महान् गुण भक्तिसे ही टिकते हैं
सप्रेम हरिस्मरण। आपका कृपापत्र मिला। बात यह है कि जब पहले-पहल मनुष्य देश और जातिकी सेवाके लिये और दीन-दरिद्र, दु:खपीड़ित प्राणियोंकी सहायताके लिये कुछ काम प्रारम्भ करता है, उस समय उसके भाव निस्सन्देह बहुत अच्छे होते हैं; वह सचमुच सेवा और सहायता ही करना चाहता है। पर जब क्रमश: उसका नाम फैल जाता है, उसे सम्मान मिलता है और बड़े-बड़े धनी-मानी लोग जब उस दरिद्र नेताको अपना सरदार मानकर उसकी पूजा-प्रतिष्ठा करने लगते हैं, तब उसके अंदर सोयी हुई विषय-वासना जाग उठती है और वह बेचारा उस वासनासे प्रेरित होकर सुविधा पानेसे विषय-सेवनके गहरे गर्तमें पड़कर अपनी और देशकी दुर्दशा कर डालता है। आपने जो कुछ लिखा है, उसमें यही बात है। इसीलिये अनुभवी संतोंने कहा है कि दैवी सम्पत्तिके महान् गुण उसीमें ठहरते हैं, जो भगवान्के आश्रित होता है। जबतक भगवान्की भक्तिसे हृदयमें अकिंचनता—अहंकारशून्यता नहीं आ जाती, तबतक सद्गुण आ नहीं सकते और किसी कारणविशेषसे कुछ आ जाते हैं तो वे स्थिर नहीं रह सकते। श्रीमद्भागवतमें प्रह्लादजीने कहा है—
यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिञ्चना
सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुरा:।
हरावभक्तस्य कुतो महद्गुणा
मनोरथेनासति धावतो बहि:॥
(५।१८।१२)
‘श्रीभगवान्में जिसकी अकिंचना (निष्काम) भक्ति होती है (जो अपने हृदयमें ऐसा अनुभव करता है कि धन, जन, मान, वैभव तथा मैं और मेरा कुछ भी नहीं है और इस प्रकारके अनुभवसे शून्यहृदयकी पूर्णताका अभिलाषी होकर) जो श्रीभगवच्चरणारविन्दकी प्राप्तिके लिये ललचा उठता है, उस पुरुषके हृदयमें समस्त देवता सारे सद्गुणोंको लेकर नित्य विराजित रहते हैं अर्थात् ऐसे निष्किंचन भक्तका जीवन समस्त सद्गुणोंसे सम्पन्न होकर वस्तुत: बहुत ही ऊँचे स्तरपर उठ जाता है; पर जिसमें भगवान्की भक्ति नहीं, उसमें महान् गुण कहाँसे आ सकते हैं? वह तो मनमानी कामनाओंके रथपर सवार होकर निरन्तर बाहरी विषयोंकी ओर ही दौड़ता रहता है।’
सद्गुणोंके निवासके लिये कोई सुदृढ़ आधार चाहिये। वह आधार है भगवान्की भक्ति। आजका मनुष्य भगवान्को छोड़कर सद्गुणोंका सेवन करना चाहता है, इसीसे वह पद-पदपर वंचित होता है और अन्तमें विषयपंकमें फँसकर अपनेको नष्ट कर डालता है। आज देशभरमें यही हो रहा है। पारस्परिक कलह, पद-लोलुपता, द्वेष तथा सैकड़ों दलबंदियोंका यही प्रधान कारण है। इस दुर्दशासे हमारा छुटकारा तबतक नहीं हो सकता, जबतक हमारे कार्यकर्ताओंके हृदयमें अकिंचना भक्तिका अंकुर नहीं पैदा होता और जबतक वह नियमितरूपसे श्रवण-कीर्तनादिरूप अमृत-जलसे सतत सींचा नहीं जाता। सेवा करनेवालोंको पहले अपनेमें अकिंचनता पैदा करनी होगी, तभी वे सेवा कर सकेंगे। नहीं तो, सेवा करनेके बदले वे सेवा कराने लगेंगे और किसीके न करनेपर उसके शत्रु बनकर उसके और प्रतिक्रियारूपमें अपने भी विनाश-साधनमें लग जायँगे।
आप यदि सचमुच देशकी सेवा करना चाहते हैं और साथ ही दुर्गुणोंसे बचना चाहते हैं तो सबसे पहले अपनेको ‘सेवक’ बनाइये। प्रत्येक कार्य भगवत्सेवाके लिये करना है और करना है भगवान्की दी हुई वस्तुओंसे और उन्हींके दिये हुए मन-बुद्धि तथा शरीरके द्वारा। अपना निजका कुछ भी नहीं है और न किसी वस्तुके बदलेमें कुछ पानेका अधिकार है। उनकी चीज, उनके इच्छानुसार उनकी सेवामें समर्पित करनी है। इस सेवामें वे कृपा करके हमें निमित्त बनाते हैं—यही हमारा परम सौभाग्य है। प्रभुसे सदा यही प्रार्थना करनी चाहिये कि कभी मनमें अहंकार पैदा न हो—विषयवासनावश कभी सेवा करानेकी या सेवाका कुछ भी बदला पानेकी जरा भी इच्छा मनमें जाग्रत् न हो। साथ ही भगवान्के नाम-गुणोंका श्रवण-कीर्तन भी करते रहना चाहिये। इससे भक्तिका पौधा लहलहाता रहता है और शीघ्र ही बढ़कर प्रेमरूप परम फल देता है। प्रेमकी प्राप्ति होती है, तभी वास्तविक प्रभु-सेवा बन पड़ती है। सेवाकी योग्यता प्रेमसे ही आती है।