजन करते रहिये और यथासाध्य सत्पुरुष या सद‍्ग्रन्थोंका संग भी कीजिये। भगवान‍्की लीला-कथा सुनते-पढ़ते और उनका पवित्र नाम लेते-लेते जब कभी उनमें आपकी आसक्ति हो जायगी और उनको पानेकी आकांक्षा सचमुच जग उठेगी, तब आपके हृदयमें विरहकी आग पैदा हो जायगी। वह अग्नि सारे प्रतिबन्धकोंको जलाकर ऐसा शुभ्र प्रकाश फैलायेगी कि फिर भगवान‍्की मनोमोहिनी झाँकी आपके सामने होगी और आप उसे पाकर निहाल हो जायँगे।

राम राम रटते रहो, जब लग घटमें प्रान।
कबहूँ दीनदयालके, भनक परैगी कान॥

दूसरी बात यह है कि भगवान‍्की प्राप्ति असलमें उनकी कृपासे ही होती है। मनुष्यको भजन करना चाहिये उनकी कृपाकी अनुभूतिके लिये ही। कहीं भी मनमें अहंकार नहीं आना चाहिये। वैराग्य, ज्ञान और भक्तिका अहंकार भी बड़ा बाधक होता है। व्रजमें भगवान‍्के मधुर मिलनपर अभिमान करनेवाली प्रधान गोपांगनाको अकेली छोड़कर भगवान् इसीलिये अन्तर्धान हो गये थे। भगवान‍्की कृपासे ही उनके दासत्वका और उनकी सेवा-भक्तिका अधिकार प्राप्त होता है। रो-रोकर जब भक्त अपने सारे अहंकारको बहा देता है, तब उसे भगवान‍्की कृपा मिलती है। महाकवि रवीन्द्रनाथने भगवान‍्से प्रार्थना करते हुए बहुत सुन्दर शब्दोंमें कहा है—

आमार माथा नत करे दाओ हे तोमार चरणधूलार तले।
सकल अहंकार हे आमार डुबाओ चोखेर जले॥
निजेरे करिते गौरब दान निजेरे केवलि करि अपमान।
आपनारे शुधू घेरिया चेरिया धूरे मरि पले पले॥
सकल०
आमारे ना येन करि प्रचार आमार आपन काजे।
तोमारि इच्छा कर हे पूर्ण आमार जीवन माझे॥
याचि हे तोमार चरम शान्ति पराने तोमार परम कान्ति।
आमारे आड़ाल करिया दाँड़ाओ हृदयपद्म-दले॥
सकल०

‘हे प्रभो! अपनी चरणधूलिके नीचे मेरे मस्तकको झुका दो। मेरे सारे अहंकारको आँखोंके जलमें डुबा दो (इतने आँसू बहें कि उसमें सारा अहंकार डूब जाय)।’

‘मैं अपनेको गौरव देने जाकर केवल अपना अपमान ही करता हूँ। प्रतिपल केवल अपनेको ही घेरे हुए घूमता रहता हूँ। मेरे सारे अहंकारको आँखोंके जलमें डुबा दो।’

‘मैं अपने कामके लिये अब अपना प्रचार न करूँ। मेरे जीवनमें हे प्रभो! तुम अपनी इच्छा पूर्ण करो।’

‘मैं चाहता हूँ तुम्हारी चरम शान्तिको; मैं चाहता हूँ प्राणोंमें तुम्हारी परम कान्तिको; प्रभो! मेरी आड़ देकर तुम हृदय-कमलपर खड़े हो जाओ। मेरे सारे अहंकारको आँखोंके जलमें डुबा दो।’

इसलिये भगवत्प्राप्तिकी साधनामें लगे हुए साधकके हृदयमें अपनी साधनाका भी अभिमान नहीं आना चाहिये। याद रखना चाहिये, भगवान् वहीं आते हैं, जहाँ दूसरा नहीं होता। वे खाली स्थान चाहते हैं। यदि ‘हम’ बीचमें खड़ा रहेगा तो उनके लिये स्थान खाली कहाँ रहेगा?

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
प्रेमगली अति साँकरी, तामें दो न समाहिं॥

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